डेनिम की भारी-सी जीन की पैंट को खंगालकर निचोड़ने के बाद जब मैं उसे हैंगर पर फैलाने के लिए सीधी खड़ी होने लगी तो सारे बदन से टीस-सी उठी। पूरी तरह ईस्तादा होने में मुझे दस-बारह सेकण्ड तो ज़रूर लगे और जब मैंने जीन को ज़ोर से झटककर झाड़ा तो मेरे बाएँ हाथ की तीसरी उँगली का वो लम्बा-सा नाख़ून जो जीन की मोरी को रगड़ते हुए आधा टूट गया था, उँगली के पोर की थोड़ी-सी जिल्द छीलता हुआ पूरा अलग हो गया। ख़ून के क़तरे गिरने लगे और मैं दर्द से बिलबिला उठी। मगर इस ख़्याल से कि कहीं जीन पर ख़ून का धब्बा न लग जाए, मैंने एक हाथ से बमुश्किल तमाम उसे हैंगर पर डाल दिया।

उँगली पर टिशू पेपर लपेटकर, मैं खिड़की की तरफ़ लपकी और खिड़की के दोनों पट खोल दिए। अन्धेरों से निकलकर आता हुआ हवा का एक उदास झोंका मेरे चेहरे से टकराया। जाने इतनी जल्दी अन्धेरा कैसे हो गया। अभी कुछ देर पहले ही तो मैंने कुछ देर बाद डूबने वाले सूरज की हल्की-सी झलक देखी थी। बस इतनी सी देर में?… एक ही तो पैंट धोयी थी मैंने… मेरी उँगली का दर्द मेरे दिल में उतर आया। एक थकी हुई नज़र मैंने आसमान की तरफ़ उठायी। इतने वसीअ आसमान पर मुश्तरी अकेला चमक रहा था। मुश्तरी का अक्स मेरी आँखों में धुँधला सा गया… इस ज़रा सी बात पर… ये आँसू भी…

कुछ दिन पहले जब उन्होंने बताया कि उनके दफ़्तरी काम के सिलसिले में हम लोग तीन दिन के लिए शिमला जा रहे हैं तो मसर्रत की एक लहर मेरे पूरे वजूद में दौड़ गई थी। दरअसल मेरी अपनी छुट्टी के भी ये ही तीन दिन थे। इन दिनों मन्नू की भी छुट्टियाँ चल रही थीं । मालूम नहीं मेरा वक़्त कहाँ चला जाता है। लोग बोर कैसे होते होंगे। मुझे तो बोर होने का वक़्त कभी मयस्सर नहीं आया। वैसे कुछ करना तो होता नहीं मुझे ऐसा। मगर फिर भी कभी-कभी मैं एक-एक लम्हे को अपने पास बुलाकर रह जाती हूँ। उसे दिल की गहराइयों से याद करती हूँ। पुचकारती हूँ। तसव्वुरात की बाहें पसारे उससे वादा करती हूँ कि उसे इतने ख़ूबसूरत अंदाज़ से गुज़ारूँगी कि शायद ही उसे किसी ने इतना हुस्न बख़्शा हो। उसकी मिन्नत और ख़ुशामद करती हूँ।

बड़ी मुश्किल से इतनी सारी आजिज़ी के बाद जब वो एक लम्हा मेरे पास आने को तैयार होता है तो… उसी वक़्त कुकर की सीटी, टेलीफ़ोन की आवाज़, दरवाज़े की घण्टी, बच्चों की पुकार, ग्वाले की डोल्ची की खड़खड़ाहट या फिर किसी काम का एहसास-ए-ज़िम्मेदारी… और मेरा इतने जतन से बुलाया हुआ लम्हा मुझ तक पहुँचने से पहले ही कहीं दूर साकित हो जाता है। मैं ख़ाली दामन और ख़ाली बाहें लिए कोई फ़र्ज़ पूरा करने के लिए आगे बढ़ जाती हूँ।

और फिर मुझे दिन-भर करना ही क्या होता है। वो ठीक ही कहते हैं, काम वाली कपड़े धोती है, सफ़ाई करती है। अब ऐसा कौन-सा काम रह जाता है। ज़रा सा बच्चों को ही तो देखना होता है।

उनकी बिखरी हुई चीज़ें अपनी जगह पर रखना। वो ऊधम भी तो बहुत मचाते हैं। या फिर खाना बनाना, सौदा सुल्फ़ ले आना या दीगर ख़रीदारी वग़ैरा करना। छोटे-मोटे घरेलू कामों के लिए बिजली वाला या नल-वल ठीक करने वाला बुलाना। मुझे कहीं जाना तो होता नहीं। आराम से घर में काम करती, अपने सामने सब ठीक-ठाक करवाती रहूँगी तो मेरा वक़्त गुज़रता जाएगा। मुस्तैद रहूँगी तो तंदरुस्त रहूँगी। वो नौकर के सख़्त ख़िलाफ़ हैं। कहते हैं बड़े शहरों में छोटा नौकर रखना भी ख़तरा मोल लेने के बराबर है। वो बहुत अक़लमन्द हैं, उन्हें हर बात का तजुर्बा है। अब भला मैं घरेलू औरत ये सब क्या जानूँ। मुझे करना ही क्या होता है ऐसा। झाड़-पोंछ लिया। कपड़े सम्भाल लिये। मिनी का दूध, नैपीज़ वग़ैरा। मुन्ने की किताबें खिलौने वग़ैरा देख लिए। उसका होमवर्क करा लिया। बस और क्या। पता नहीं चीज़ें बार-बार क्यों बिखर जाती हैं और उन्हें ठीक करने में इतना वक़्त क्यों लगता है।और फिर ये वक़्त कैसे इतनी जल्दी गुज़र जाता।

वो बहुत मसरूफ़ रहते हैं। और मैं सारा दिन घर में ही गुज़ारती हूँ। फिर भी ये तीन दिन जो इस गर्मी से दूर एक ख़ूबसूरत मुक़ाम पर गुज़रेंगे, मेरे अपने होंगे। और बच्चे नयी जगह में महव रहेंगे। न बावर्चीख़ाना, न ख़रीदारी। सिर्फ़ ख़ूबसूरत पहाड़, रंग-बिरंगे परिन्दे और मीठी-मीठी उनकी बोलियाँ, बड़े-बड़े दाँतों वाले बन्दर और काले मुँह और लम्बी दुम वाले लंगूर। हरी-हरी घास और ख़ुश-रंग फूलों पर मण्डलाती नीली-पीली तितलियाँ। चाँदनी-रात और ना आलूदा आसमान के बेशुमार तारे। तूलूअ और ग़ुरूब-ए-आफ़ताब का शफ़क़-गूँ असमान। ठण्डी-ठण्डी हवाएँ और भीगी-भीगी रुतें। पल-पल आँख-मिचोली करती हुई धूप की किरनें। और न जाने क्या-क्या। ये सब मैं अपनी मर्ज़ी से देखूँगी, महसूस करूँगी। ये बहत्तर घण्टे मेरे अपने होंगे। ओह… कितना सुकून मिलता है इस तसव्वुर से ही मुझे। उसे महसूस करूँगी तो कैसा लगेगा। मेरे मन में गुदगुदी-सी होने लगती है। ज़िन्दगी सहल-सहल सी मालूम होने लगती है।

मैं हफ़्ता भर पहले ही सफ़र की तैयारियों में लग गई। इस झुलसती गर्मी से तीन दिन दूर। बहुत होते हैं तीन दिन। ये तीन दिन मुझे पूरी तरह से recreate करेंगे।

सफ़र पर जाने की शाम मैंने सबकी पैकिंग की। रात के दो बज गए ये सब करने में। सुबह हमें हिमालयन क्वीन पकड़नी थी छः बजे से पहले। इसके लिए हमें घर से पाँच बजे चलना होगा। और फिर मुझे चार बजे उठना होगा। ये बिस्तर में चाय पीने के आदी हैं। इन सबके तैयार होने से जो चीज़ें बिखरेंगी, उन्हें समेटना होगा। मसहरियाँ भी ठीक करना होंगी। कामवाली तो उस वक़्त होगी नहीं। सब सफ़ाई वग़ैरा करके ही निकलना होगा।

बाहर से लौटकर उन्हें गन्दा घर अच्छा नहीं लगता।

फिर दरवाज़ों खिड़कियों की कुण्डियाँ चटखनियाँ अच्छे से देखना-भालना, ताले-चाबियाँ, नल, बिजलियाँ वग़ैरा देखना। सब कुछ मुक़फ़्फ़ल करना। वो कहते हैं कि ये सब काम मैं ही बेहतर तरीक़े से कर सकती हूँ और मुझे ही करना है कि ये उनके बस की बात नहीं।

दूसरी सुबह कुछ सोते, कुछ जागते हम रवाना हुए और दोपहर को कालका पहुँच गए। वहाँ से शिमला के लिए टैक्सी ली। मन्नू को इन घूमते, बल खाते रास्तों में उबकाई हो जाती है। वो सारा रास्ता उल्टियाँ करता रहा। मैं उसका सर थामे रखती, मुँह पोंछती, गिरेबान साफ़ करती रही।

वो अगली सीट पर शायद सो रहे थे… पहाड़ी रास्ते इतने दिल मोहने वाले थे कि सब थकान भूलकर मैं उन ऊँचे-ऊँचे पेड़ों को, ढलवानों, घाटियों को देखने लगी। कोई साढे़ तीन घण्टे का सफ़र था। बूँदें पड़ने लगी थीं। जहाँ-जहाँ गाड़ी बढ़ती, ज़रा-सा रास्ता छोड़कर वहीं पर बारिश पड़ने लगती। बादल हमारे ही रुख पर तैर रहे थे। हमारे साथ-साथ चलकर मेंह बरसाते जाते। दोनों बच्चे मेरे दो काँधों पर सर टिकाए सो रहे थे। शायद इस तरन्नुम को लोरी समझकर जो बारिश के क़तरों के खिड़कियों के शीशों से टकराने से पैदा हो रही थी। उन्हें मीठी नींद आ गई थी। ये मंज़र इस क़दर दिलकश था कि मेरी बोझल पलकें भी बन्द न हो पा रही थीं । ज़ोरों से बरसता हुआ पानी सामने के शीशे पर छा जाता और गाड़ी में लगा वाइपर उसे पलक झपकते में पोंछ लेता और इतने ही अर्से में उसकी जगह और पानी ले लेता और फिर उसी तरह पोंछा जाता। दोनों तरफ़ के शीशों पर भी बूँदें टकरा-टकराकर फिसल रही थीं। बारिश सीधी, आड़ी, तिरछी जाने कैसे-कैसे बह रही थी। एक तरफ़ पहाड़ियाँ, एक तरफ़ जंगल और अगर जंगल की तरफ़ देखें तो बारिश आसमान से लेकर ज़मीन तक बरसती हुई पानी की हज़ारों निहायत तवील धारों की शक्ल में रवाँ नज़र आ रही थी। ऐसा मालूम हो रहा था जैसे हम ख़ुद ऊपर से नीचे पानी के बेशुमार धारें बरसा रहे हों।

गाड़ी के अन्दर हल्की-हल्की गर्मी थी। बाहर हवाएँ, सर्दी और बारिश और तन्हा बल खाती सुरमई तवील सड़क… मुझे नींद आ रही थी… मंज़र को निहारना अच्छा लगता था मगर थकान के बावजूद मैंने ख़ुद को सोने से रोके रखा ताकि मोड़ों पर मुड़ते वक़्त बच्चों को कहीं चोट ही न लग जाए।

ये जगह शिमला से आगे थी। बीचों बीच जंगल के। वैसे यहाँ सब कुछ जंगल के दरमियान ही था। मगर यहाँ क़ुदरती हुस्न अपने शबाब पर था। छोटी-सी पहाड़ी के ऊपर ये ख़ूबसूरत-सा होटेल। पहाड़ी के शुरू में मुख़्तसर-सा बाज़ार… सब ख़ूबसूरत था।

टैक्सी से उतरते ही ताज़ा हवा के मुअत्तर झोंकों ने हमारा इस्तिक़बाल किया। इस ख़ुशबू में जंगली दरख़्तों की सोंधी-सोंधी महक भी शामिल थी और मुख़्तलिफ़ क़िस्म के फूलों की खुशबुएँ भी, जो बाग़ीचे में चारों तरफ़ और दरमियान में निहायत सलीक़े से उगाए गए थे। उसमें ईस्तादा बड़े से अखरोट के पेड़ पर एक मैना अपनी पीली चोंच वा किए चहक रही थी। बारिश थम चुकी थी, निखरे नीले आसमान पर बादल के दूध जैसे सफ़ेद टुकड़े इधर-उधर टँगे हुए थे। सुरमई पंखों और पीले पेट वाली एक मुन्नी-सी चिड़िया यहाँ से वहाँ उड़ रही थी। आसमान पर क़ौस-ओ-क़ुज़ह उभर आया था। बच्चों ने पहली बार धनक को देखा तो बहुत ख़ुश हुए। आस-पास हद-ए-नज़र तक धुला-धुलाया सा मंज़र। नहाए नहलाए से पेड़, सजे-सजाए शर्माए-शर्माए से फूल। हरी-हरी घास पर अठखेलियाँ करती हुई रंग-बिरंगी तितलियाँ। नीला-नीला आसमान देखकर गुनगुनाती हुई मैना… ये मंज़र जाने कहाँ ले गया।

कमरे में पहुँचकर मैंने सब के कपड़े Unpack कर के अलमारी में लटका दिए। बच्चों को हाथ मुँह धुलाने ग़ुस्लख़ाने में ले जाने लगी तो देखा कि बादल अन्दर घुसे आ रहे थे, खिड़की के रास्ते। इससे पहले कि मैं इस होश-रुबा मंज़र में महव हो जाती, मैंने बादलों से दरख़ास्त की कि कुछ और देर ऐसे ही ठहर जाएँ। मैं बच्चों से फ़ारिग़ हो लूँ कि मैं ये सहर-आगीं मंज़र पहली बार देख रही हूँ। वो बालकनी में खड़े सिगरेट फूँक रहे थे।

खाना खाते शाम हो गई। शाम से मुझे इश्क़ रहा है। चौबीस घण्टों में शाम ही है जो मुझे अपनी सी लगती है। फिर पहाड़ों की शाम की बात तो कुछ और ही है। मैं बालकनी में बैठकर बादलों को अपने चेहरे पर, अपने हाथों पर महसूस करना चाह रही थी कि मैं तीन दिन के लिए बादलों के पास इतनी ऊँचाई पर चली आयी थी। वहाँ बैठकर ज़रा सा वो मैगज़ीन देखना चाह रही थी जो मैंने स्टेशन पर ख़रीदा था… मगर…

मगर उनकी सिगरेट ख़त्म हो गई थी और होटल में वो ब्राण्ड नहीं था। उन्होंने मुझे ही भेजना मुनासिब समझा। कहने लगे कि बच्चों को भी साथ ले जाऊँ बाज़ार। रास्ता भी देख लूँगी और सैर भी हो जाएगी। वो जब तक बालकनी में बैठकर मैगज़ीन देखेंगे। उन्होंने आहिस्ता से मेरे हाथ से रिसाला लेते हुए समझाया था।

बाज़ार दूर से नज़र आ रहा था। हमारे चलते वक़्त आसमान फिर अब्र आलूद था। मगर बूँदें इतनी बारीक-बारीक बरस रही थीं जैसे छलनी में से छनकर गिर रही हों । हम ढलान तय करके चौड़ी सड़क पर पहुँचे ही थे कि बारिश अचानक तेज़ हो गई। और हम सब एक दुकान के छज्जे तक पहुँचते-पहुँचते बुरी तरह भीग गए। कुछ देर बाद जब बारिश ज़रा कम हुई तो जल्दी से सिगरेट और कुछ बिस्कुट वग़ैरा लेकर मैं गुड़िया को गोद में लिए, मन्नू की उँगली थामे ऊपर चढ़ाई चढ़ने लगी। सर्द हवा बदन को छूती हुई लिबास के आर-पार होकर गुज़र रही थी। मगर मैं पसीना-पसीना हो रही थी। साँस बेतरतीब चल रहा था। मन्नू भी बार-बार रुक रहा था। अगर वो ज़रा-सा ढलान तक आ जाते तो गुड़िया को सम्भाल लेते या मन्नू को ही सहारा देकर ऊपर ले जाते।

हाँफते-काँपते जब हम ऊपर पहुँचे तो वो मसहरी पर नीम दराज़ गर्म-गर्म चाय पी रहे थे। टीवी ऑन था। कोई पुरानी फ़िल्म आ रही थी। फ़िल्म की हीरोइन एक नन्हे-से बच्चे को पीठ पर बाँधे, कुदाल से पत्थर जैसी सख़्त ज़मीन खोद रही थी। वो निहायत पुरसुकून थे। उन्होंने हम लोगों की तरफ़ देखे बग़ैर सिगरेट के लिए हाथ बढ़ाया।

मैंने जल्दी से बच्चों के बाल पोंछकर उनके कपड़े तब्दील किए और फिर अपने। गुड़िया की कपकपाहट बढ़ती जा रही थी। मैंने उसे कम्बल ओढ़ाकर उनके बराबर लिटा दिया। कुछ देर बाद वो बोले कि गुड़िया को बुख़ार आ रहा है। छुवा तो वो तप रही थी। मैंने उसे और मुन्नू दोनों को क्रोसीन सिरप का एक-एक चम्मच पिला दिया। उसके नाज़ुक से नन्हे वजूद को सर्दी हो गई थी। उस दिन पूरी रात वो बेचैन रही। मैं बीच-बीच में दवाई भी पिलाती रही। ठण्डे पानी की पट्टियाँ भी करती रही। सुबह के वक़्त जब उसका बुख़ार कम हुआ तो वो सो गई।

यहाँ तो यूँ भी मुझे कोई काम नहीं। नींद आएगी तो दिन में भी सो सकती हूँ। मगर मैं सोकर इस हसीन मंज़र की तौहीन नहीं करना चाहती और न ही आने वाले दिन को नींद के हवाले करके ज़ाया करूँगी। मैं इसे महसूस करना चाहती हूँ। मैं हरगिज़ न सोऊँगी।

सहर होने को थी मगर अभी बाहर घुप्प अन्धेरा था। क़रीब ही किसी पेड़ पर कोई परिन्दा गा रहा था। इतनी सुबह यानी सुबह से भी पहले। ये कौन-सा परिन्दा गा सकता है। इतना मीठा नग़मा। एक मुसलसल गीत। सुर और लय से भरपूर। मैं उठकर खिड़की तक आ गई। मैंने अन्धेरे में ग़ौर से देखा। स्याही माइल नीले परों और पीली चोंच वाली मैना घास पर इधर-उधर कभी चलकर, कभी फुदककर चहलक़दमी कर रही थी और कभी रुककर सर ऊपर उठाए इस सुरीले नग़मे का अलाप कर रही थी जो इस गहरे सुकूत को तोड़कर रूह की गहराइयों में घुला जा रहा था। ये मंज़र इतना होश-रुबा था कि मेरे पाँव खिड़की के पास जैसे कि मुंजमिद हो गए। सुबह-ए-काज़िब के नये-नये मुतवक़्क़े-इसरार से महज़ूज़ होने के लिए मैं वहीं खड़ी रही। ज़रा सी देर में पौ फटा चाहती थी। मैना असल में इतनी सुबह बाग़ीचे में एक ज़रूरी काम के सिलसिले में उतरी थी वर्ना वो डाल पर भी तो गा सकती थी। वो इन नन्ही-मुन्नी बीर बहूटियों के लिए पैग़ाम-ए-अजल लेकर नमूदार हुई थी जो घास के एक मुन्ने से तिनके की ओट में कुछ घण्टों की ज़िन्दगी गुज़ारा करती हैं। छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े वो शौक़ से खाया करती है। पहरों घास पर इधर-उधर घूमकर उन्हें तलाश करती थक जाती तो उड़ान भरकर पास के पेड़ पर बैठकर नग़मा छेड़ देती। जैसे कोई मुख़्तलिफ़ सुरों में सीटियाँ बजा रहा हो और साथ ही चहक भी रहा हो। कुछ सीटियाँ एक चहक, फिर सीटियाँ फिर चहक…

रोशनी फैलने लगी थी। परिन्दे जाग गए थे। किसी शाख़ पर भूरे सुरमई परों और फुर्तीले जिस्म वाली कस्तूरी लहक-लहक करगा रही थी… पी.. पी.. पी.. पिव… पिव। कई तरह की मुख़्तलिफ़ बोलियाँ बोल रहे थे परिन्दे। कई तरह की बुलबुलें गा रही थीं।

कुछ ही देर में धुन्ध ने सारे मंज़र को अपनी लपेट में ले लिया। दरअसल ये धुन्ध नहीं थी, ये बादल थे जो हमें मैदानी इलाक़ों में बहुत ऊपर फैले हुए नज़र आते हैं वर्ना अगर ये सिर्फ़ धुन्ध होती तो सिर्फ़ धुन्ध ही होती। साथ में बारिश भी होने लगी थी। परिन्दे ख़ामोश से हो गए थे। मगर वो मैना अब भी घास पर भीग-भीगकर घूम-घूमकर नग़मे गा रही थी। न वो भीगने से घबराती, न सर्दी से। जी चाह रहा था कि नीचे बाग़ीचे में उतरकर मैं भी ज़रा सा टहलकर थोड़ा सा भीगूँ और इस धुली धुलाई निखरी नहाई सुबह को अपनी रूह में उतार लूँ मगर मुसलसल कई घण्टों की थकान और शब-बेदारी ने मेरे पाँव मन-मन भर के कर दिए। आँखें ख़ुद बख़ुद बन्द होने लगीं, मैं वापस मसहरी पर आ गई।

छत के ऊपर ज़ोरों की खड़खड़ाहट से मेरी आँख खुल गई। खिड़की से झाँका तो धूप चमक रही थी और टीन की छत पर उछलते कूदते बन्दरों का साया बाग़ीचे की घास पर साफ़ दिखायी दे रहा था। वो कमरे में नहीं थे। शायद मन्नु भी उनके साथ गया था।

गुड़िया चुप-चाप सो रही थी। नन्ही सी जान को बुख़ार ने कुम्हलाकर रख दिया था। उसका फूल सा चेहरा मुर्झा गया था। वो पीली पड़ गई थी, होंठ सूखे हुए थे। अगर ठीक होती तो अपने क़द के बराबर हर चीज़ का वो भरपूर जायज़ा ले चुकी होती कि अभी-अभी खड़ा होना सीखा था उसने। ऐश ट्रे जो उसके क़द के बराबर ऊँची मेज़ पर सलीक़े से एक तरफ़ को सज रही थी, फ़र्श पर औंधी पड़ी होती और सिगरेट के बचे हुए टुकड़े कुछ ज़मीन पर होते, कुछ उसके मुँह में। जग उल्टा हुआ होता और गिलास गिरा हुआ। दो मिनट में उसके सारे कपड़े भीगे हुए होते और मुझे देखकर हँस-हँसकर कभी मसहरी के नीचे घुसने की कोशिश करती, कभी मेज़ के नीचे। और मैं वहाँ से उसके गोल मटोल मक्खन जैसे पैरों को खींचकर उसे बाहर निकालती। उसका दहाना साफ़ करती, मुँह से सिगरेट के बचे हुए टुकड़े निकालकर उसे ख़ूब-ख़ूब प्यार करती…

मगर इस बुख़ार ने उसे निढाल कर दिया था।

मैंने पानी पिलाने के ख़्याल से उसके चेहरे को छुवा। वो अब भी हल्का-सा गर्म था। मैंने माथे पर हाथ फेरा। पसीने की वजह से नर्म-नर्म बाल माथे से चिपक गए थे। उसने नहीफ़ सी आवाज़ में मुझे पुकारा। मैंने दो तीन चम्मच पानी पिलाया। उसने मुश्किल से पिया। इस वक़्त भी उसे भूख नहीं थी। कल रात भी उसने कुछ न खाया था। और अब वो बहुत नहीफ़ लग रही थी। इस वक़्त वो कुछ देर के लिए आ जाते तो मैं बाज़ार जाकर कुछ दलिया वग़ैरा ले आती। दवा से कुछ देर के लिए जब उसका बुख़ार उतरता तो मैं उसे दलिया खिला देती। दोपहर हो गई, वो नहीं लौटे। नीचे वो कह गए थे कि मेरा खाना कमरे में भिजवा दिया जाए।

सारा दिन बुख़ार में तप्ती हुई गुड़िया को सीने से लिपटाए मैं ख़ुद भी तड़पती रही। वो भूखी थी तो मुझसे कहाँ खाया जाता कुछ। मैंने वेटर से दूध ऊपर कमरे में मँगवाया था, उसने नज़र उठाकर देखा तक नहीं।

सुबह मौसम ख़ुशगवार था फिर मालूम नहीं कब बादल छाए, मतला अब्र आलूद हो गया। हवा के झोंके ने खिड़की का पट खट से खोल दिया तो मैंने गर्दन मोड़कर देखना चाहा मगर उस वक़्त गुड़िया नींद या ग़नूदगी या बुख़ार में मुझे पुकारकर चीख़ी। मैंने हिलाकर जगा दिया। पानी के दो चम्मच पिलाए, कुछ बात करना चाही। वो नीम-वा सी आँखों से मेरी तरफ़ देखती रही। मैं मुस्कुरायी तो वो भी धीरे से मुस्कुरायी। मैं उसका मुखड़ा देख रही थी। हरारत कुछ कम थी। मेरा दिल पुरसुकून होने लगा। अब शायद वो दूध पी लेगी। कुछ ताज़ा सी खुश्बुएँ महसूस हुईं तो मैंने नज़र उठाकर देखा कि हवाएँ कमरे के अन्दर चली आ रही थीं। मैंने पहली बार हवाओं को देखा था। पहली बार हवा की ख़ुशबू सूँघी थी। मुझे अपनी क़ुव्वत-ए-शामा और बासिरा पर यक़ीन नहीं हो रहा था। क्या हवा को देखा जा सकता है? हाँ हवा को देखा जा सकता है। जब वो बादलों के बेशुमार ख़ुर्दबीनी ज़र्रात पर सवार होकर आए। और हवा को सूँघा भी जा सकता है… जब वो जंगल के अज़ीम दरख़्तों के नोकीले पत्तों की सोंधी-सोंधी महक और रंग बिरंगे फूलों और हरी-हरी घास की नमी और ख़ुशबू अपने साथ लेकर चुपके से खिड़की से दाख़िल हो।

कुछ देर मैं इस जन्नत में गुम हो गई जो बग़ैर बताए कमरे में आकर मुझे सरशार कर गई।

मैंने दो तकीयों की मदद से गुड़िया को बिठाकर चारों तरफ़ से कम्बल ओढ़ा दिया। बाहर ज़ोरों की बारिश हो रही थी। एक मैना उड़ती आयी और खिड़की पर बैठकर गाने लगी। उसे तो बहाना चाहिए गाने का। बादल छाएँ तो गाएगी। बारिश बरसे तो गाएगी, बारिश थम जाए, तो गाएगी। सूरज चढ़े तो गाएगी और डूबे तो भी। बल्कि सूरज चढ़ने से घण्टों पहले मुँह अन्धेरे गाने लगेगी और इसी तरह सूरज ग़ुरूब होने के घण्टों बाद तक जब तक घुप्प अन्धेरा न हो जाए और कुछ भी नज़र न आ सके, उस वक़्त तक गाती जाएगी। ऐसा भी देखा है कि बिजली कड़कती है और ये चहकती है और बादलों की ज़ोरदार खुरदुरी दहाड़ में भी इसका निहायत सुरीला नग़मा कानों में रस घोलता, गरज को चीरता हुआ सुनायी देता है। मैंने ऐसा ख़ुश-मिज़ाज परिन्दा कभी नहीं देखा था। गाती हुई पहाड़ी मैना का नग़मा या उसकी पीली चोंच या फिर स्याही माइल नीले परों की कशिश थी कि गुड़िया उस का मह्वियत से मुशाहिदा करने लगी। मैंने उसकी इसी मह्वियत का फ़ायदा उठाकर उसे चार-छः चम्मच दूध पिला दिया और ख़ुद चाय के छोटे-छोटे घूँट भरते हुए मैना को देखने लगी। मेरा जी चाह रहा था कि खिड़की से बाहर देखते हुए चाय पियूँ। मगर मैना के उड़ जाने के डर से मैं वहीं गुड़िया के पास मसहरी पर बैठ गई। मेंह ज़ोरों का था। साथ ही मोटे-मोटे ओले भी पड़ रहे थे। मैना कहीं उड़ गई थी। मैंने खिड़की के क़रीब जाकर बारिश के क़तरों को हाथ में लेने के लिए हाथ फैला दिया। बड़ी मुश्किल से एक ओला मेरी हथेली पर रुका। अजीब सी ख़ुशी का एहसास हो रहा था। जैसे कि मैं हवा के दोश पर तैर रही हूँ या अपने लड़कपन में कहीं लौट आयी हूँ… नहीं लौट आया चाहती हूँ कि दरवाज़े की दस्तक ने मुझे एहसास दिलाया कि मुझे तैरना नहीं आता। वो दोनों बाप बेटे अन्दर दाख़िल हुए।

“बहुत मज़ा आया मामा। आप क्यों नहीं आयीं हमारे साथ घूमने।” मन्नु मुझसे लिपटते हुए बोला।

“गुड़िया ठीक हो गई?” वो बोले।

“कुछ बेहतर तो है।” मैंने जवाब दिया।

“बहुत थक गए हम। ज़रा रुम सर्विस में चाय के लिए फ़ोन कर दीजिए।” वो बिस्तर पर दराज़ होते हुए बोले। वो वाक़ई थक गए थे कि इस तरह जूतों समेत बिस्तर पर लेटने का मतलब था कि मैं ही उनके जूतों के तस्मे खोलूँ, मौज़े उतारूँ।

जूतों मोज़ों से फ़ारिग़ होकर मैंने मुन्ने को नहला दिया।

रात का खाना हम सब ने नीचे डाइनिंग हाल में खाया। बाहर आए तो मैंने पहली बार आसमान की तरफ़ देखा था। आसमान पर बेशुमार तारे थे कि शहर के आलूदा आसमान पर तो बहुत थोड़े तारे हुआ करते हैं जो बहुत छोटे दिखायी देने वाले तारे होते हैं, वो मटमैले धुएँ के ग़िलाफ़ के उस पार दिखायी ही नहीं देते। जो नज़र आते हैं वो भी मैले-मैले से और यहाँ कितना चमकदार आसमान… और एक दूसरा आसमान वो जो ज़मीन पर भी नज़र आ रहा था। रात को पहाड़ियों के ऊँचे-नीचे मुक़ामात पर बने मकानात की बिजलियाँ दूर हवा से हलकोरे खाने वाले अनगिनत पत्तों के पीछे से यूँ आँख-मिचोली कर रही थीं जैसे रंग बिरंगे सितारे टिमटिमा रहे हों। बहुत ही लुभावना मंज़र था। ये नज़ारा अगर शाम की सुरमई रोशनी में देखा जाए तो कितना ज़्यादा हुस्न समेट लेगा अपने अन्दर। इस वक़्त तो नीला आसमान भी गहरा नीला दिखायी देता होगा। और पुरशिकोह दरख़्तों के इसरार भी वाज़ेह होंगे। तब ये रोशनियाँ दूर से ऐसी लगती होंगी जैसे दरख़्तों की शाख़ों पर अनगिनत जुगनुओं के झुरमुटों ने डेरे डाले हों। या उस अन्धेरे में ऊँचे लम्बे टीलों वाली पहाड़ियों पर यहाँ वहाँ जैसे बेशुमार दीये झिलमिला रहे हों।

दो दिन तो जाने कैसे गुज़र गए। कल शाम मैं ये मंज़र हरगिज़ ज़ाइल न होने दूँगी। सूरज को ग़ुरूब होता हुआ देखूँगी। इन तमाम परिन्दों को पास के सभी दरख़्तों पर ग़ौर करके तलाश करूँगी जो ये दिल चुराने वाली चहकार जगाकर हमें सुकून की वादीयों की सैर कराते हैं। अपने रूह-परवर नग़मे सुनाकर मदहोश कर देते हैं कि हमें अपना आप हल्का-फुलका महसूस होता है। सारे ग़म, सारे काम, सारी ज़िम्मेदारियों के एहसास पर पुरसुकून का एहसास हावी रहता है कि सुकून की अब मेरे नज़दीक वो अहमियत है कि मासूम ज़िन्दगियों की बेशुमार ज़रूरतों की फ़िक्र न होती… तो जान के बदले ख़रीद लेती। और ये ख़ुश-रंग-ओ-ख़ुश-गुलू परिन्दे, बे-दाम मेरी झोली में ये दौलत डाल देते हैं कि ज़िन्दगी कोई अच्छी चीज़ मालूम होने लगती है।

यूँ भी नहीं कि ज़िन्दगी मुझे हमेशा झेलनी पड़ती थी, बल्कि मैंने तो ज़िन्दगी से ख़ूब-ख़ूब मुहब्बत की थी। ज़िन्दगी मेरे लिए हँसी के न रुकने वाले फ़व्वारे, माँ बाप की नाज़-बर्दारियाँ, नन्हे मुन्ने भतीजों के साथ इश्क़, भाईयों का लाड़ और भाभियों के साथ सैर सपाटे, शॉपिंग और फिल्मों के इलावा पेंसिल स्कैचिंग करना और… पढ़ाई करना तो ख़ैर था ही।

अब तो अख़बार तक की शक्ल देखे हफ़्तों गुज़र जाते हैं। वो भी ठीक ही कहते हैं। मुझे करना ही क्या है। कोई सोशल लाईफ़ तो मेरी है नहीं। न दोस्त, न सहेली। जो अहबाब वग़ैरा हैं तो उन ही की तरफ़ से हैं। उनसे अगर कभी हमारे यहाँ मुलाक़ात होती है तो मुझे फ़ुर्सत ही नहीं होती पास ठहरने की। और उनमें से किसी के यहाँ वो सिर्फ़ ख़ुद ही जा पाते हैं। उन्हें इस बात से बड़ी कोफ़्त होती है कि वो दोस्तों से बात कर रहे हों और बीच में बच्चे के रोने की आवाज़ आ जाए या बच्चा ज़ोर से हँस पड़े। इसलिए मैं बच्चों को अपने पास ही रखती हूँ। बाहरी दरवाज़े की चाबी साथ नहीं ले जाते वो, उन्हें अच्छा नहीं लगता कि वो ख़ुद से दरवाज़ा खोल के अन्दर दाख़िल हों और मैं सोयी हुई मिलूँ। मैं बैठे-बैठे ऊँघ भी जाऊँ तो लेटती नहीं ताकि वो घर लौटें तो दरवाज़ा खोलूँ। अब दोस्त के घर जाएँगे या उनके साथ कहीं जाएँगे तो ये आधी वाधी रात तो हो ही जाती है। थक भी जाते हैं। उनको कपड़ों की अलमारी के दरवाज़े पर लगे हैंडल पर हैंगर में टंगा शब-ख़्वाबी का लिबास पकड़ाना होता है। मोज़े और क़मीज़ वग़ैरा कपड़े धोने की मशीन में डालना और कुछ कपड़े उसी हैंगर पर डालकर अलमारी में रख देना। जूते जो ये रैक के ठीक पास उतारते हैं उन्हें उठाकर क़रीने से रैक के अन्दर रखना। घर में चार लोग हैं। और फिर मुझे ऐसा करना ही क्या होता है।

बहरहाल कल का दिन मेरे पास है। कल रात की गाड़ी से जाना है। मालूम नहीं वो और मन्नू कल कहाँ घूमने गए थे। आस-पास देखने लायक़ मुक़ाम तो होंगे। दिन में कुछ न कुछ तो देख ही सकती हूँ। नाशते से फ़ारिग़ होते ही मैं फ़ौरन पैकिंग कर लूँगी। मगर क्या मालूम वो कितने मसरूफ़ हों। उन्हें कहीं जाना हो। मैं कभी कोई प्रोग्राम बना नहीं पाती।

नाशते के बाद जब मैं पैकिंग करने लगी तो उन्होंने मश्वरा दिया कि ये जो प्लास्टिक की थैली में मैंने बच्चों के मैले कपड़े साथ उठा लिए हैं ,उन्हें यहाँ ही धो लूँ। कहाँ मैले कपड़ों को उठाती फिरूँगी। ठीक ही कहते थे। अब मैं उनको ये कहकर परेशान तो न करती कि ये सूखेंगे नहीं शाम तक, और जब भी थैली में अलग से डालने पड़ेंगे।

ख़ैर मैंने पैकिंग का काम अधूरा छोड़ दिया और कपड़े धोने लग पड़ी। धोते-धोते जाने कब दोपहर हो गई। खाना खाने के बाद वो किसी तरफ़ निकल गए और मैं पैकिंग में लग गई। अटैची बड़ी मुश्किल से बन्द हुई। असल में इसमें उनके मिलने वालों के लिए कुछ छोटे-मोटे तहाइफ़ वग़ैरा थे। ये एक इज़ाफ़ा था। और बैग में भी भीगे कपड़ों ने एक बड़ी जगह घेर रखी थी। बच्चों को मैंने सफ़र के लिए चाक़-ओ-चौबन्द बना दिया। ख़ुद भी तैयार हो गई। वो तो तैयार ही थे। सब सामान पैक हो चुका था बल्कि अपनी-अपनी जगह पर ठुँस चुका था। पाँच बजने वाले थे। शुक्र है सब कामों से निबट तो ली। इधर-उधर न सही, आराम से बालकनी पर वो रिसाला देखूँगी जो तीन दिन पहले मैंने ख़रीदा था। इस के बाद ग़ुरूब-ए-आफ़ताब का नज़ारा, फिर परिन्दे…

इस ख़्याल से मैंने गुड़िया को उँगली पकड़ायी और उसे धीरे-धीरे चलाती हुई बालकनी में पहुँची ही थी कि नीचे सड़क पर वो आते हुए दिखायी दिए। मैं वापस कमरे में लौट आयी। वो आते ही कहने लगे कि उनकी जीन्ज़ काफ़ी मैली लग रही है। और ये कि उन्हें जीन्ज़ में ही सफ़र करना अच्छा लगता है। इसलिए मैं ज़रा सा उसे धो लूँ। जीन्ज़ देखने में मैली तो नहीं लग रही थी, बस मोरियों पर ज़रा सी धूल मिट्टी थी जो ब्रश से ब-आसानी साफ़ हो सकती थी मगर वो बहुत सफ़ाई पसन्द हैं, कह रहे थे कि मुझे भी गाड़ी का वक़्त होने तक कुछ करना तो है नहीं, ज़रा सा उसे धो लूँगी और फिर ज़रा सा इस्त्री से सुखा भी दूँगी। इतना वक़्त है मेरे पास। मैंने प्रेस साथ रखी थी। वो एक-आध शिकन वाला लिबास भी नहीं पहन सकते।

मैंने निहायत मुश्किल से पैक की हुई अटैची खोलकर उन्हें दूसरी पतलून निकाल दी और जीन्ज़ धोने ग़ुस्ल-ख़ाने में घुस गई। डेनिम के मोटे सूती कपड़े की जीन्ज़ पानी में और भी भारी हो गई और मैं हत्तलइमकान इस वज़नी पैंट को उलट-पलट कर धोती गई। हाथों में लेकर रगड़ती गई। कपड़े धोने का ब्रश तो मेरे पास था नहीं, इस तरह और ज़्यादा साफ़ करने की कोशिश में मेरी उँगली का एक लम्बा नाख़ून आधा टूट गया। जाने कितना वक़्त लगा होगा मगर मैंने उसे आख़िरकार धो लिया। और अब उसे फैलाने से पहले झटकते हुए मेरा पूरा नाख़ून ही उखड़ गया।

ख़ून की धार बह निकली। दर्द की लहर सी उठी। मैंने उँगली पर टिशु पेपर लपेट दिया। और वक़्त ज़ाया किए बग़ैर ग़ुस्ल-ख़ाने की खिड़की खोल दी।

अन्धेरों को चीरकर आता हुआ सर्द हवा का एक अफ़सुर्दा झोंका मेरे चेहरे से टकराया। न मालूम कब अन्धेरा हो चुका था। सारे तुयूर आशियानों में जा छुपे थे। नीले पंखों और पीली चोंच वाली मैना भी ग़ायब थी। उँगली की टीस दिल में से होती हुई रूह में समा सी गई। थकी हुई नज़र मैंने आसमान की तरफ़ उठायी।

सितारा-ए-ज़हरा वसीअ-उल-अर्ज़ आसमान पर अकेला लटक रहा था। दूर पहाड़ियों पर टंगी रोशनियाँ भी बरा-ए-नाम दिखायी दे रही थीं । हर तरफ़ धुन्ध ही धुन्ध थी।

थकी हारी सी मैं कमरे की तरफ़ पलटी, तो कमरे का मंज़र भी मुझे धुन्धलाया सा लगा। ये मेरी आँखों को क्या हो गया है।

जीन्ज़ का इज़ाफ़ी पानी निचुड़ चुका होगा। मुझे उसे इस्त्री से सुखाना भी है, वो बहुत नाज़ुक-मिज़ाज हैं। ज़रा सी भी uncomfortable चीज़ उन्हें परेशान कर देती है।

मन्नू भंडारी की कहानी 'स्त्री सुबोधिनी'

Book by Tarannum Riyaz: