दो लोग एक दूसरे के प्यार में पड़ते हैं, इस राह में उनके सामने कुछ कठिनाइयाँ आती हैं, मगर आखिरकार वे उन कठिनाइयों को पार करके एक दूसरे का साथ पा लेते हैं- किसी भी हिंदी फिल्म को बनाने की इस तय विधि में एक अतिरिक्त ‘प्रोग्रेसिव’ छौंक लगाए मिलती है ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’।
स्वीटी (सोनम कपूर) मोगा, पंजाब में रहने वाली एक शांत, सरल लड़की है। अपने परिवार द्वारा बनाए जा रहे शादी के दबाव से भाग कर दिल्ली आती है और यहाँ उसकी मुलाक़ात होती है साहिल मिर्ज़ा (राजकुमार राव) से, जो कि एक उभरता हुआ नाटककार है। एक मुलाक़ात में ही, जैसा कि आपने अनुमान लगा लिया होगा, साहिल को स्वीटी से प्यार हो जाता है। स्वीटी साहिल से एक बार मदद मांगती है जिससे साहिल को अंदेशा लगता है कि स्वीटी किसी बड़ी मुसीबत में है। फिल्मी हीरो के धर्म को निभाते हुए वह ये मान लेता है कि स्वीटी की हर मुसीबत को हल करना अब उसी के जीवन का लक्ष्य है, और इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए वह स्वीटी के शहर और घर तक भी पहुँच जाता है।
दूसरी तरफ स्वीटी की मुसीबतों की उसके भाई द्वारा की गयी व्याख्या अलग ही है और इस व्याख्या के अनुसार वो भी स्वीटी को ‘बचाने’ में लगा है। इतना सब होने में फिल्म इंटरवल तक पहुंच जाती है। इंटरवल से पहले न फिल्म किसी दिशा में जाती दिखती है, न कोई भी सीन अपनी छाप छोड़ पाता है।
इंटरवल के बाद फिल्म कुछ रफ़्तार पकड़ती है और दर्शकों को पता लगता है कि जिस प्रेम की कठिनाइयों को फिल्म दिखाना चाहती है, वह एक समलैंगिक प्रेम है।
जैसे ही पिक्चर का पात्र अपनी लैंगिकता (सेक्शुअलिटी) को परदे पर प्रकट करता है, पूरा सिनेमा हॉल ठहाकों से गूंज उठता है। एक बेहद नाज़ुक दृश्य पर लोगों की यह प्रतिक्रिया तुरंत ही आपको बता देती है कि जिस कहानी को लोगों के बीच लाया जा रहा है, उस कहानी को सुनने के लिए भारतीय ऑडियंस को तैयार करने में बहुत समय लग जाएगा। इसके आगे की कहानी एक समलैंगिक प्रेम सम्बन्ध को परिवार व समाज में स्वीकृति दिलाने की जद्दोजहद की कहानी है।
‘एक लड़की तो देखा तो ऐसा लगा’ पहली मेनस्ट्रीम हिंदी फिल्म है जिसमें समलैंगिकता पर संवेदनशीलता के साथ बात की गयी है। इससे पहले इस विषय या इससे सम्बंधित विषयों पर आईं कुछ फ़िल्में जैसे ‘मार्गरिटा विथ अ स्ट्रॉ’, ‘अलीगढ़’, ‘फायर’, ‘अनफ्रीडम’ इत्यादि ने इन विषयों को कमोबेश सही ढंग से सम्बोधित किया मगर एक बड़े दर्शक वर्ग को आकर्षित नहीं कर सकीं। इस फिल्म को समलैंगिकता के विषय पर मेनस्ट्रीम बॉलीवुड की पहली ध्यान देने काबिल कोशिश मान सकते हैं। और इसका श्रेय फिल्म के निर्माण में औरतों की प्रमुखता को दिया जाए, तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।
फिल्म अपने कथानक के सहारे बहुत से छोटे-छोटे पहलुओं को छूने की कोशिश करती दिखती है। इस प्रेम कहानी को एक छोटे शहर की आम लड़की के हवाले से कहना, कहानी के हर पात्र का अपने स्तर पर पितृसत्ता का भोगी होना, लेस्बियन सम्बन्ध दिखाते हुए भी पात्रों को उनके ‘फेमिनिन’ अभिलक्षणों के साथ ही दिखाना (जो कि प्रचलित धारणा को तोड़ता है), कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनके लिए निर्माताओं और लेखिका की पीठ थपथपाई जानी चाहिए। हालाँकि, ऊपरी परतों को हटाके देखें तो मालूम पड़ता है कि यह फिल्म भी बहुत से पूर्वाग्रहों और सामाजिक ‘कंडीशनिंग’ के प्रभाव से बच नहीं पाई है।
दो लड़कियों के प्रेम व उनके संघर्ष को पार लगाने के लिए भी एक लड़के का ही सहारा लेना फिल्म की पूरी प्रगतिशीलता पर सवाल उठाता है। हीरो का हीरोइन की ज़िन्दगी का ‘मसीहा’ होना और उसके पीछे कहीं से कहीं भी पहुंच जाने को ‘सच्चे प्यार’ का नाम देना बहुत खलता है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का शादियों को लेकर ‘ओबसेशन’ और भव्य, रंग बिरंगी, नाच-गाने से सजी शादियों का महिमागान समाज पर क्या असर डालता है, इस पर गंभीर विचार होने की ज़रूरत है।
फिल्म की कहानी स्वीटी के सहारे एक समुदाय के जीवन को कई तरह से टटोलने की कोशिश तो करती है, मगर कुछ सोनम कपूर की सीमित अभिनय क्षमता के कारण और कुछ फिल्म को मनोरंजक बनाए रखने की जद्दोजहद के कारण, जिस गंभीरता की ज़रूरत इस फिल्म को थी, उससे समझौता होता दिखाई पड़ता है।
भारतीय समाज में एक डायलॉग स्थापित करने के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि दर्शक-वर्ग की सतह पर जाकर बात की जाए। अपनी सभी समस्याओं के बावजूद यह कहानी आम लोगों को असहज करने में सक्षम है। और इस तरह असहज करने में सक्षम है कि वह असहजता केवल दिमाग में या गूगल सर्च तक सीमित ना रह जाए बल्कि डिनर टेबल की बातचीत का रूप ले। एक बड़े फिल्मी हीरो, जिसे हम उसकी ‘मैचो’ इमेज से जानते हैं, का परदे पर कहना कि प्रेम की उसके परंपरागत ढाँचे में कल्पना करना छोड़ दो, एक बड़ा सन्देश है जो समाज में स्वीकार होना ज़रूरी है।
क्या इस विषय को बेहतर दर्शाया जा सकता था? बिलकुल! मगर फिर भी इस फिल्म को देखा जाना ज़रूरी है क्यूंकि यह हमारे लिए अपने घरों में समलैंगिकता पर बात करने का एक आसान रास्ता खोलती है जिसे पकड़ कर हमें एक लम्बा सफर तय करना है।
सोनम कपूर को छोड़ बाकी सभी का अभिनय अपने पात्र से न्याय करता है। ‘कुहू’ के रूप में रेजिना कैसांद्रा का छोटा सा रोल, और ‘छत्रो’ के रूप में जूही चावला का चुलबुला किरदार याद रहता है। सोनम के बाद जिसने सबसे ज़्यादा निराश किया वह है इस फिल्म का संगीत। गाने ज़बरदस्ती ठूसे हुए नहीं भी लग रहे हों तो भी एक भी गीत की धुन या बोल दिमाग में नहीं बैठते।
एक लाइन में यह कहा जा सकता है कि पिछले कुछ महीनों में लगी राष्ट्रवादी, पुरुष-प्रधान फिल्मों की झड़ी के बीच यह फिल्म एक अर्ध-विराम का काम करती है। आप इस पिक्चर पर कुछ देर ठहरिये, मगर रुकिए मत, क्यूंकि आगे बहुत बात करनी बाकी है।