नहीं बनवाई कभी
पेड़ों ने जन्मकुंडली अपनी
ना पत्तों ने दिखलाईं
भाग्य रेखाएँ किसी को
धूल भरी स्याह आँधियाँ
पोर-पोर उजाड़ जातीं उन्हें
फिर भी धीरे-धीरे
हरे हो उठते पेड़
फिर-फिर गूँज उठतीं
फूलों-फलों की
सुरभित किलकारियाँ दूर तक
इतिहास में आज तक
किसी भी ज्योतिषाचार्य के सामने
कभी नहीं फैलीं
स्वयं पर आश्वस्त
श्रम करती हथेलियाँ।