मुझे स्वतंत्रता पसन्द है
वह बढ़िया होती है समुद्र-जैसी

घोड़ा
आओ, उसका परिचय कर लेंगे
शतकों की सूलि पर चढ़ते हुऐ
उसने देखा है हमें
अपना सबकुछ शुरू होता है उससे
उत्तरदेह का शेष दुःख
और
आत्मा के श्याम अक्षर
वासना के किनारे की ओर ले जानेवाला यह
ययाति का घोड़ा नहीं है
ज़िन्दगी नहीं है पुराण के बैंगन का भर्ता
कौन ऐसे हैं वे?
जिनके वस्त्र
दरिद्रता की बरसात में भीगे नहीं?
उनके चारों खुरों की गुलाब-दुहाई को रंग चढ़ाकर
गयी है हरेक की ज़िन्दगी
फिर इतना बवाल किसलिए?
अपने भीतर के अश्वमेधी घोड़े को
दौड़ने दो ना बेलगाम
कितनी निष्पाप मासूम सुन्दरता को आकार दे जाता है वह!
उसकी विश्वात्मक दौड़ से
कठिन को मिल जाता है सहारा
हर कोई बीज रह जाता है गर्भ में
कितना सुलभ हो जाता है जीवनोत्सव!

पागलपन में ही सातों को किसलिए दौड़ना चाहिए?
न यहाँ ख़ून-ख़राबा का सम्मोहन
न यहाँ महायुद्ध का नरसंहार
आओ आओ ऐ बछड़ो
खुलेआम आसन जमाओ इस पर
इसके चारों ओर घूमने से फूलों में भर जाते हैं प्राण
दुःखी ज़िन्दगी में हवा बजाती है बाँसुरी
मौसमों का बन जाता है मोर
और आँसुओं के मोती
गुलाबी अयाल : गुलाबी खुर
यह दौड़ रहा है
दिशान्त तक…

नामदेव ढसाल की कविता 'माँ'

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नामदेव ढसाल
नामदेव लक्ष्मण ढसाल (मराठी: नामदेव लक्ष्मण ढसाळ; 15 फ़रवरी 1949 – 15 जनवरी 2014) एक मराठी कवि, लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता थे। वो मूल रूप से महाराष्ट्र के थे। उन्होंने दलित पैंथर की स्थापना की थी। उनकी विभिन्न रचनाओं का अनुवाद यूरोपीय भाषाओं में भी किया गया। वो जातीय वर्चस्वाद के ख़िलाफ़ रचनाएं भी करते थे। 15 जनवरी 2014 को आंत के कैंसर से निधन हो गया।