तुम तो कहती थीं छोटा-सा
ये कमरा अपनी जन्नत थी

ये भी के इसका हर ज़र्रा
ऊपर वाले की रहमत थी

इस कमरे की लगभग हर शय
चुनचुन कर जो तुम लाईं थीं

देती हैं तुमको आवाज़ें
इक-इक शय थककर बैठी है

तुमने छत के छज्जे पर इक
नकली तितली लटकाई थी

वो तितली ख़ुद को सूरज की
किरणों से ढककर बैठी है

उस तितली को भी करना है
ग़ायब होने वाला जादू

जलती रहती है, लगता है
फिर भी के सजकर बैठी है

कुमकुम वाले हाथों से जो
छोड़े तुमने नक्शे दस्ताँ

दीवारें अब तक कानों पर
हाथों को रखकर बैठी हैं

उस ख़ाली कमरे की खिड़की
जाने क्यूँ बड़-बड़ करती है

वो ही खिड़की जिसकी हर छड़
इक रस्ता तकते बैठी है

वो ही रस्ता जिस पर चलकर
तुम आईं थीं मुद्दत पहले

हाँ वो खिड़की जिसतक आकर,
रोका करती थीं बूंदें तुम

वो ही बूंदे जिन बूंदों की
ख़ातिर तुम सजदा करती थीं

सहला-सहला दीवारों को,
तस्वीरें तुमने टांगी थीं

वो दीवारें जिन ने तुमसे,
थोड़ी सी मुहलत माँगी थी

वो दीवारें अपने ऊपर
तस्वीरों की लाशें लेकर

रह रह चिल्लाती हैं गोया,
कुछ-कुछ ख़ामोशी में अक्सर

तुम क्यूँ पर सुन ना पाती हो
आख़िर इस कमरे का नाला

तुम तो कहती थीं छोटा-सा,
ये कमरा अपनी जन्नत थी

– ‘तबरेज़’

प्रशस्त विशाल
25 अप्रैल, 2000 को भोपाल (म.प्र.) में जन्मे प्रशस्त विशाल एक युवा उद्यमकर्ता, सिविल अभियांत्रिकी छात्र व लेखक हैं । ई-मेल पता : [email protected]