ग़ज़ल ने पिछले तीन, साढ़े तीन सौ वर्षों में एक लम्बा सफ़र तय किया है। पहले ये क़सीदों का हिस्सा थी, जो बादशाहों की तारीफ़ करके अपने लिए कुछ वज़ीफ़ा मुक़र्रर करवाने वाले शायर लिखा करते थे। तारीफ़ करना, उसके लिए लम्बी चौड़ी भूमिका बांधना, बादशाहों का सिरे से परिचय लिखना और झूठी शान को बढ़ा चढ़ा कर चाँद और सूरज से ज़्यादा चमकदार बना कर पेश करना ये सब करते-करते बेचारा शायर थक जाता होगा, इसलिए बीच में सुस्ताने के लिए कहीं बैठता और ग़ज़ल के फाहे अपनी छिली और रिसती हुई लहू-लुहान ज़बान पर रखता होगा। इसी तरह ग़ज़ल मसनवी का भी हिस्सा थी, मसनवी भी उर्दू शायरी में ईरान के रास्ते दाख़िल हुई। फिरदौसी की मशहूर मसनवी ‘शाहनामे’ को कौन नहीं जानता। जिसने कहा था कि-
अजम ज़िंदा करदम बिदीं पारसी
यानी मैंने अपनी फ़ारसी शायरी से अजम (ईरान) को ज़िंदा कर दिया है। ख़ैर, मसनवी में एक कहानी होती है, जिसे शायर सिलसिले-वार हम-क़ाफ़िया अशआर के ज़रिये लिखता है जैसे कि ये शेर मिर्ज़ा शौक़ लखनवी की मसनवी ज़हर ए इश्क़ के हैं-
कल जहाँ पर था बुलबुलों का हुजूम
आज उस जा है आशयाना ए बूम
बात कल की है नौजवान थे जो
साहिब ए नौबत ओ निशान थे जो
आज ख़ुद हैं न है मकां बाक़ी
नाम को भी नहीं निशाँ बाक़ी
अब न रुस्तम न साम बाक़ी है
इक फ़क़त नाम ही नाम बाक़ी है
मौत से किसको रुस्तगारी है
आज वो कल हमारी बारी है
इस तरह के हम-क़ाफ़िया शेर कहते कहते भी अक्सर ग़ज़ल की ज़रुरत पड़ती थी और शायर महबूब से बात करने के बहाने थोड़ी देर क़ाफ़िये की क़ैद से बाहर आकर अंगड़ाई लेने के क़ाबिल हो पाता था। क़सीदे, बादशाहों के साथ रुख़सत हुए और मसनवियाँ मोहब्बतों के साथ। अब न कोई इतनी तवील मोहब्बत करता है न शायरी में ऐसी लम्बी लम्बी मोहब्बत की दास्तानें लिखता है। अब लोग ग़ज़लें कहते हैं, क्योंकि ये शायरी करने और सुनने या पढ़ने वालों के लिए भी एक आसान रास्ता है। मगर ग़ज़ल हमेशा से ऐसी नहीं थी, ख़ास तौर से उर्दू में इसके कई नाम रखे गए, कभी इसे फ़ारसी कहा गया, कभी रेख़्ता और कभी ग़ज़ल। उर्दू के एक पुराने शायर क़ायम चांदपुरी (मीर के समकालीन) का शेर है-
क़ायम जो कहे हैं फ़ारसी यार
उससे तो ये रेख़्ता है बेहतर
रेख़्ता सिर्फ़ उर्दू ग़ज़ल का नाम नहीं था, बल्कि ये फ़ारसी, हिन्दी और दूसरी मक़ामी ज़बानों को मिला कर लिखी जाने वाली किसी भी शायरना सिन्फ़ या फॉर्म के लिए इस्तेमाल होने वाला लफ़्ज़ था। ऐसा लगता है जैसे यह नाम उर्दू ज़बान और उर्दू शायरी दोनों के लिए मशहूर हुआ और फिर कई बरसों बाद इसे समझाने की ज़रुरत पेश आयी। मीर तक़ी मीर ने अपनी किताब ‘निकात उश शोअरा’ में रेख़्ता के बारे में लिखा कि एक ऐसी ग़ज़ल, जिसका एक मिसरा फ़ारसी का हो और एक मिसरा हिंदवी का ‘रेख़्ता’ कहलाती है। मिसाल में उन्होंने अमीर ख़ुसरौ की ग़ज़ल ‘ ज़िहाल ए मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दोराये नैनां बनाये बतियाँ’ पेश की। मगर ज़ाहिर है कि मीर की बात ग़लत थी, इस में दो मिसरे अलग अलग ज़बानों यानी फ़ारसी और हिंदवी में नहीं हैं, बल्कि एक ही मिसरे का आधा हिस्सा फ़ारसी में है और आधा हिंदवी में। मीर साहब की क्या बात है, आज तक यह बात तय नहीं हो पायी कि किस एक चीज़ को पहले रेख़्ता का नाम दिया जाए, ज़बान को, हिंदवी और फ़ारसी की मिली जुली शायरी को या ग़ज़ल को? इसका न कोई उसूल बना है, न बन सकता है इसलिए तीनों को ही रेख़्ता कहना सही है। कुछ अन्वेषकों का मानना है कि ग़ज़ल चूँकि दकन से दिल्ली तक पहुंची थी इसलिए दकन की शायरी को दिल्ली की शायरी से अलग करके उसे गिरी पड़ी चीज़ साबित करने के लिए दिल्ली वालों ने अपनी ग़ज़ल को ग़ज़ल कहा और दकन वालों की ग़ज़ल को रेख़्ता। क्योंकि फ़ारसी में रेख़्ता गिरी पड़ी चीज़ को भी कहा जाता है। हालांकि ये बात कुछ हद तक सही भी है, मगर ग़ज़ल के इतिहास का ग़ैर-जानिब्दाराना (तटस्थ) अध्ययन इसे कई सुबूतों की रौशनी में झूठ भी साबित करता है। जिसकी मिसाल में ख़ुद क़ायम चांदपुरी का वो शेर पेश किया जा सकता है जो ऊपर लिखा गया है।
वक़्त गुज़रा और ग़ज़ल नए दौर में दाख़िल हुई, कितने लोग जानते हैं कि एक ज़माने में ग़ज़ल को बहुत मुहज़्ज़ब और शरीफ़ बनाने की कोशिश भी की गई। ग़ालिब का वो दौर, जिसमें दिल्ली और लखनऊ के बीच अलग अलग ज़बानों और मज़ामीन (विषयों) की वजह से रस्सा-कशी जारी थी। हालांकि लखनऊ की ग़ज़ल अपनी एक असाधारण या अलग पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो पायी, बल्कि लखनऊ पर भी दिल्ली के उन शायरों का ख़ास असर रहा जो यहाँ से नादिर शाह के ज़माने में हिजरत करके अवध पहुँच गए थे। इसलिए लखनऊ के मशहूर ग़ज़ल-गो शायर ख़्वाजा हैदर अली आतिश पर भी दिल्ली का असर साफ़ दिखाई देता है। शरीफ़ बनाने वाली बात उसके बाद की है। ख़ास तौर पर जब ग़ज़ल पर अंग्रेज़ी तहज़ीब की छाप पड़ी। इंग्लिस्तानी लोग इरोटिक आर्ट या बातों के मुआमले में आज भी शर्मीले मशहूर हैं, उस ज़माने की बात ही क्या है। वो ग़ज़ल की बेबाकी, मेहबूब के साथ खुले आम जिस्म, हवस की बातें देख कर बौखला गए। ख़ैर, उन्होने ‘अलीगढ़ तहरीक’ के ज़ेर ए असर जदीद ग़ज़ल की बुनियाद डलवानी चाही, उसी ज़माने में मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली ने ‘मुक़द्दमा ए शेर ओ शायरी’ लिखी और उर्दू शायरी करने वालों को समझाने की कोशिश की कि भाइयों! ग़ज़ल को नैतिकता के दायरे में लाइए। उसमें ऐसी खुली-डली और नंगी या झूठी बातें न लिखिए, अंग्रेज़ों से शायरी सीखिए। वो क़ुदरती चीज़ों पर लिखते हैं- पेड़ों, फूलों, रंगों, बसंतों, बादलों के टॉपिक्स क्या कम हैं जो आप सिर्फ़ औरत से मोहब्बत की ही बातें किये जा रहे हैं। यहाँ तक कि उन्होंने उर्दू शायरी को अपनी एक नज़्म ‘ मद्दो जज़्र ए इस्लाम’ में संडास से भी बुरा कह दिया।
यह बात बहुत बुरी सही और यह दौर बहुत अजीब सही, मगर इसने एक अच्छा काम किया और वो यह कि उर्दू शायरी में नज़्म की बुनियाद डाली। यही वो दौर था यानी उन्नीसवीं सदी का मध्य-काल जिस में बाक़ायदा ब्रिटिश सरकार की तरफ़ से स्पॉंसर किये जाने वाले नज़्म के मुशायरे पंजाब में होने शुरू हुए। हालांकि उस दौर में ग़ज़ल के ख़िलाफ़ चलायी जाने वाली इस मुहिम को बहुत से शायरों ने चैलेन्ज किया जिन में हसरत मोहानी का नाम ख़ास तौर पर शामिल है। लेकिन ख़ुद मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली ने अपनी नई या जदीद ग़ज़लों में जो शेर कहे उन पर भी ग़ज़ल की पुरानी रिवायत का असर साफ़ दिखाई देता रहा। जैसे-
गो जवानी में थी कजराई बहुत
पर जवानी हमको याद आयी बहुत
इसलिए ये मुहिम तो हो गई नाकाम। लेकिन इससे इतना फ़ायदा ज़रूर हुआ कि ग़ज़ल अब इस झगड़े से बाहर निकल कर एक नया अलामती निज़ाम या नए पदचिन्ह पैदा करने के लायक़ हो गयी। अब दौर आया था प्रगतिवाद का, ऐसे में ग़ज़ल जिसका सर कुचल कर उसे महकूम या ग़ुलाम बनाने की कोशिश की जा रही थी, अंग्रेज़ साम्राज्य के ख़िलाफ़ बड़ा हथियार बन कर नुमूदार हुई। ग़ज़ल का फ़ायदा यह था कि उसके छोटे-छोटे शेर डंक बन कर अंग्रेज़ सरकार के बड़े से शरीर में बग़ावत और ग़ुस्से के ज़हर को दाख़िल करने का हुनर जानते थे। अब ग़ज़ल का पुराना, रिवायती संगदिल और क़ातिल महबूब अपना चेहरा बदल चुका था और अंग्रेज़ सरकार के क़ालिब में ढल गया था। ग़ज़ल के साथ आसानी यह थी कि वो इशारों में बात करती थी, उसके शायर पर साफ़ तौर पर कोई बग़ावत का इलज़ाम लगाया तो जा सकता था मगर उसे सिद्ध करना आसान न था। यही काम ग़ज़ल ने सरमायदारों या पूंजीवादियों के साथ भी किया। आज़ादी के बाद तो सन साठ या पैंसठ तक इस छोटी सी ग़ज़ल ने पूँजीवाद की बुनियाद ऐसे ही हिला रक्खी थी जैसे क्लासिकल ग़ज़ल ने मुल्ला, शेख़ या वाइज़ की दुकान।
अलीगढ़ तहरीक और प्रगतिवाद के दरमियान उर्दू को एक बड़ा शायर नसीब हुआ, जिसका नाम था इक़बाल। कहा जा सकता है कि अगर नज़्म की बुनियाद मज़बूत न हुई होती तो इक़बाल जैसा शायर उर्दू शायरी को नहीं मिल सकता था। इक़बाल ने ग़ज़लें भी कही हैं, मगर उनकी असली पहचान उनकी नज़्मों की वजह से है। हालांकि वो अपनी इस्लामी विचारधारा का शिकार होकर आख़िर-आख़िर तक उर्दू की सेक्युलर शेरी रिवायत से काफ़ी दूर चले गए थे, मगर उनकी बहुत सी नज़्में अपने अंदाज़ और अपनी शब्दावली की वजह से न सिर्फ़ अलग क़रार पायीं, बल्कि बेहद मशहूर हुईं। इक़बाल की ग़ज़ल पर भी उनकी नज़्म का असर दिखायी देता है, हालांकि उनके कहे गए बहुत से शेर आज भी लोगों के दिलों पर हुकूमत करते हैं-
तेरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ
न तू ज़मीं के लिए हैं न आसमां के लिए
जहाँ है तेरे लिए तू नहीं जहाँ के लिए
उर्दू शायरी में प्रगतिवाद की छाप इक़बाल की शायरी से दिखायी देने लगी थी। उनकी नज़्म ‘फ़रमान ए ख़ुदा (फ़रिश्तों से)’ में यह गूँज साफ़ सुनाई देती है-
उट्ठो मेरी दुनिया के ग़रीबों को जगादो
काख़ ए ओ’मरा के दर ओ दीवार हिला दोजिस खेत से दहक़ां को मयस्सर न हो रोज़ी
उस खेत के हर ख़ोशा ए गंदुम को जला दो
ख़ैर, प्रगतिवाद या तरक़्क़ी पसंदी का दौर आने के बाद उर्दू में बहुत से ग़ज़ल के अच्छे शायर पैदा हुए। जिनमें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का नाम सबसे ज़्यादा मशहूर हुआ। फ़ैज़ की ग़ज़ल में सियासी हालात के साथ इंसानी मोहब्बत और मजबूरियों का जो अक्स साथ-साथ दिखाई देता है, उसने आम पढ़ने वाले को बदलते हुए दौर में आज़ादी के उस ‘सराब’ का दीदार कराया, जिसे वो अंग्रेज़ों से छुटकारे की सूरत में ‘पानी’ समझता आया था। फ़ैज़ की ग़ज़ल एक तरफ़ बीते हुए वक़्त की अच्छी यादों को पढ़ने वाले पर नुमायां करती है तो दूसरी तरफ़ आने वाले कल की नई ग़ुलामियों के अंदेशे से भी दो-चार कराती है। साथ ही साथ, उस ग़ज़ल की सबसे ख़ास बात यह है कि वो अपने दौर की युवा पीढ़ी के मसलों को बहुत नाज़ुक अंदाज़ में ‘हँसते हँसते’ सीना खोल कर ज़ख़्म दिखाने का सलीक़ा सिखाती है। अपनी बातों के सुबूत में यहाँ उनकी एक मशहूर ग़ज़ल के ये तीन शेर पेश कर देना ही काफ़ी हैं।
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शब ए ग़म गुज़ार केदुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिल फ़रेब हैं ग़म रोज़गार केइक फ़ुर्सत ए गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के
लेकिन इस दौर के साथ ग़ज़ल कहने वालों को एक नई समस्या का सामना करना पड़ा। यह समस्या वक़्ती से ज़्यादा एक भयानक ऐतिहासिक समस्या बन कर आज के पढ़ने वाले के सामने मौजूद है और वह है विभाजन के बाद उर्दू शायरी के मंज़र-नामे पर उभरने वाले ग़ज़ल के बहुत अच्छे शायरों का टूटे हुए सितारों की तरह गिर कर वक़्त के ब्लैक होल में चले जाना। हालांकि चमक सभी को उनकी दिखायी देती थी, मगर उन्हें बहुत हद तक नज़र अंदाज़ किया गया। और यह मसला विभाजन के बाद हिन्दुस्तान में उर्दू ग़ज़ल कहने वाले शायरों के साथ ख़ास तौर पर जुड़ा रहा। पाकिस्तान में उर्दू को सरकारी ज़बान का दर्जा मिला और वहां के उर्दू अदब या साहित्य को एक अलग मंसूबा-बंदी के साथ प्रमोट किया गया। इसलिए जितनी शोहरत नासिर काज़मी, क़तील शिफ़ाई, अहमद फ़राज़ और परवीन शाकिर के हिस्से में आयी, उसका आधा हिस्सा भी मनचंदा बानी, आशुफ़्ता चंगेज़ी, इरफ़ान सिद्दीक़ी और ऐसे ही बहुत से शायरों के हिस्से में नहीं आया, यहाँ तक कि इन शायरों को उन अदबी मैगज़ीन्स निकालने वालों ने भी नज़र-अंदाज़ किया जो अपने रिसालों की शोहरत के लिए पाकिस्तानी शायरों के कलाम के मोहताज रहते थे।
ऐसे बहुत से पाकिस्तानी शायर भी थे, जो ख़ुद को किसी भी तरह प्रोमोट करने के क़ायल नहीं थे, इस वजह से उनका भी नुक़सान हुआ और पढ़ने वालों का भी। इसलिए सर्वत हुसैन, सग़ीर मलाल, जमाल एहसानी, रईस फ़रोग़ वग़ैरा बहुत दिनों तक नए पढ़ने वालों की निगाहों से ओझल रहे। हालांकि वो हिन्दुस्तानी शायर जो फ़िल्मों से जुड़े रहे, उन्हें शोहरत तो मिली मगर उनके फ़िल्मी गीतों ने उनकी संजीदा शेरी साख को बहुत नुक़सान पहुँचाया और ग़ज़ल को तो ख़ास तौर पर। इसलिए शकील बदायुनी, साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी जैसे शायरों को लोगों ने पढ़ा कम और गाने वालों के ज़रिये ज़्यादा सुना। यह नुक़सान भी कोई कम तो नहीं है।
यहाँ मैं कुछ शायरों पर जान बूझ कर बात नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि शायरों से ज़्यादा ग़ज़ल के सभी युगों को इस छोटे से लेख में समेटना मेरा मक़सद है। बताता चलूँ कि ऐसा दौर भी आया जब उर्दू ग़ज़ल को कड़ी निंदा और विरोध का सामना करना पड़ा। उर्दू के एक शायर अज़मत उल्लाह ख़ां (1887-1927) ने तो यहाँ तक कहा कि “उर्दू ग़ज़ल की गर्दन बे-खटके मार देनी चाहिए”। हालांकि ग़ज़ल का क़त्ल तो मुमकिन नहीं था, मगर उर्दू के ऐसे प्रसिद्ध शायरों की कमी नहीं जिन्होंने या तो ग़ज़ल कही ही नहीं, या बहुत कम कही या फिर उन्होंने अपनी पहचान ग़ज़ल के बजाये नज़्म के ज़रिये बनायी। इनमें इक़बाल, नून मीम राशिद, मीरा जी और अख़्तर उल ईमान के नाम निसंकोच पेश किये जा सकते हैं। अब तो उर्दू में ऐसे शायरों की एक बड़ी संख्या है जो ग़ज़ल या तो कहते ही नहीं या सिर्फ़ कभी कभार मुंह का मज़ा बदलने के लिए कहते हैं।
आज की ग़ज़ल पर इस छोटे से लेख में बात करना मुमकिन नहीं, मगर बस इतना कहना चाहूंगा कि अभी हमारे दौर की ग़ज़ल अपना उस्लूब (शैली) डिस्कवर नहीं कर पायी है। इसके दो बड़े कारण हो सकते हैं, पहला ज़बान न जानना और दूसरा अपनी शेरी रिवायत से न वाक़िफ़ होना। अगर आज के शायरों का कलाम जमा किया जाए तो उनमें से ज़बान और उस्लूब की बुनियाद पर किसी एक शायर को ढूँढ निकालना उस व्यक्ति के लिए काफ़ी मुश्किल काम होगा, जिसे बहुत से अलग-अलग शायरों की ग़ज़लों का इन्तेख़ाब, बग़ैर उनके नामों के दे दिया जाए। क्योंकि नक़ल करने में दाद न मिलने का रिस्क नहीं होता और बंधे टके फॉर्मूलों की मदद से शायरी करना काफ़ी आसान काम है इसलिए भी लोग मेहनत से बचने के लिए यह रास्ता अपना लेते हैं। इस पर फिर कभी फ़ुर्सत में तफ़सील से लिखूँगा और मिसालों के साथ आपको अपनी बात समझाऊँगा।