“विशाल, ये नदी के किनारे कहाँ मिलते होंगे? मिलते भी होंगे कि नहीं?” मुँह में पानी भरे-भरे ही सलोनी ने पूछा।
“तुमको क्या हो गया! पानी भी चढ़ने लगा क्या अब!”
“अरे यार! तुम भी मम्मी न बनो अब। सीधे से बताओ पता हो तो।”
“तुमने साइंस नहीं पढ़ी क्या? तुम तो टॉपर थीं न! फिर?”
“हाँ थीं न। पर साइंस वाली केमिस्ट्री ही आती है बस। इश्क़ वाली नहीं आती!”
“वो किनारे नहीं मिलते कभी। नियति यही है!”
“तो क्या हम भी नहीं मिलेंगे कभी? हमारी भी नियति यही है?”
“भक्क पागल! कुछ भी बोलती तू!”
“अरे मेरी तरफ देख कर बोल न। सही नहीं कहा मैंने?”
“नहीं, सही नहीं कहा। हम किनारे थोड़े ही न हैं।”
“फिर।”
“तू नदी है।”
“और तू!”
“मैं नदी में बना वो दीप जिसके चारों ओर हमेशा नदी बहती रहती है!”