ऋतु-स्नान के पश्चात्
लहरा रहे थे उसके चमकीले रेशमी केश
उसका सद्य स्नात सौंदर्य
भोर की प्रथम रश्मि-सा
फूटकर प्रविष्ट हो रहा था
सृष्टि के सूक्ष्म कण में
तुम बढ़े आगे
तुम मुग्ध हुए
वो भी खिंची
तुम्हारी मर्दानी गन्ध के भरोसे में
एकाकार हुए दो स्वप्न
तुम रिक्त हुए
भर-भर गई वो
तुम्हारा बीज धारण कर
धरती हो गई वो
उसके रज से
देह में पनपा एक और जीवन
उसके गर्भाशय का कोटर
तुम्हारे बीज का अभेद कवच था
नौ महीने अंकुरण से भ्रूण यात्रा में
उसके रक्त से पोषित
एक और पुरुष
बढ़ते और बनते रहे तुम
खिलते रहे शुक्लपक्ष की चंद्रकलाओं से
वाद्य-यंत्र सी
बजती रही उसकी कोख
गर्भनाल से तुम्हें चुगाती रही चुग्गा
तुम्हें पोषने तुम्हारे लिए ही
खाती रही पौष्टिक आहार
चाहे मन कभी कुछ न खाना चाहे तो भी
तुम भी जन्मे थे
जैसे सहस्त्राब्दियों से जन्मता आ रहा था तुम्हारा पितृ-पुरुष
हाँ सुनो तुम भी एक योनिजा हो
रुधिर और श्वेत स्राव में लिपटे
क्षत-विक्षत करते हुए उसके कोमलांग
भूमि पर आये थे
वात्सल्य के झरने में नहला
ममत्व की चिकनाई से
मलकर पुष्ट करती वो
तुम्हारा शैशव
अपने स्तनों से उड़ेलती अमृत धार
तुम्हारे छोटे-से मुँह में
और झाँकती तुम्हारी झपझप करती आँखों में
पढ़ लेती तुम्हारी तुष्टि
तुम्हारी किश्तों में पूरी होती नींद
घटा देती उसकी नींद
घण्टों से मिनटों में
और आज तुम एक पूर्ण पुरुष हो
अपने पिता की तरह
तुमने निषिद्ध कर दिए हैं
उसके प्रवेश किन्ही विशिष्ट मन्दिरों में
गर्भगृहों में
उसकी देह एक मन्दिर है
जिसकी अंतर्यात्रा तय करके
बाह्य-जगत में आये हो तुम
जिसके लिए अस्पृश्य घोषित किया उसे
उसी संसर्ग, उसी रज, उसी रक्त से निर्मित तुम
उसी गर्भगृह में रहे नौ माह
स्त्री शुचिता की परिभाषा तय करने वाले
जिस मार्ग से आये बाहर
वो अपवित्र?
उस मन्दिर में जिस दिन हो जायेगा
तुम्हारा प्रवेश वर्जित
रह पायेगी क्या दुनिया
और तुम्हारे बनाये नियम भी?

'बेहतर यह हो गिर जाए हर देवालय की छत'

Book by Arti Tiwari: