वरिष्ठ कवि, अनुवादक एवं सम्पादक मंगलेश डबराल के जाने का दुःख बहुत बड़ा है। शायद हिन्दी समाज को पता ही नहीं चला कि वे कब 72 वर्ष के हो गए। उनसे असहमति रखने वालों को भी उनकी ऊर्जा, ऊष्मा बनकर मिलती रही।
मैं जब से कविता में आया हूँ, सात साल हुए और बहुत से बड़े साहित्यकारों को हमने खो दिया। मैं राजेंद्र यादव के देहावसान के बाद कविता लिखने लगा था। उनका स्टारडम था पर वे हिन्दी साहित्य में मेरे प्रवेश से पहले जा चुके थे। रानी एलिज़ाबेथ ने कहा था कि दर्द वह क़ीमत है जो हम प्रेम के बदले चुकाते हैं। इसलिए मैं सदा डरता रहा कि हिन्दी का मेरा कोई जाना-पहचाना साहित्यकार किसी अनहोनी का शिकार न हो। अपनी मित्रता सूची सीमित रखता रहा। फिर भी मैं जानता हूँ कि समय का पहिया यह क़ीमत वसूलेगा ही। मैं किसी साहित्यकार की मृत्यु पर अब तक दो बार बोझिल हुआ हूँ। पहली बार केदारनाथ सिंह जी के लिए रोया था। उनसे तो मैंने कभी बात भी नहीं की थी। मुझे लगता है कि हिन्दी के हर कवि के अंदर थोड़े-बहुत केदारनाथ सिंह मौजूद हैं। अब मंगलेश डबराल सर के जाने पर दुखी हुआ हूँ।
मैंने उनसे पहली बार बात तब की थी जबकि वे ‘पब्लिक एजेंडा’ के व्यस्त सम्पादक थे और मैं यह भी नहीं जानता था कि आधुनिक हिन्दी कविता क्या है। मैं उस वक़्त बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं को सिर्फ़ इसलिए कविताएँ भेजता था ताकि वहाँ के सम्पादक से पूछ सकूँ कि अपनी कविता में अभी मुझे क्या सुधार करना है। मंगलेश सर को कविताएँ भेजने के बाद मैंने उन्हें कॉल किया और वे एक व्यस्तता-सी में फ़ोन उठाकर कहते, “हाँ, हेलो”। ‘हेलो’ से पहले ‘हाँ’ बोलना उनके फ़ोन उठा लेने की पहचान था मेरे लिए। फिर वे कहते कि जल्दी ही पढ़ते हैं। उन्होंने एक बार भी यह नहीं कहा कि कॉल करके क्यों परेशान कर रहे हो। फिर उन्होंने कविताएँ पढ़ीं और मुझसे कहा कि तुम्हें वर्तमान हिन्दी कविता का डिक्शन सीखने की ज़रूरत है। मुझे कुछ कवियों के नाम गिनाए और कहा कि इन्हें पढ़ो। जब उन्हें पता चला कि मैं नैनीताल में रहता हूँ तो बोले, “जाओ, शिरीष से मिलो। वो अच्छी कविताएँ लिख रहे हैं। तुम्हें उनके साथ मिल-बैठकर कुछ सीखने को मिलेगा।” हालाँकि मेरी अपनी हिचक थी और मैं शिरीष सर से जाकर नहीं मिला।
कई साल बाद मंगलेश जी फ़ेसबुक पर जुड़े तो ताइवान के बारे में सुनकर प्रभावित हुए। उन्हें याद नहीं था कि मेरी उनसे पहले बातचीत हो चुकी थी। उन्होंने मुझे ताइवान के एक वरिष्ठ कवि के बारे में बताया और कहा कि उनसे सम्पर्क करना। इस बार मैंने उनकी बात मानी पर ताइवान के उन कवि ने ही मेरी फ़्रेंड-रिक्वेस्ट नहीं स्वीकार की।
कुछ दिन पहले मेरी एक ऐसी प्रिंट पत्रिका के सम्पादक से बात हुई जो विश्व साहित्यकारों पर केंद्रित अंक निकाला करती है। उस सम्पादक ने कहा कि सबसे अच्छा अनुवाद मंगलेश जी करते हैं। मेरा अनुवाद पढ़ने का इतना अनुभव नहीं कि मैं बता सकूँ कि सर्वश्रेष्ठ कौन है, पर जब एक सम्पादक कह रहा है तो कोई बात तो होगी। फिर लुइस ग्लूक की कविताओं के जो अनुवाद नोबेल पुरस्कार मिलते ही किए गए, उनमें भी मंगलेश जी का अनुवाद कई जानकारों ने सर्वश्रेष्ठ बताया। इसलिए यह ध्यातव्य है कि मंगलेश जी को खो देना सिर्फ़ उस कवि को खो देना नहीं बल्कि भाषा के एक सेतु को खो देना भी है।
आख़िरी बार उनसे बात मेरी कविता ‘महामृत्यु में अनुनाद’ के सिलसिले में हुई थी जो कि कोरोनावायरस की ही बात करती है। वह कविता शिरीष मौर्य सर के ब्लॉग अनुनाद पर प्रकाशित हुई। यह तब संयोग लगा था पर जो दुर्योग यह आज लेकर आया है, वह कोई नहीं चाहता था। मंगलेश जी के धुर विरोधी भी नहीं।
मेरे जैसे युवा उनकी कविताओं से सीखते रहेंगे। उनकी कविता की विवेचना आलोचक करेंगे जो कविता को मुझसे बेहतर समझते हैं। मैं मात्र एक बात कहता चलूँ कि जिस तरह कविता में प्रयोग हो रहे हैं, कौन जाने कि भविष्य की कविता मंगलेश जी के उन्हीं प्रयोगों को प्रमुखता से अपनाए, जिन्हें उद्धृत कर कुछ लोग उनसे असहमत होते रहे।
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