सुबह
रात भर ओस में डूबी डाल पर बैठकर चिड़िया कुछ कहकर गई है।
सूर्य के ललाट से उठती किरणें धरती का तन छूती हैं और उगते फागन की केसरी रँगत गेहूँ की हरी बालियों में घुल जाती है।
रात का उनींदा चाँद धुँधले आकाश के शामियाने के कोने से लटकता दूसरी ओर बस गिरने ही को है।
एक सद्य-प्रसूत बिस्तर में माँ के स्तन ढूँढता है
उसकी मुँदी-खुली हथेलियों के कोमल आघात से माता की स्वप्न-कलिका चटकती है और उसके चेहरे पर मुस्कान खिल जाती है।
बछड़े के गले में बंधी घण्टी उसके रम्भाने की ताल पर बजती है और यह ध्वनि सकल विश्व में फैल जाती है।
मैं, उनींदा, सारी रात जागकर लिखता हूँ सवेरे का गीत
और तुम्हारा मुख चूम लेता हूँ इस सुबह कविता में सूर्य उगने से पहले।
धुआँ
बन्द कमरे में अँगीठी से उठता धुआँ इकट्ठा होता है किसी रौशन खोह में
सुलगती इच्छाओं की आँच मन के उस हिस्से को सबसे ज़्यादा सेंकती है जो सबसे चमकीला हो।
जलती चिताओं का धुआँ जम जाता है उन आँखों में जिनमें मृतक की दृष्टि की चमक रही हो
सूरज का जलना इकट्ठा होता है हर रात चन्द्रमा में और बुझ जाता है एक रात वो धुएँ और राख के ढेर में दबकर।
मेरी मृत्यु की रात मेरे आत्मीय सभी दुःख रीत गए मेरी हथेलियों से,
अगली सुबह लोग कहते पाए गए- सारी रात मैं लिखता रहा था कविताएँ।
एकान्त के स्पर्श
दूर से आती आवाज़,
जिसके स्वर स्पष्ट नहीं, बस एक गूँज है
हवा में तैरती हुई
लगता है जिस हवा पर ये सवार होकर आती है; उसी पर लौट जाती है।
एक आभास-सा है मेरे एकान्त में किसी के होने का।
एक रहस्य जैसे अँधेरा खोलता हो मुझ पर
और फिर ढक लेता हो अपने आग़ोश में।
रहस्य के इस गोपन में मैं भी अपना होना दर्ज कराता हूँ
और फिर गुम हो जाता हूँ इसी के साथ सन्नाट अँधेरे में।