‘Lagbhag Jaisa Lagbhag’, a satire by Nirmal Gupt
मैं गाड़ी की चाभी कई बार घुमा चुका हूँ। पर वह स्टार्ट नहीं हो रही। ’घू घू’ कर रही है। इसलिए स्टार्ट होने की उम्मीद बरक़रार है। अस्फुट आवाज़ें सदा आस जगाये रखती हैं। इस वक़्त मुझे पुराना स्कूटर बहुत याद आ रहा है। वह होता तो उसे एक ओर झुकाता और किक मारते ही भर्र से स्टार्ट हो जाता। इस देशज तकनीक से ही हमने जाना है कि झुकने से मनोरथ जल्द सफ़ल हो जाते हैं। लेकिन कार बनाने वालों ने सीट से बंधे रखने का इंतज़ाम तो किया, झुकने-झुकाने वाले सनातन ऑप्शन को उपलब्ध कराने से चूक गये। मैं अपने कवि मित्र के शब्दों में कहूँ तो कहूँगा कि हम ऐसे समय से गुज़र रहे हैं जहाँ हर क़िस्म की समस्या लगभग अनामंत्रित चली आती हैं। अच्छा समय लगभग आ रहा होता है कि वह बीच रास्ते में ठिठक जाता है। प्लम्बर बाथरूम की बहती टोंटी लगभग ठीक करता हुआ अचानक मुनादी कर देता है कि इसे दुरुस्त करने में नई टोंटी से अधिक ख़र्च लगेगा। लगभग पारस्परिक सौहार्द में रहते लोग अचानक ख़ूँख़ार हो जाते हैं। लगभग सेक्युलर लोगों को एक सुबह अहसास होता है कि अब ऐसा बने रहना बड़ा मुश्किल होता जा रहा है।
यह समय कुछ ऐसा है जिसमें केवल लगभग से काम नहीं चलता। यह सेंट परसेंट यानि शतप्रतिशत का ज़माना है। अफ़सर ठेकेदार से तयशुदा कमीशन माँगता है। ठेकेदार जी नये ज़माने के हैं, लगभग मेज़ के ऊपर से धन देने लगते हैं। अफ़सर आँख तरेरता है। कहता है कि तुम्हें लेनदेन की बेसिक समझ नहीं। सुविधा शुल्क और औरतें दबी ढकी ही अच्छी रहती हैं। ठेकेदार समझदार है। वह अफ़सर के ‘वनलाइनर’ पर ‘होहो’ कर हँसता है। अफ़सर मेज़ के नीचे से करेंसी नोटों के बण्डल थामता है, फिर इत्मिनान के साथ खुलेआम अंगुली में थूक लगाकर नोट गिनता है। बताता है कि धंधे में यूँ तो सब चलता है पर प्रोटोकाल भी कोई चीज़ है। ठेकेदार तुरंत कहता है जी सर जी। उसकी समझ में जब कोई बात ठीक से नहीं आती तो वह कथोपकथन में जी भरकर लगभग हर प्रकार और प्रजाति के ‘जी’ लगा देता है। सामने वाला समझ जाता है कि बंदा लगभग संस्कारी टाइप का है।
मैं गाड़ी के स्टार्ट न हो पाने से परेशान हूँ। पूरा मुल्क अचानक फैली असहिष्णुता से बेचैन है। इससे पहले तो देश एकदम सहिष्णु था। आपस में ख़ूनख़राबा भी करते थे तो लगभग बड़ी शाइस्तगी के साथ। धर्मस्थल भले ही ध्वस्त कर देते हों लेकिन एकदूसरे की फूडिंग हैबिट पर कोई सवालिया निशान नहीं लगाते थे। लेखक लिखते चाहे जैसा हों लेकिन इनाम इकराम लेने में कोई नानुकर नहीं करते थे। एक बार सम्मान वाला दुशाला लगभग ओढ़ लिया तो ओढ़ लिया, उसे वापस देने की बात कभी नहीं करते। वे ऐसा कर भी नहीं सकते थे। अपने सम्मानित दुशाले को तब तक सम्भालकर रखते थे जब तक वह नाती पोतों के पोतड़े बनने लायक रहता था। अपरिहार्य स्थिति में सम्मान चिह्नों के बदले उनकी घरवालियाँ स्टील के बर्तन या कच्चा नारियल ले लेती थीं। वैसे भी युग युगांतर से साहित्य के सम्मान लगभग बार्टर सिस्टम के तहत मिलते रहे हैं और उनका अन्तोत्गत्वा वैसा ही इस्तेमाल होता है। कमोबेश दादा द्वारा लगभग जुगाड़ा गया सम्मान पोते बरतते हैं। अब सम्मान वापसी की शोहरत को हार्ड डिस्क में सहेजकर रखा जाया करेगा। अब स्मृतियाँ डिजिटल हो चली हैं।
मैं गाड़ी को स्टार्ट करने के लिए लगभग हर कोशिश कर चुका हूँ। अंतत: गाड़ी को ख़ूब हिलाया। ठीक उसी तरह जैसे राजनेता चुनाव के समय कुम्भकर्ण की नींद सोयी क़ौम के ज़मीर को झकझोरते हैं। और मज़े की बात यह है कि उनके इस प्रयास से क़ौमें लगभग जाग भी जाती हैं। मैंने अपनी बंद पड़ी गाड़ी को भी इसी तरह झकझोरा। लगभग झुकाने की पुरज़ोर कोशिश भी की।
गाड़ी के इग्नीशन में चाभी लगाई। ऊँची ऊँची इमारतों के बीच की झिर्री से आसमान की ओर लगभग ताका। और गाड़ी का इंजन धड़ से चालू हो गया।
मैं तुरंत समझ गया कि लगभग टोटके जैसे लगभग चमत्कार होने हमारे मुल्क में अभी बन्द नहीं हुए हैं।
यह भी पढ़ें: ‘वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं’