लम्बी कविता: डरावना स्वप्न

(एक)

हर रात वही डरावना सपना
लगभग तीन से चार बजे के बीच आता है
और रोम-रोम कँपा जाता है
बहुत घबराहट के साथ
पसीने-पसीने हुआ-सा जागता हूँ मैं
और धौंकनी की तरह चलती हुईं
साँसों को सम्भालते हुए अपने
बाएँ हाथ से सीने को थामकर
दाएँ हाथ से उठाता हूँ पानी का लोटा
जिसे बेटी कभी नहीं भूलती रखना
मेरे पास वाले स्टूल पर
कि दो घूँट पानी जाते ही हलक़ में
और सीना सहलाने से ज़रा
सम्भालता हूँ कि फिर से
नींद में भरने लगती हैं उनींदी आँखें

सुबह होने तक जैसे कि
किसी डर की खोह में दुबका हुआ
जागता हूँ बहू की आहट पर कि
सोया भी कहाँ होता हूँ वास्तव में बस
पेट में घुसाकर घुटने
कहा न कि बस किसी डरावनी खोह में
दुबका रहता हूँ अर्ध-चेतन।

(दो)

बहुत घबराहट होती है डरावनी
और मारक-सी कि जब
वह भेड़िया मुझे
दबोच रहा होता है अपने
दुर्दान्त नुकीले जबड़ों में आह!

और मेरे सीने से छूटता हुआ
रक्त का फव्वारा
उस शिरीष वृक्ष के तने तक पहुँचता है
शायद पहले-पहल उगा होगा जो
इस अरण्य की पहाड़ी घाटी में

उसी के नाम पर पड़ा होगा
इसका नाम शिरीष का अभयारण्य
जो अब सरिस्का है
विकास के वरदान या श्राप से कि अब
बाघों और लोमड़ियों
और नीलगायों और
चीतलों के लिए
यहाँ अभयदान नहीं
बल्कि भयाभिशाप की हवाएँ बहती हैं

झरनों की जगह पर चलतीं
दिखायी देती हैं घुमावदार सड़कें
जिन पर भेड़िए के पद-चिह्न
छपे हुए हैं स्पष्ट अपनी
रक्तिम लालसा की तरह हिंसक।

(तीन)

रक्त का फव्वारा छूता है जैसे ही
उस आदिम शिरीष के भूरे-कठोर
दीर्घाकार तने को कि
वहाँ से आग की नदी निकलती है
ज्वलनशील जिसकी लपटें
लपकती हैं चतुर्दिक अचानक और
एक साथ सूखने लगता है
बाण-गंगा, साहिबी, डूंड
और माधववेणी का पावन जल

देखते ही जंगल में उठता धुआँ
चीत्कारने लगते हैं वनचर
और भागने लगते हैं अभयारण्य से बाहर
क्योंकि अभय नहीं रहा है अब वहाँ

पेड़ों पर फल और झरनों में जल की
नष्ट हो चुकी हैं
तमाम सम्भावनाएँ तो क्या करें कि
छोड़कर अपना आदि निवास
सभी वनचर भागते हैं
बस्तियों की तरफ़ कि मात्र
मानव-बस्तियाँ ही बची हैं
जैसे अब
वनों और वनचरों की
अन्तिम शरणस्थली इस
बर्बर संक्रमण-काल में अन्ततः।

(चार)

जिस भेड़िए के जबड़ों में है
मेरी देह
पूरी सहजता से चला जा रहा है
वह अपने मार्ग पर निश्चिन्त

जिस मार्ग से वह गुज़रता है
उस पर
गाड़ियाँ दौड़ती हैं
तेज़ रफ़्तार चमचमातीं ओह!

जहाँ-जहाँ
मेरे रक्त की बूँदें गिरती हैं वहीं
आलीशान कॉटेज
और होटल बनने लगते हैं
स्वप्न में

जैसे मेरे रक्त से ही हो रहा है इस
अभयारण्य को उजाड़कर
यह चकाचौंधी विकास
और जहाँ-जहाँ
मेरी हड्डियों के अंश गिरते हैं वहीं
उगने लगती हैं बन्दूक़ें और रायफ़लें
कि शिकार के लिए अस्त्र भी
बन रहे हैं तो
मेरी ही हड्डियों के और
इतने सारे पाखण्ड-जाल को
पूरी फूहड़ता के साथ
उजागर करते हुए
लाल-लाल आँखें दिखाता
अट्टहास करता है
कोई हिंसक दैत्य डकारता
अघाया-सा जो विकास है

(पाँच)

कुछ बाघ दौड़ते
अलवर, दौसा, जयपुर और
दिल्ली की तरफ़ चले जा रहे हैं
और दो-चारेक
उछलकर
किसी ट्रक में चढ़ गये हैं

जबकि अधिकतर भेड़िए
और जंगली कुत्ते
नकल करते हुए अपने साथी की
मेरे जैसे ही
अन्य लोगों को
दबोच रहे हैं गर्दन
छाती में रोपते अपने दाँत

कि गीदड़ और सूअर
खेतों और खेतों में बनी झोंपड़ियों में
हूँकते घुस रहे हैं निर्विघ्न
लोमड़ियाँ मठों और तिबारियों में
जगह बना रही हैं

कि चीतल और हरिण सारे
पंचसितारा होटलों की प्लेटों में
सजे हुए हैं जब
नीलगायें ढाणियों और गाँवों के रास्ते पर
ट्रैक्टरों से टकरा रही हैं
फ़सलों को रौंदती हुई कि उछलते
बन्दर आसपास के तमाम
क़स्बों और शहरों में ठिकाना बना रहे हैं
और सरीसृप उधर
भर्तृहरि और महामाया की धरती में
बिल ढूँढने को लगे हैं जबकि मैं
भेड़िए के जबड़ों में फँसा
पसीने-पसीने हुआ जा रहा हूँ आह…

(छह)

काळी-घाटी के सर्पिल घुमावों पर
उचकता चला जा रहा है भेड़िया और
उधर तलहटी की गहराई में
लकड़ियाँ बीनती स्त्री चीख़ पड़ती है

इस दृश्य को देखकर कि
दाँतळिये पहाड़ के पत्थरों से टकराकर
गूँजती वह चीख़
पूरे अभयारण्य पर छा जाने के लिए
पर्याप्त है किन्तु
सरकारी फ़रमान है स्पष्ट
हर चीख़ को अनसुनी करने का
जैसे कि
बहुत चीख़ी होगी
महाबली भीम की आत्मा भी
जब वही पाण्डुपोळ जिसने
अज्ञातवास में प्यास बुझायी पाण्डवों की
और माता कुन्ती ने पीठ थपथपायी
लात से पानी निकालने पर

वही पाण्डुपोळ
अब ख़ुद सूखा पड़ा है निर्जल
तरसता हरियाली के लिए भी
बारिश के बिना और
रोयी तो होगी
मेहरूद्दीन मलंग की रूह भी
ज़ार-ज़ार हाय रे!

(सात)

रोक दिया गया है
सत्तर गाँवों के ग्रामीणों का मार्ग
अब घाटा होते हुए
निराणपुर से चक्कर काटकर जाते हैं
हज़ारों-लाखों ग्रामीण

सरिस्का महल के सामने से
निकलना अब ग़ैरक़ानूनी हो गया है
अलवर ज़िला मुख्यालय पर
फ़रियाद करने थके-हारे

जबकि मैग्सेसे और नोबेल की
चमक के बावजूद
सरिस्का सूखा और भूखा है
इस विकराल रात के
कपट-काल में आक्रान्त-सा

टूटी पाळों पड़े बाँधों की ज़मीन
तड़कने लगी है और
राह भटके
पथिकों को पानी पिलाकर
पाँच-सात रुपये कमा लेते हैं प्रायः
धूप में तपते पिचके पेट बच्चे

जबकि लाल बजरी की सड़कें
लगभग जन-शून्य हैं
इस कपट-काल के अँधेरे छद्मों से
भयग्रस्त अथाह पीड़ा से

मैं तड़पने लगा हूँ
भेड़िए के रक्तिम जबड़ों में कराहता
कि मेरी साँसें घुटने लगी हैं
और सीने में उठ रहा है असह्य दर्द

आह रे… क्रन्दन करता हुआ
अचानक
घबराकर जागता हूँ
इस अमावस की रात में
लस्त-पस्त अधमरा-सा मैं

(अर्थात्)

अभी
तीन बजकर बीस मिनट हुए हैं
रात के कि
पसीने-पसीने देह
और विलाप के साथ

घुटती हुई साँसों से
डूबते हृदय को सम्भालता मैं
बाएँ हाथ से
दबाता हूँ अपना सीना
और दाएँ हाथ से
उठाकर पानी का लोटा
गटागट पी गया हूँ
पूरा का पूरा

हाय!
कब छोड़ेगा मेरा पीछा
यह भयानक स्वप्न
उफ़्फ़!

सरिस्का में पसरती हुई
यह भूख और प्यास
मेरी नींदों में
दहशत क्यों भर रही है?

कैलाश मनहर
जन्म- 2 अप्रैल, 1954 | निवासी- मनोहरपुर, जयपुर (राज.) | प्रकाशित कृतियाँ- 'कविता की सहयात्रा में', 'सूखी नदी', 'अरे भानगढ़', 'अवसाद पक्ष', 'उदास आँखों में उम्मीद', 'मुरारी महात्म्य', 'हर्फ़ दर हर्फ़' | सम्पर्क- [email protected]