‘Mere Sapne Bahut Nahi Hain’, a poem by Girija Kumar Mathur

मेरे सपने बहुत नहीं हैं
छोटी-सी अपनी दुनिया हो,
दो उजले-उजले से कमरे
जगने को, सोने को,
मोती-सी हों चुनी किताबें
शीतल जल से भरे सुनहले प्‍यालों जैसी
ठण्‍डी खिड़की से बाहर धीरे हँसती हो
तितली-सी रंगीन बग़ीची

छोटा लॉन स्‍वीट-पी जैसा,
मौलसिरी की बिखरी छितरी छाँहों डूबा
हम हों, वे हों
काव्‍य और संगीत-सिन्‍धु में डूबे-डूबे
प्‍यार भरे पंछी से बैठे
नयनों से रस-नयन मिलाए,
हिल-मिलकर करते हों
मीठी-मीठी बातें…
उनकी लटें हमारे कन्‍धों पर मुख पर
उड़-उड़ जाती हों,
सुशर्म बोझ से दबे हुए झोंकों से हिलकर
अब न बहुत हैं सपने मेरे
मैं इस मंज़िल पर आकर
सब कुछ जीवन में भर पाया।

यह भी पढ़ें: विशाल सिंह की नज़्म ‘इक कमरा’

Recommended Book:

गिरिजा कुमार माथुर
गिरिजा कुमार माथुर (२२ अगस्त १९१९ - १० जनवरी १९९४) का जन्म म०प्र० के अशोक नगर में हुआ। वे एक कवि, नाटककार और समालोचक के रूप में जाने जाते हैं।