‘स्थगित कर दूँ क्या अभी अभिव्यक्ति का आग्रह, न बोलूँ, चुप रहूँ क्या?’
क्यों? कहिए, न बोलूँ, चुप रहूँ क्या? किंतु आप कहें कि ‘धन्यवाद, चुप रहिए’ तो उससे भी क्या? आपका संदेश, नहीं आदेश, मुझ तक पहुँच तो नहीं सकता। और आप सुनना चाहें तो मैं जान भी नहीं सकता कि हाँ आप सुन रहे हैं। इसी से मुझे बोलने ही में संतोष है… यह जानते हुए भी कि आप मौन रहकर सुनेंगे तभी मेरा बोलना सार्थक होगा… और यह भी जानते हुए कि आप जब चाहें तब सुई घुमाकर मेरी आवाज़ को सूने आकाश में मँडराने के लिए छोड़ दे सकते हैं। मगर उससे मेरा बोलना बंद तो नहीं होता क्योंकि उसमें यह सम्भावना रहती ही है कि कहीं कोई और मुझे सुन रहा होगा… इस भटकती हुई आवाज़ को कहीं तो आश्रय मिला होगा।
यों भी बोलने में एक सुख है, कोई सुने चाहे न सुने। सुननेवाले के लिए यही बात उलटकर नहीं कही जा सकती; सुनने में एक सुख है, मगर यह तो नहीं कि वह सुख रहेगा ही, कोई बोले चाहे न बोले। इसी से बोलता हूँ अर्थात कहता हूँ कि बोलना सुनने से कुछ बड़ा है… जैसे किसी कवि की वह पंक्ति है… ‘बनाना तोड़ने से कुछ बड़ा है।’
कभी आपने सोचा है जो लोग अधिक बात करते हैं, उनसे हम कतराने क्यों लगते हैं? कहा जाता है अमुक बड़ा बक्की है, जब देखो तब बक-बक बक-बक। उसका मतलब यही होता है कि अमुक जो कुछ बोलता है, हम सुनना नहीं चाहते। निश्चय ही, यह सुननेवाले की असमर्थता है जिसका लाँछन बोलनेवाले पर लगाया जाता है, नहीं तो कभी आपने सुना है कि कोई बोलते-बोलते थक गया हो और आप सुनने के लिए व्यग्र रहे हों कि ‘भाई और बोलो।’ होता यही है कि सुननेवाला पहले थकता है और बोलनेवाला? बाद में भी नहीं, जनाब, वह कभी नहीं थकता। बोलनेवाले को ही कहना पड़ता है, ‘सुन रहे हैं आप?’ या ‘सुनिए तो, फिर क्या हुआ’ और सुननेवाला बोलनेवाले से इतना हीन होता है कि वह यह नहीं कह पाता, ‘बोलिए।’ उसके मुँह से निकलता है, ‘सुनाइए साहब।’
यह कोई नयी बात नहीं, शताब्दियों से लोग सुनने के उत्सुक चले आ रहे हैं। वेदकालीन पुरुष प्रार्थना करता है, शृणवाम शरदः शंत। वेदांती, नादब्रह्म को सुनने के लिए आँख मीचकर, कान भी बंद कर मौन प्रतीक्षा में आसनस्थ है। और इस दिशा में सबसे अधिक उपलब्धि उन कवियों को हुई है जो इधर सृष्टि का निखिल मौन संगीत सुनते रहे, प्रेमिका का मूक स्वरों में अनुरोध भी। और आज तो हमें कोई सौ बातें सुनाता है, कोई सुना-सुनाकर कुछ कहता है और हमारी कहीं सुनवाई नहीं होती। फिर भी हम अनुरोध करते हैं ‘बोलो प्रभु, कब सुनोगे।’ यह अन्याय आप देख रहे हैं? अर्थात सुन रहे हैं? कि प्रभु ही बताएँगे कि हम कब बोलें। यह इसीलिए कि हम सुनने के आदी हो गए हैं और सुनना हीन है, बोलना श्रेष्ठ।
फिर भी कभी-कभी मन में इतना कुछ कहने के लिए एकत्र हो जाता है कि बस एक विकल मौन मन पर छा जाता है; कुछ कहा नहीं जाता। सुना है वाल्मीकि भी कभी मौन थे, व्यथा के तीखे शरों से तिलमिलाकर अचानक उनका कंठ फूटा। हमारे मन की व्यथा वैसी तो नहीं। यह तो वर्षों की घनीभूत पीड़ा है जिसे कह डालें तो हल्के हो जाएँ मगर यह जानते हैं कि कह डालकर हल्के हो जाना व्यथा का उचित प्रतिकार नहीं। इससे उसे मन-ही-मन समझते हैं, मथते है, और अधिक व्यथित रहते हैं। उसे पचा डालना चाहते हैं मगर यह भी जानते हैं कि उसे हज़म कर जाना ख़ून के घूँट पीकर रह जाने के बराबर है। हम अपनी व्यथा को पचाना चाहते हैं, ऐसे कि उसका सत बदन में लगे, न कि ऐसे कि हम और दुबले होते जाएँ। हँसने की बात नहीं है, जिसने यह कहावत बनायी होगी ‘भैंस के आगे बीन बजाए, भैंस खड़ी पगुराय’, उसने निश्चय ही किसी पूर्वग्रह से प्रभावित होकर भैंस के प्रति ऐसा निंदात्मक वक्तव्य दिया होगा। नहीं तो किसे पता है कि भैंस जब पगुराती रहती है तब सोचती नहीं रहती है। यों हम चाहें कि पान चबाते जाएँ और सोचते जाएँ तो नहीं हो सकता। पान का रस इसी में है कि उसी पर सारा ध्यान केंद्रित कर दिया जाए; यह भी डर है कि पीक थूकने के साथ ही वह अवस्थिति नष्ट न हो जाए। और अगर चाहें कि भोजन करते जाएँ और अपनी व्यथा को समझते जाएँ तो वह तो कदापि नहीं हो सकता; यद्यपि उसका न होना हमारे लिए श्रेयस्कर नहीं है। भोजन तो आंतरिक व्यथा को एक तात्कालिक तुष्टि देता है, हम ख़ुश हो जाते हैं; अपनी व्यथा अगले भोजन तक के लिए भूल जाते हैं। इसके विरुद्ध आप कोई प्रमाण दें तो कह सकते हैं कि हम जब बहुत व्यथित होते हैं तो भोजन करने की इच्छा ही नहीं होती। वह मैं मान लूँगा और आप ही की बात के पक्ष में कहूँगा कि वह हमारी महत्ता का सूचक है। हमारी व्यथा का प्रतिकार स्वाद-तुष्टि से नहीं हो सकेगा; वह विशाल और व्यापक है, समस्त सुखों में से किसी एक के नहीं, सभी के अभाव की वह व्यथा है, फिर उसका किसी तुच्छ तुष्टि पर क्यों बलिदान कर दिया जाए। उसी मनोविज्ञान से हम दुखी होने पर भोजन नहीं करना चाहते, करते भी हैं तो कुछ सादा रूखा-सूखा, जो स्वाद के लिए नहीं, शक्ति के लिए किया जाता है।
हाँ, बात हो रही थी कि सुनना हीन है और बोलना श्रेष्ठ। हम कह चुके हैं कि इस वैज्ञानिक तथ्य को हम जानते हैं कि बोलना और सुनना एक ही क्रिया के दो भाग हैं; अपने में अलग-अलग ये सम्पूर्ण नहीं हैं। किंतु यह भी तो देखते हैं कि आज कितने ही लोग बोलना चाहते हैं मगर उन्हें बोलने नहीं दिया जाता और लोग उन्हें सुनना चाहते हैं मगर सुन नहीं पाते। यह भी देखते हैं कि कितने ही लोग बोलते हैं, और उन्हें कोई सुनता नहीं, फिर भी वह बोलते हैं। यह भी देखते हैं कि कितने ही लोग सुनना नहीं चाहते मगर उन्हें सुनना पड़ता है। अपनी बात कहूँ तो यह कह सकता हूँ कि मुझसे कोई बोलता ही नहीं किंतु यह वही चीज़ है कि मेरी कोई सुनता ही नहीं और इससे फिर यह प्रमाण मिलता है कि बोलना और सुनना एक ही क्रिया के दो भाग हैं—एक दूसरे के सापेक्ष हैं।
इस बात को और स्पष्ट किया जा सकता है; बोलना सुनने से कुछ बड़ा होते हुए भी नितांत सुनने पर आश्रित है। कोई आपसे कुछ कह रहा हो और आप सुन न रहे हों, तो सम्भव है आपको अपनी अन्यमनस्कता के लिए कुछ कटु-वचन सुनने पड़ें, या आपसे यह भी कहा जा सकता है ‘जाइए, हम आपसे नहीं बोलते।’ तब आप तुरंत सुननेवाले की पदवी से तरक़्क़ी पाकर बोलनेवाले की पदवी को प्राप्त हो जाते हैं और जब आपका उन्हें मनाना शुरू होता है तो यह भी कहते हैं कि ‘सुनो तो’, ‘सुन तो लो’, ‘अच्छा एक बात सुन लो’ और यह भी कहते जाते हैं कि ‘बोलो’, ‘बोलो तो’, ‘एक बार बोल दो।’ यह बात ग़ौर करनेवाली है कि आप बोलनेवाले के ऊँचे स्थान पर तभी तक रहते हैं जब तक उनको मानते रहते हैं, उनका मान द्रवित हुआ नहीं कि फिर आप फिर श्रोता बन गए, भले ही किसी एक ही शब्द को सुनने के लिए आपने वह अधःपतन स्वीकार किया हो।
और बहुधा वह शब्द एक छोटा-सा ‘हाँ’ या ‘नहीं’ हुआ करता है और इन्हीं दो शब्दों को सुनने या कहने के लिए बोलने और सुनने का लम्बा घात-प्रतिघात चलता है। अंत में आप यह न समझने लगें कि श्रोता के कर्तव्य की इतिश्री मात्र सुनने में है और ऐसा समझकर एक अतिरिक्त हीनभावना से आक्रांत न होने लगें, इसलिए मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि सुनने के बाद समझने का महत्वपूर्ण कार्य भी आप ही को करना है। अभी तक तो यह रमणियों के लिए कहा जाता था कि वे मौन रह जाएँ तो उसका मतलब है ‘हाँ।’ कुछ तो कहते हैं कि मौन का मतलब केवल आधा ‘हाँ’ है और जब वे ‘नहीं नहीं’ कहने लगें तब समझिए कि पूरा ‘हाँ’ हुआ। परंतु आज के युग में जहाँ आपके मत का मान तो है ही, स्त्री-पुरुषों को समान मताधिकार भी प्राप्त है, पुरुष यदि मौन रह जाएँ तो पुरुषों के लिए भी यही नियम सच उतरेगा। इतना भेद अवश्य होगा कि आप कहें ‘नहीं’ तो उसका मतलब ‘नहीं, ही होगा, ‘हाँ’ नहीं; हालाँकि ‘हाँ’ कहने से उसका मतलब ‘नहीं’ भी लगाया जा सकता है। कहता हूँ न कि सुनने से भी बड़ा है समझना। मैं कहता हूँ ‘हाँ’ (अविश्वास के साथ) ‘हाँ-हाँ,’ (टालने के लिए), ‘हाँ’ (खीझकर) ‘हाँ’ (पराजित होकर)। अब यह आपके समझने पर है कि मेरे इस ‘हाँ’ के पीछे जो ‘नहीं’ है… नहीं नहीं आप समझे नहीं, जो नहीं है उसे आप कैसे देखेंगे, मैं कह रहा हूँ कि जो ‘नहीं’ है, उसे आप देख लें।
‘हाँ’ कहने के लिए मैं मौन भी रह सकता था; मौन रहने से आप समझ तो जाते कि मैं ‘हाँ’ कह रहा हूँ परंतु मौन रहने में एक उत्तरदायित्व और निहित है और वह सुनने का उत्तरदायित्व। किसी की बात सुनना हो तो मौन रहकर सुनें। और जब भी मौन हो जाता हूँ तो लगता है कि कुछ-न-कुछ सुन रहा हूँ, किसी का कभी कहा हुआ कोई वाक्य, कभी पढ़ा हुआ कोई वक्तव्य, कहीं सुनी हुई कोई बात; कहीं देखी हुई कोई घटना—सभी इंद्रियों के क्षेत्रों से आकर मेरी प्रतीति कानों की आश्रिता हो जाती है। जो देखा था, उसकी अपनी एक अलग स्वरलिपि बन जाता है। और नहीं तो अपने अंतर की आवाज़ ही कानों में गूँज उठती है, भले ही वह अस्पष्ट हो, क्लिष्ट हो, समझ में न आती हो, और मैं एक चिरश्रोता बनकर रह जाता हूँ।
मौन और मौन में परिमाणात्मक भेद तो नहीं हो सकता… कम मौन और अधिक मौन… यह कहना ग़लत है; परंतु मौन और मौन में गुणात्मक भेद होता है। एक चुप वह है जो हज़ार को हराती है; एक चुप वह है कि कुत्ते भौंकते जाते हैं और हाथी चलते जाते हैं, एक चुप वह है कि भैंस के आगे बीन बजाए भैंस खड़ी पगुराय, एक चुप वह है जो लोग अपनी असलियत छिपाने के लिए बरतते हैं : मुँह खुला नहीं कि असलियत खुली, और एक चुप वह भी है जिसका एक उदाहरण बचपन में पढ़ी एक कविता से दे सकता हूँ जिसकी पहली पंक्ति है ‘होम दे ब्राट हर वारियर डेड’ और जिसमें सिपाही की पत्नी, पति के शव के पास मौन बैठी रह जाती है, एकांत मौन, अश्रुहीन, चित्कारहीन मौन, उस कविता की अंतिम पंक्ति मुझे याद है। जब एक अन्य स्त्री उठकर सैनिक-पत्नी के अनाथ पुत्र को उसकी गोद में बिठा देती है तब उसका कंठ फूटता है, वह कहती है ‘स्वीट माई चाइल्ड, आइ लिव फ़ॉर दी।’
यों, मौन रहना, सुनते हैं, स्वास्थ्यदायक भी होता है। मौन-व्रत रखने से वृथा नष्ट होनेवाली शक्ति संचित होती है। बात विश्वास करने योग्य है। जब मन अविश्वास और असफलता से दुर्बल हो उठे तब मौन ही शक्ति देता है। और मौन रहने का कारण यदि यह हो कि समझ में नहीं आता क्या कहें, तो थोड़ी देर मौन रहकर सोच ही लेना अच्छा है कि क्या कहें।
परंतु यदि मौन रहने का कारण यह है कि आपका विश्वास है ‘साइलैंस इज़ गोल्ड’ तो यह जान लीजिए कि बिना ज़रूरत बोल पड़ने का पश्चाताप उतना कभी नहीं होता, जितना ज़रूरत होते हुए चुप रह जाने का।
मन पछताया करता है कि मैंने यह क्यों नहीं उस समय कहा। यह इसीलिए कि बोलना ही हमारा श्रेष्ठ कर्तव्य है, अभिव्यक्ति का सरलतम माध्यम भी है, और न बोलकर हम रह नहीं सकते। आप न सुनें, वह तो सुनेंगे। वह न सुनें, वह तो सुनेंगे और इसी से निष्कर्ष निकलता है कि हम बोलें तो आप सुनें। बात काटकर बोल पड़नेवालों की बात नहीं कह रहा हूँ। वह तो सुनना नहीं चाहते; किंतु सुननेवालों का अभाव नहीं। वही जो बोलने का आदेश देते हैं, श्रोता हो जाते हैं। कोई कहे ‘जयबोलो’, कोई कहे ‘जब बोलो तब रामै राम,’ कोई कहे ‘बोल’ (डाँटकर) और आप उसके आदेश पर बोलने लगें, यह मेरा अभिप्राय नहीं।
परंतु बोलिए, बोलिए न, क्या आपको मौन रहने की सुविधा है? मैं मौन रहूँ तो पता नहीं किस अनीति की स्वीकृति दे बैठूँ; पता नहीं किस वक्ता की अवज्ञा कर बैठूँ क्योंकि मौन रहते-रहते कभी मुझे यह भी लगने लग सकता है कि आपकी बात नहीं सुन रहा हूँ और आपको शायद लगने लगे कि मेरा चुप रहना मूर्खता की निशानी है।
यह सब न भी हो तब भी मौन रहने का प्रबंध नहीं, प्रयोजन नहीं क्योंकि मौन हो जाता हूँ तो लगता है कि चारों ओर से उठ रहा है एक हाहारव और अंतर से उठ रहा है एक विद्रोह का रणघोष, और मेरे भद्दे मोटे होंठों का मौन जैसे दोनों के बीच दीवार बनकर खड़ा हो गया है। फिर भी, जानता हूँ कि मेरा बोलना आपके सुनने पर आश्रित है और इसलिए, यह समझते हुए भी कि बोलने की अनुमति आपसे नहीं ली थी, कहता हूँ कि अब आप मुझे अनुमति दीजिए।
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