सर्द प्रकृति के मौन विज्ञान में ख़ुद को खोने, खोजने की यात्रा

समीक्षा: देवेश पथ सारिया

पुस्तक: ‘होना अतिथि कैलाश का’
लेखिका: मनीषा कुलश्रेष्ठ

मनीषा कुलश्रेष्ठ जी का पहला यात्रा वृत्तांत और पहला कविता संग्रह पाठकों तक पहुँचा। एक घुमक्कड़ अंतर्मन की लेखिका से पहला यात्रा वृत्तांत लिखवाने के लिए मेज़बान बने स्वयं त्रयम्बक शिव। लेखिका ने आतिथ्य स्वीकार करते हुए यात्रा वृत्तांत को उचित ही नाम दिया—‘होना अतिथि कैलाश का’

यात्रा क्या है? लेखिका के लिए यात्रा अंतस का अनुभव है, कुछ नया साथ ले आने और बहुत कुछ पीछे छोड़ आने का एक वृत्ताकार घेरा। भारतीय परिवार में बच्चा धार्मिक कहानियों, लोककथाओं और किम्वदंतियों की कुशनिंग के साथ बड़ा होता है। मनीषा को भी ऐसे ही शिव और कैलाश के सम्बन्ध बचपन से रोमांचित करते रहे। इस रोमांच को पंख लगे महाकवि कालिदास कृत मेघदूत का अनुवाद पढ़ने के बाद। साहित्य ने अपना काम किया और मथुरा संग्रहालय की यात्रा ने अपना। इस तरह कैलाश यात्रा का सबब बना।

कैलाश जाना एक आम यात्रा नहीं है, वह कहीं ज़्यादा तैयारी माँगती है। कैलाश यात्रा के लिए की जाने वाली शारीरिक तैयारियों, पैक करने के लिए सामान, दवाइयाँ, बर्फ़ में चलने के तरीक़ों, कैलाश यात्रा के लिए उपलब्ध रास्तों और टूर ऑपरेटरों आदि के बारे में लेखिका पूरी जानकारी इस यात्रा वृत्तांत में देती हैं। इस संग्रह में कैलाश की पौराणिक कथाएँ, वेदों एवं श्रुतियों में कैलाश का उल्लेख और विभिन्न भारतीय धर्मों में कैलाश के माहात्मय के बारे में चर्चा की गयी है। लेखिका ने यात्रा से पहले पूरी यात्रा के पड़ावों का भूगोल, इतिहास, किम्वदंतियाँ, साहित्य एवं राजनीतिक हालत के बारे में विशद अध्ययन किया है। इस अध्ययन का लाभ इस संग्रह के पाठक को सहज ही मिलता है। गम्भीर अध्येताओं हेतु अधिक गहराई से पढ़ने के लिए विभिन्न सन्दर्भों का उल्लेख भी है।

मनुष्य की आदिम जिज्ञासाओं में प्रकृति के रहस्यों को समझना सदा से शामिल रहा है। हिमालय और हिमालय में छुपा कैलाश भी इसी आदिम जिज्ञासा के उत्खनन का केंद्र रहे हैं। आदि से अब तक की कड़ियों को जोड़ आज के कैलाश के बारे में मनीषा लिखती हैं—

“कैलाश केवल एक पवित्र तीर्थ मात्र होता तो कोई उल्लेखनीय बात ही नहीं थी। यह वर्तमान का एक प्राकृतिक, सांस्कृतिक और चीनी साम्यवाद और तिब्बत की विडम्बना का राजनैतिक यथार्थ भी है।”

कैलाश यात्रा के लिए उपलब्ध विभिन्न विकल्पों में से लेखिका एवं उनके हमसफ़र अंशु जी नेपाल से होकर जाने वाले मार्ग का चयन करते हैं। यहाँ एक मार्मिक दृश्य भी आता है जब दम्पति की दोनों बेटियाँ भावुक हो उठती हैं। लेखिका के पति अंशु जी फ़ौजी अनुशासन में ढले एक चुस्त व्यक्ति हैं, मैं उन्हें एक मौन प्रेक्षक कहना पसंद करूँगा। वे इस कठिन यात्रा में ज़रूरी जुगाड़ का इंतज़ाम करना जानते हैं चाहे वह कपड़े सुखाने के लिए इलेक्ट्रिक कम्बल हो या कैसे भी इंटरनेट का इंतज़ाम करके बेटियों को फ़ोन करना। वे कई मौक़ों पर मनीषा जी का मनोबल टूटने पर उन्हें एक योद्धा की तरह पुनः खड़ा करते हैं। एक जगह एक चित्त पड़े व्यक्ति को सीपीआर देते हैं किन्तु दुर्भाग्यवश वह व्यक्ति पहले ही मर चुका होता है।

शिव से साक्षात्कार इतना भी आसान नहीं। कैलाश यात्रा मानसिक और शारीरिक तौर पर आपसे बहुत कुछ माँगती है, ढेर सारी तैयारी। ख़ुद को फ़िट करना। लेखिका ने भी जिम में महीनों पसीना बहाकर ख़ुद को यात्रा के लायक़ बनाया। शरीर में माँसपेशियों की बरकत उनकी इस यात्रा में सहायक बनी। पर इतने पर भी उन्हें अपने हिस्से की शारीरिक व्याधियों का सामना करना पड़ा। चाहे वह नींद न आने के कारण नींद की गोली लेना हो, गले का इंफ़ेक्शन हो, बुख़ार हो या भूख मर जाना जबकि आपके शरीर को कैलोरीज़ की विकट ज़रूरत है। 22000 फ़ीट की ऊँचाई पर ऑक्सीजन की विरलता से साँस लेने में भारी दिक़्क़त होती है। रास्ते भर कई जगह (नेपाल में भी) भूस्खलन से रास्ता टूट जाता है। एक जगह गिरते पहाड़ से भागकर लेखिका अपनी जान बचाती हैं। एक दूसरी जगह सीधी पहाड़ी ढलान से खाई में गिरते-गिरते बचा ली जाती हैं। रास्ते में कहीं नदी रास्ता तोड़ देती है। कहीं नदी का रौद्र रूप साबुत पेड़ों को बहा ले जाता है। यहाँ ग्लोबल वार्मिंग का असर ही सीधा दोषी है।

इस यात्रा में कभी एकदम नैराश्य आपको घेर लेता है, कभी वैराग्य। नैराश्य आपको आगे नहीं जाने देता और वैराग्य चाहता है कि वहीं रुक जाओ।

लेखिका के टूर बस के साथी गुजराती हैं, जिनके अपने इतने सारे रंग है, अपनी संस्कृति की ही तरह। खाने को पूरा ख़ज़ाना वे साथ भरके चलते हैं। कहीं उनमें आत्मविश्वास और भक्तिभाव इतना है कि अपने वज़न और उम्र की परवाह किए बिना यात्रा पर चले आए हैं। कहीं आस्था का भोलापन दीखता है। बहुत जल्दी अजनबियों के साथ सहज हो बेहद निजी प्रश्न पूछ डालने की भारतीय प्रवृत्ति यहाँ भी दृष्टिगोचर होती है। उन्हीं में से एक स्त्री साड़ी पहनके यात्रा कर रही हैं जो इस यात्रा में बहुत असहज है। परिचय होने पर कुछ मिथक दोनों ओर टूटते हैं। मसलन, जब एक गुजराती साथी लेखिका के कोलेप्स हो जाने पर उनकी मदद करते हैं।

मनीषा कुलश्रेष्ठ अपने जीवन में प्रकृति के पक्ष में खड़ी होती हैं। वे ग्लोबल वार्मिंग जैसे मुद्दों पर खुलकर अपनी राय रखती हैं और मिनिमलिस्म में भी उनका विश्वास है। यानी जिसकी ज़रूरत है, उतने से ज़्यादा नहीं लेना। इसी बात का ध्यान वे अपनी पैकिंग के दौरान भी रखती हैं और अनावश्यक कुछ साथ नहीं लेतीं। जो भी थोड़ा फ़ालतू सामान होता है, वे उसे नेपाल के अपने होटल में ही छोड़ आगे बढ़ती हैं। ऐसे में जब उनके सहयात्री चीनी सरकार के मानसरोवर झील में स्नान न करने और डुबकी न लगाने के नियम की अवहेलना करते हैं तो उन्हें इससे दुःख होता है। हम सभी जानते हैं कि आस्था के नाम पर हम भारतीयों ने अपनी नदियों का क्या हाल किया है। भारतीय यात्री इतने पर ही नहीं मानते। वे निर्धारित जगह से अलग हवन करने लगते हैं। परिक्रमा के रास्ते में भारतीय कचरा, प्लास्टिक बोतल, थैलियाँ और चॉक्लेट के रैपर्स फेंकते जाते हैं, जिन्हें तिब्बती उठाकर कचरे के पात्र में डालते हैं। बिना प्रकृति से प्रेम किए शिव भक्ति कैसे हो सकती है, जबकि लेखिका के अनुसार शिव प्रकृति का ही रूप हैं।

इस यात्रा वृत्तांत से गुज़रते हुए पाठक नेपाल और तिब्बत से गुज़रता है। लेखिका का पहला पड़ाव नेपाल है जहाँ के बारे में वे कहती हैं कि नेपाली बहुत अच्छे मेज़बान होते हैं। मेरे अपने यात्रा अनुभवों के दौरान मुझे रूसी भी अच्छे मेज़बान लगे थे, कैनेडियन भी। अच्छे मेज़बान होने की यह आदत वैश्विक ही हो जाए तो हम सब ‘वसुधैव कुटुम्बकं’ की ओर कई क़दम आगे बढ़ जाएँगे। सरहदें बस एक औपचारिकता होंगी फिर। बहरहाल, लेखिका नेपाल के इतिहास और पुरातात्विक खनन से निकले निष्कर्षों को बताते चलती हैं। वे नेपाल के मंदिरों जैसे पशुपतिनाथ, स्वयंभूनाथ और बूढ़ा नीलकंठ की भी यात्रा पाठकों को कराती हैं। पशुपतिनाथ मंदिर में शिव के विशेष स्वरूप और मंदिर का भारत स्थित केदारनाथ मंदिर से पौराणिक जुड़ाव भी वृत्तांत में बताया गया है। यहाँ एक धर्मगत विडम्बना भी बतायी गयी है जहाँ एक सुरम्य पहाड़ी पर काले पत्थर में उकेरे बुद्ध की मूर्ति भक्तों की उपेक्षा झेल रही थी, वहीं दूसरी ओर पास के प्रसिद्ध मंदिर में जमघट लगा था। नेपाल की राजनीतिक स्थिति पर बहुत विस्तार से नहीं लिखा है पर वहाँ की ढुलमुल विदेश नीति की चर्चा अवश्य है जिसके चलते नेपाल अब चीन की तरफ़ झुकने लगा है। इसका कारण नेपाल की ग़रीबी है जो भूकम्प के बाद और बढ़ गयी है। नेपाल की टूटीफूटी बसें इसी अर्थव्यवस्था की परिचायक हैं। ग़रीबी की वजह से नेपाली गाँवों की लड़कियों की स्मगलिंग का उदाहरण दिल दहला देता है।

पाश लिखते हैं, “मैं आदमी हूँ/ बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूँ।” एक यात्री भी बहुत से पड़ावों और जुड़ावों से मिलकर बना होता है। लेखिका बहुत से लोगों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हैं जैसे उनके पति, बच्चे, टूर गाइड शीला जी और नेपाली शेरपा श्याम भैया आदि। शेरपा श्याम नेपाली व्यक्तियों की जिजीविषा का जीवंत उदाहरण हैं। पचास पार की उम्र में नेपाल में आए भूकम्प से तबाह होने के बाद फिर से अपना अस्तित्व बचाते, बनाते, परिभाषित करते हुए। वे यात्राओं के अपने अनुभव और पहाड़ के सान्निध्य से जड़ी-बूटियों, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों और रास्तों का ज्ञान रखते हैं। लेखिका के बीच परिक्रमा में घुटने का दर्द होने पर उन्होंने जड़ी-बूटियों का ऐसा तेल दिया कि वे सही होकर आगे बढ़ पायीं। नेपाली पहाड़ और प्रकृति को अपनी माँ मानते हैं फिर भी भूकम्प की विभीषिका उन्हें क्यों झेलनी पड़ी, यह प्रश्न मन में उठता है। प्रकृति को पीड़ा सभी पहुँचा रहे हैं, जिसमें हम भारतीय अग्रणी हैं और लचर-लापरवाह भी।

तिब्बत के भूगर्भ विज्ञान, राजनीतिक परिदृश्य, चीनियों द्वारा पक्षपातपूर्ण व्यवहार, आर्थिक विषमताओं का विवरण इस पुस्तक में मिलता है। तिब्बती चीनियों की अपेक्षा अधिक नम्र नज़र आते हैं। तिब्बत की स्थानीय युवतियाँ मुद्रा बदलने का काम करती हैं। लेखिका भी तिब्बत के स्थानीय लोगों से ही सामान ख़रीदने की वकालत करती हैं, जो उचित भी है। मनीषा जी तिब्बत की भाषाओं की जानकारी भी देती हैं। उन्हें किसी भी जगह का स्थानीय खाना और संगीत पसंद है। तिब्बती संगीत का आनंद वे लेती हैं पर शाकाहारी भोजन की समस्या तिब्बत में रहती है। हालाँकि टूर गाइड शीला जी हर जगह रुकने और खाने का कुशल इंतज़ाम करती हैं। तिब्बत के खैरूग में लेखिका के गेस्ट हाउस के कमरे के पीछे स्थित घर में एक कौतुहल की तरह एक तिब्बत्ती स्त्री को लेखिका देखती हैं जो उनकी मित्र भी बन जाती है। शायद इसी मित्रता की वजह से वे खैरूग छोड़ते समय भावुक हो जाती हैं। यात्रा में बहुत कुछ पीछे छोड़ आगे बढ़ना पड़ता है।

तिब्बत के धर्म के बारे में मनीषा लिखती हैं कि यह प्राचीन तिब्बती मान्यताओं, बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म के कुछ तत्वों से मिला-जुला धर्म है। वे मिलारेपा की रोचक कथा भी उद्धृत करती हैं जहाँ गुरु, शिष्य और शिष्य, गुरु बन जाता है। तिब्बती किसी रास्ते से गुज़रते हुए चिल्लाते हैं, “सोम्यो, सोम्यो” जिसे पढ़ते हुए मेरा भी मन पुकारने को हुआ, “सोम्यो, सोम्यो”। स्थानीय सरोकार से जुड़ जाने का यह एक सुन्दर तरीक़ा है। तिब्बती बिना थके कैलाश की दुर्गम परिक्रम में मन्त्र बुदबुदाते चलते हैं। वे कई-कई परिक्रमा करते हैं, कुछ दंडवत लगाते हुए। तिब्बती बच्चे हँसते-खेलते हुए लेखिका के सामने से परिक्रमा करते निकल जाते हैं। बच्चों की हँसी से कैलाश कुछ और धवल हो जाते होंगे।

प्रकृति रक्षक प्रकृति प्रेमी भी होंगी ही। मनीषा कुलश्रेष्ठ पूरी कैलाश यात्रा में विविध भाँति के फूलों, वनस्पतियों, जीव-जंतुओं की महीन जानकारी देती हैं। नीली पॉपी, जामुनी फूलों वाली घास सब लेखिका की प्रकृति प्रेमी निगाहों से प्रशंसा पाते हैं। पहाड़ भी कहीं बर्फ़ीले, कहीं वृक्षों से भरे, कहीं सूखे-भूरे। मोहक आवाज़ वाले लाल चोंच के कव्वे के बारे में पढ़ उन्हें देखने का मन होता है। खैरूग घाटी की प्राकृतिक सुंदरता रमणीय है। वे गोम्पा के टीले पर सुनहरी रेत के कणों को डिबिया में भर लेती हैं और कहीं से रंगीन पत्थर भी चुन लेती हैं। इन्हीं प्रतीकों और स्मृति में यात्राएँ सुरक्षित रहती हैं। याक तिब्बती जीवन का अभिन्न भाग है। याक के महत्त्व और उसके दैनिक जीवन में उपयोग के बारे में पढ़कर याक के मक्खन और उस मक्खन से जलते दीये कल्पना में जगमग कर उठते हैं। कैलाश परिक्रमा में एक जगह निस्सीम शांति में चारों ओर याकों और खच्चरों के गले की घंटियों का संगीत सुनने को कान लालायित हो उठते हैं।

भारतीय जनमानस में नदी एक संज्ञा भर नहीं है। लेखिका कैलाश यात्रा के अपने अवसर का लाभ उठा भारतीय जन मानस में पूजनीय बन बह रही इन नदियों के उद्गम की भी चर्चा करती हैं। वे गंगा के उद्गम की चर्चा करती हैं एवं विभिन्न अन्य नदियों की भी जिन्हें ग़लती से गंगा मान लिया जाता है। वेत्रवती, ब्रह्मपुत्र, कैलाश गंगा आदि नदियाँ लेखिका को मिलती हैं, कहीं छोटी-छोटी नद धाराओं के रूप में। कहीं नदियाँ एक नया अबूझ रंग ले सामने आती हैं, जिसे पहचानने को मनीषा जी पानी के नए रंग परिभाषित करती हैं, जैसे पिघलता दूधिया पन्ना। नदियों के बारे में यह पुस्तक पढ़ते समय प्रकृति के ही एक कवि जगतारजीत सिंह की कविता की कुछ पंक्तियाँ बरबस याद आती हैं—

“पहले पहल
पानी बहा होगा इधर-उधर
ऊपर से नीचे होता हुआ
नाम तो किसी और ने दिया होगा
बहुत बाद में

हर नदी अपने घर से
इसी तरह चली होगी
अपनी राह बनाती
पानी के लिए।”

(जगतारजीत सिंह, साभार: समकालीन जनमत)

कैलाश-मानसरोवर पहुँचते-पहुँचते लेखिका का कवि मन, गद्य पर विजय पाने लगता है। वे कवितामय पंक्तियाँ लिखती हैं। सूर्यास्त में मानसरोवर झील की सुंदरता लेखिका को नील लोहित झील-सी लगती है। यहाँ उनका नीले रंग के प्रति प्रेम भी मुखर हो उठता है। मानसरोवर के आसपास की प्रकृति और जीवन का भी बहुत सुन्दर चित्रण किया गया है जो आपको कैलाश यात्रा के लिए प्रेरित करेगा।

मानसरोवर झील के ही निकट, निपट जीवनहीन बेस्वाद जल वाले राक्षस ताल को मनीषा जीवनहीन शापित सुंदरता कहती हैं। रावण एक शिवभक्त था, हठी किन्तु अद्वितीय.
उसकी तमाम बुराइयों के बावजूद शिवभक्ति के सूत्र उससे सीखे ही जाने चाहिए। राक्षस ताल से जुड़ी कहानियाँ और किम्वदंतियाँ भी इस वृत्तांत में बतायी गयी हैं। सूना होने के बाद भी अपनी सुंदरता की वजह से राक्षस ताल मनीषा जी को भाता है और एक पाठक के तौर पर मुझे भी भाया ही।

कैलाश की परिक्रमा के लिए लेखिका किसी सवारी की सुविधा लेने के बजाय पैदल चलना चुनती हैं। इस बात का मर्म एक प्रकृति प्रेमी ही समझ पाएगा कि उन्हें पैदल चलने का सबसे बड़ा फ़ायदा फूलों को छू सकना लगता है। यमद्वार से शुरू हुई 52 किलोमीटर की यह परिक्रमा कई चुनौतियाँ लेकर आती है, जिसकी वजह से दल के कुछ सदस्य मानसरोवर में ही रुक जाते हैं। कैलाश के कई रूप हैं, हर दिशा से अलग दर्शन, अलग छटा। यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते लेखिका कवि के साथ दार्शनिक और वैरागी हो उठती हैं। कैलाश की पहली झलक उन्हें श्वेत पिरामिडनुमा लगती है। दक्षिणमुखी कैलाश सीढ़ीनुमा हैं जैसे सर्र से चढ़ जाओगे पर एवरेस्ट से कम ऊँचा होने के बाद भी कैलाश का शिखर दुर्गम्य है। बादलों की आँखमिचौली के बीच कैलाश स्वेच्छा से यकायक, यदाकदा दर्शन देते हैं और हर बार कृष्णभक्त मीरा के शहर से वैरागन होने का संस्कार प्राप्त कर आयीं मनीषा जी का मन हर लेते हैं। सबसे अद्भुत वह दृश्य है जब रात तीन बजे अचानक लेखिका और उनके पति को कैलाश के दर्शन होते हैं, शिव के साक्षात्कार की तरह। मौन साक्षात्कार, निश्चेष्ट। कैलाश आपको सांसारिक देह से विरक्ति देता है।

अपनी पूरी यात्रा के दौरान लेखिका पुराणों में बतायी गयी अलका नगरी की खोज में फिरती हैं, जैसे कस्तूरी का मृग भटकता है। हिमालय की गहराइयों में बटोही को कस्तूरी मृग मिल जाता है, पर अलका नगरी नहीं। मनीषा पुरज़ोर तार्किक विश्लेषण करके अलका नगरी के बारे में क़यास लगाती हैं कि क्या वह नगर किन्नौर तो नहीं, या काठमांडू। वह नगरी जो कुबेर की थी, जहाँ सदा वसंत रहता था, जहाँ लोग चिर युवा रहते थे। कहीं नेपाली तरुणियाँ अलका नगरी की तो नहीं। कहीं कैलाश के पास किसी गुफा से तो अलका नगरी का रास्ता नहीं। या जैसे कस्तूरी मृग की कस्तूरी उसकी नाभि में होती है, वैसे ही यह दिव्य नगरी कहीं सिर्फ़ कालिदास के मन में ही तो नहीं थी बस। कालिदास द्वारा अधिक श्लोकों में इस नगरी का वर्णन एक मिथक को सत्यापित करने का चतुर प्रयास तो नहीं, लेखिका इस सारी उधेड़बुन से गुज़रकर एक वैज्ञानिक की तरह सब तर्क प्रस्तुत कर देती हैं। अब इस विवरण का लाभ उठाना, आगे की कड़ियाँ खोजना, जोड़ना भविष्य के अध्येताओं, घुमंतुओं पर है।

मैं मनीषा जी की वैज्ञानिक अप्रोच का मुरीद हो गया हूँ। मैं स्वयं पेशे से वैज्ञानिक हूँ और जितना मैंने इस संग्रह को पढ़ा, मैं उनकी परिकल्पना और निष्कर्ष तक पहुँचने की वैज्ञानिक शैली से अचम्भित हो गया। लेखिका बताती हैं कि वे ग्रेजुएशन तक विज्ञान की विद्यार्थी रही हैं, पर विज्ञान के कितने विद्यार्थी ऐसे विश्लेषण कर पाते हैं। राक्षस ताल के पानी के स्वाद का भिन्न होना हो, कैलास के शिखर तक चढ़ पाने की मुश्किल हो, मानसरोवर किनारे बतखों के मोती चुगने का यथार्थ हो, कैलाश परिक्रमा में दिव्य बाँसुरी की धुन सुनायी देना हो या अलका नगरी की उपस्थिति, हर क़िस्से में वे एक शोधार्थी की तरह नज़र आती हैं। वे किसी भी बात को मान्यता के आधार पर स्वीकारती नज़र नहीं आतीं। उनके अनुसार तमाम दिव्य अनुभवों के वैज्ञानिक और प्राकृतिक कारण हैं।

विचार करें कि शून्य गणित से आया था या दर्शन से। इस देश के पाठकों को जिसने शून्य के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, मैं ‘होना अतिथि कैलाश का’ की इस पंक्ति के साथ छोड़ता हूँ—

“कैलाश आपसे कुछ नहीं माँगता, लौटाता ज़रूर है आपको, आपका शून्य।”

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देवेश पथ सारिया
हिन्दी कवि-लेखक एवं अनुवादक। पुरस्कार : भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार (2023) प्रकाशित पुस्तकें— कविता संग्रह : नूह की नाव । कथेतर गद्य : छोटी आँखों की पुतलियों में (ताइवान डायरी)। अनुवाद : हक़ीक़त के बीच दरार; यातना शिविर में साथिनें।