‘Main Tumko Ek Khat Likhta Hoon’, a poem by Pratap Somvanshi
उत्तर की उम्मीद बिना ही रोज़ सवेरे
मैं तुमको एक ख़त लिखता हूँ
ये ख़त क्या है बस ये समझो
इसी हवाले मैं तुमसे बातें करता हूँ
वो बातें जो दिल का सागर उफनाने से
ख़ुद ही ज़ुबाँ तक आ जाती हैं
वो बातें जो सारी दुनिया घूम-घामकर
दिल के अंदर सो जाती हैं
इन बातों का मुझ तक आना
जैसे मिले ख़ुशियों का सोता
पल-पल तेरे जोड़ सकूँ मैं
ये ख़त एक ज़रिया, एक मौक़ा
मौक़े की बातों से मुझको याद आया
तिनका-तिनका लम्हे जोड़े
तब तेरी तस्वीर बनायी
कब तू मेरे पास नहीं थी कोई बताए
हर गर्मी में हवा का झोंका
सर्दी में तुम लिए दुशाला पास थी मेरे
बारिश की बूँदों में तुमने ही तो रस घोले
हर मौसम में मेरे अंदर तुम ही तो महका करती हो
सूना कभी रहा ही नहीं मन का बग़ीचा
हाँ कोयल-सी तुम ही तो चहका करती हो
बची रहे ये चहक तुम्हारी, महक तुम्हारी
खुलकर हँसना हर मौसम से बातें करना
तेरी बातें जैसे पर्वत से गिरता एक मीठा झरना
उस पानी से अंदर-अंदर छीज रहा हूँ।
उत्तर की उम्मीद बिना ही रोज़ सवेरे
मैं तुमको एक ख़त लिखता हूँ
ये ख़त क्या है बस ये समझो
इसी हवाले मैं तुमसे बातें करता हूँ…
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