‘Dooriyan’, poems by Shweta Rai

1

आगे बढ़ जाने से ज़्यादा दुरूह होता है
पीछे मुड़कर न देखना

ज़रा-सी शिथिल होती देह में उग आता है बीमार मन
जो जानता है बासंती पियरी का रंग रूप बदल देना
जेठ की अग्नि में

जहाँ निःशब्द नदियाँ होने लगती हैं दूर
तटबंधों से
और बढ़ने लगता है इनके बीच
रेतीला साहचर्य

2

जगजीत को सुनते हुए
जब हम अनायास भर आयी आँखों को छुपाते हैं
स्वंय से तो
सेमल सी दहक उठी आँखों में पसर जाता है
फाल्गुन
और मन कुञ्ज में झरझराकर बस जाता है पतझर

शांत
क्लांत…

3

मेरी प्रार्थना के मंत्र में शामिल थे तुम
पर जाने क्यों इष्ट हो गए रुष्ट

रुष्ट भी ऐसे कि वो भूल गए मानना
और मैं विस्मृति कर बैठी
पूजा के सभी विधान

और तुम भी भूल गए
साहचर्य की तरलता पर बनते अनगिन वलय में
काँपती मेरी छवि को थिर करना…

4

अत्यंत दुरूह अकल्पित भँवर में
फँसे मन को
कहीं भी विश्राम की ललक
नहीं रहती

वो अपने चारों तरफ़ बुन लेता है अवसादी तंतुओं से बना
एक अभेद जाल….

5

कृष्ण ने कहा है कि
नज़दीकियों का पता दूरियों के पास है

इसलिए समीप होकर निर्लिप्त रहने से बेहतर है
दूर रहकर संलिप्त रहना

आँखों को तोरणद्वार और अधरों को वंदनवार बनाकर
एक-दूसरे में स्पंदित होना

अबोल
अधीर…

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श्वेता राय
विज्ञान अध्यापिका | देवरिया, उत्तर प्रदेश | ईमेल- [email protected]