‘Khidki’, a poem by Bikram Bumrah

मेरे कमरे की
पश्चिमी दीवार पर
एक सुराख़ है
बड़ा-सा
चौकोर सुराख़
जिसे खिड़की कहते हैं,
मेरे कमरे की आँख,
भीतरी स्वप्न से
आहत शोर तक
लेकर जाने वाला
एक पुल,
यह खिड़की
जिसके बाहर
है एक पुराना जंगला
ज़ंग लगे हुए लोहे का,
सीधी खड़ी सलाखें,
मेरे हिस्से की धूप को
टुकड़ों में काटने वाली सलाखें,
जिनको पकड़कर देखता हूँ
बीसवीं मंज़िल से नीचे
ज़माना उथल-पुथल
दूर काली सड़क पर
जगमगाते उजाले
मेरी छोटी-सी हक़ीक़त
मेरे हिस्से का शोर
कुछ पल तकता हूँ
कि अचानक दिखायी देती है सामने
सौ आँखों वाली इमारत
मुझे घूर रही
एक विशाल मक्खी
कुछ आँखें बंद
कुछ खुली
हर आँख पर जंगला
हर खुली आँख के भीतर से
जंगले को पकड़े दो हाथ
अपने-अपने हिस्से की
धूप भोग रहे हाथ
अपनी-अपनी सलाखों पर
निशान छोड़ रहे हाथ
टाउनशिप के मकोड़ों से भरा यह शहर
जहाँ इस विशाल मक्खी की आँख में
कल्पनाएँ गढ़ रहा मैं
महसूस करता हूँ
मेरी आँखों की पुतलियों पर
बनने लगते हैं जंगले
दोनों जंगलों को
अंदर से पकड़ते
दो-दो हाथ
मेरे अंदर दो और ‘मैं’
जिनमें से एक ‘मैं’
मेरी ही तरह
कूद जाना चाहता है
जंगला तोड़कर
और दूसरा ‘मैं’
उड़ जाना चाहता है कहीं दूर
कि उन्हें भाती नहीं अब
अपने हिस्से की धूप…
मक्खी की आँख में
आँसू नहीं आते
मैं ‘खिड़की’ बन्द करके
सो जाता हूँ!

बिक्रम बमराह
खंजरों के शहर में फूल तलाशती रूह