इस अवसर पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि हिन्दी भाषा के उत्तरोत्तर दुरूह और अधिक संस्कृतगर्भित होने का कारण क्या है? क्या वह स्वयं प्रवृत्त होकर ऐसी बनायी जा रही है, या स्वभावतया ऐसा बन रही है, अथवा उर्दू की स्पर्धा के कारण किम्वा उससे हिन्दी की भिन्नता प्रतिपादन के लिए यह प्रणाली गृहीत हुई है? मेरा विचार है कि हिन्दी स्वभावतया कुछ अावश्यकताओं और कुछ सामयिक प्रान्तीय भाषाओं के सहयोग से वर्तमान रूप में परिणत हो रही है।
इस समय जो सर्वत्र प्रचलित हिन्दी भाषा है और जो पूर्ण व्यापक है वह पश्चिमोत्तर प्रान्त, मध्यहिन्द, बिहार, पंजाब, सिंध और राजस्थान के हिन्दी शिक्षितों में समान रूप से समझी और लिखी-पढ़ी जाती है। जितने हिन्दी के दैनिक, मासिक, साप्ताहिक, अर्द्धसाप्ताहिक, पाक्षिक अथवा त्रैमासिक पत्र आज कल किसी प्रान्त से निकलते हैं उन सबों की भाषा यही प्रचलित हिन्दी है। अधिकांश ग्रन्थ इसी भाषा में निकल रहे हैं। अनेक पारिभाषिक शब्द, हिन्दुओं का धार्मिक भाव, उनका संस्कृत-प्रेम, भाव प्रकट करने की सुविधा, उसका अभ्यास और प्रचार, सामयिक रुचि, और नाना विचार-प्रवाह इस क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं, और उच्च हिन्दी भाषा अथवा संस्कृतगर्भित हिन्दी को प्रश्रय दे रहे हैं।
हिन्दी ही के लिए नहीं, सभी प्रान्तिक भाषाओं के लिए यह बात कही जा सकती है। सभी प्रान्त आजकल संस्कृत शब्दों के व्यवहार में अग्रसर हैं, और इसका बहुत बड़ा प्रभाव एक दूसरे पर पड़ रहा है। कुछ उदाहरण देखिये-
बंगला– “इतिहासे वर्णित समयेर मध्ये भारत शासनेर न्याय सुवृहत् ओ सुमहान कार्य अन्य कोन राज्यशक्तिर हस्ते समर्पित हुयनाइ।”
मराठी– “ज्ञात कालांतील कोणत्याही संस्थानच्या किंवा साम्राज्याच्या इतिहासांत घडून न आलेली अपूर्व कामगिरी आमच्या हातून निर्विघ्न पणे तड़ीस जाण्यास।”
गुजराती– “कोई पण वखतना राज्यकर्ता तथा प्रजाने सौंपवा माँ आवेल महाभारत काम पूरा करवाने जे डहापण अने परस्पर नी लागणी नी जरूर छे ते परम कृपालु परमात्मा नी कृपा थी मजबूत बने एवी छेवटे मारी प्रार्थना छ।”
नेपाली- “त्यो सर्व-रक्षक भगवान लाइ समझेर पिस्को प्रेमभाव लाइ रक्षा गरून, कारण यो हो कि इनै बाट यौटा यस्तो सुन्दर काम फत्ते गर्नु परे कोछ, जस्तो बुद्ध समय को कुनै राज्य या साम्राज्य का राजार प्रजाले अझ सम्म गरियाका छन।”
तेलंगी– “ए कालमुनंदुनु जरगनि मा गोप्प, गंभीर मैनटुवंटि वो पुनु राज्य मेलुवारु कुन्नुवारि प्रजलकुन्नु बुंड, योक गोप्य गंभीर मैन पनिनि प्रसिद्धमुगा चेयुटकु कावलसिनवलयुनु तेलिवियुन्नु देबुङ मा किन्तु गाको।”
मलयालम्– “मनुष्यन् स्वभावेन ऐकमत्य ते अवश्य प्पे टुन्नु जीवत्, अद्वितीय परमात्मा विण्टे अंशमा कुन्नु कारणं परमात्मा विनान वृथावित्”
उड़िया–
“बरु महारण्य दुर्गम बनेरे कुटि बनाइ रहइ।
लवण विहीने कुत्सित अन्नकुवरु भोजन करइ।
वरू भल पट पिन्धिवा कुनाहि पाइ सहे दुःखतर।
किन्तु के दो प्रभो कराउतु नाँहि परसेवा कष्टकर॥”
सिंधों– “पर जे कदी घटि जी विक्तेन उन प्रान्त लाइका हानि न आहे बल्कि लाभुइ आहे । छोत उन खेपहिं जे साधारणु लिपिअजे वदिले हिक सर्वांग सुन्दर ए सर्वप्रिय लिपि प्राप्त थी पोंदी।”
पंजाबी–
“राणीं आइके पास खसम दे बैठोदिया मन धर अनुराग।
मिटर तो सिर उठा चन्द्रविच वेख रेह्याँ हैं नदी तड़ाग॥
साइन्स नै मन विच विचार के लड़ रैह्याँ हैं खूब अकलें।
तीमी पास मंजे ते बैठी वेख रही हैं घूर शकलें॥”
कनाड़ी– “आदेर ई तरह हीन स्थिति यन्तु सुधारि सुबुदु नम्म मुख्यवाद कर्तव्य बागिदे । तम्म मनस्सि तल्लिजनि सिद विचार गलन्नु वेरे व्यक्तित्र मेले प्रकटि सुबुदु भाषेय मुख्योद्देश वागिदे।”
तामिल– ”दर्शनम् समयम् मतम् एण्डू इम्यूण्डू, शोहलुम् ओरूलै पुणर्तुमवै । दर्शनमेन्वदकुंप्यो दुबाहक् काक्षियेन् बदुप्येरु लाग्रिनुम् पोलवे पेरियोरमेयरि विनाल अरिन्दविषयमेन् बदुपट्टि।” –देवनागर
लगभग भारतवर्ष में बोली जानेवाली समस्त प्रधान भाषाओं का नमूना मैंने आपके सामने उपस्थित कर दिया, आप देखेंगे कि सभी भाषाओं में संस्कृत शब्दों का प्रयोग अधिकता से हो रहा है। जो तामिल, कनाड़ी और मलयालम् स्वतंत्र भाषाएँ हैं, अर्थात् आर्य भाषा से प्रसूत नहीं हैं, उनमें भी संस्कृत शब्दों की प्रचुरता है। कारण वही है जिसको मैंने ऊपर बतलाया है। उन भाषाओं को कोई स्पर्द्धा उर्दू से नहीं है, फिर वे क्यों संस्कृतगर्भित हैं? दूसरा कोई कारण नहीं, उक्त कारण ही कारण है। जब आर्य सभ्यता का चित्रण होगा, धार्मिक सिद्धान्तों का निरूपण किया जावेगा, उनके कार्यकलाप का उद्धरण होगा, उस समय अवश्य भाषा संस्कृत गर्भित होगी, क्योंकि संस्कृत भाषा ही वह उद्गमस्थान है, जहाँ से कि इन विचारों और भावों का स्रोत प्रवाहित होता है।
इसके अतिरिक्त आज भी हिन्दुओं में संस्कृत भाषा का प्रेम है। प्रत्येक पठित हिन्दुओं में से अधिकांश कुछ न कुछ संस्कृत का ज्ञान रखते हैं, अतएव अवसर आने पर संस्कृत के प्रवचनों, वाक्यों और आदर्श ग्रन्थों के श्लोकों द्वारा वह अपनी रचनाओं को अवश्य सुसज्जित और अलंकृत करते हैं। अनेक अवस्थाओं में वे संस्कृत के प्रमाणभूत वाक्यों और श्लोकों के उद्धृत करने के लिए भी बाध्य होते हैं, क्योंकि मान्य ग्रन्थों के उद्धृत वाक्य ही उनके लेखों को प्रामाणिक बनाते हैं। अतएव इन दशाओं में भी भाषा बिना संस्कृतगर्भित हुए नहीं रहती।
गद्य लिखने में शैली की रक्षा, भाषा-सौन्दर्य, वाक्यविन्यास-पटुता और उसकी रोचकता भी कम वांछनीय नहीं होती और ये सब हेतु इतने सबल हैं कि प्रान्तिक समस्त भाषाएँ संस्कृतगर्भित हैं, और इसी सूत्र से हिन्दी भी संस्कृतगर्भित है। ये ही कारण हैं कि उर्दू भाषा भी फ़ारसी और अरबी से भरी है, और भरी रहेगी, क्योंकि वह मुसल्मानों की मुख्य भाषा है और मुसल्मानों का धार्मिक और सामाजिक संबंध उक्त दोनों भाषाओं से वैसा ही है जैसा कि हिन्दुओं का संस्कृत से। आप हिन्दी भाषा के किसी अवतरण को उठाकर प्रान्तिक भाषाओं के ऊपर के अवतरणों से मिलाइये तो उनमें बहुत कुछ साम्य मिलेगा, किन्तु उर्दू के किसी अवतरण से मिलाइयेगा तो शब्दविन्यास के विषय में दोनों में बड़ा अन्तर मिलेगा। कारण इसके स्पष्ट हैं।
जब प्रान्तिक भाषाओं और संस्कृतगर्भित हिन्दी के साम्य पर विचार किया जाता है तो यही सूचित होता है कि ऐसी ही हिन्दी का प्रचार यदि हो सकता है तो समस्त प्रान्तों में हो सकता है, क्योंकि हिन्दी के तद्भव शब्दों की अपेक्षा उसके तत्सम शब्द वहाँ आसानी से समझे जा सकते हैं। अनेक सज्जन इस विचार के हैं भी। मैंने ‘प्रियप्रवास’ को जो ऐसी हिन्दी में लिखा उसका कारण यही विचार है। इसका प्रमाण भी मुझको मिला। जितना प्रचार ‘प्रियप्रवास’ का अन्य प्रान्तों में हुआ, मेरे किसी ग्रन्थ का नहीं हुआ। इसी कारण ‘प्रियप्रवास’ की शैली का समर्थन भी हुआ। कुछ प्रमाण लीजिये। माडर्नरिव्यू-सम्पादक एक बंग विद्वान् हैं। वे प्रियप्रवास की अलोचना करते हुए लिखते हैं।
“हम आपकी शैली का अनुमोदन करते हैं, सरल न होने पर भी उसके विषय के लिए यही शैली योग्य है।”
हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध कवि पण्डित लोचनप्रसाद पाण्डेय अपने 6-5-15 के पत्र में लिखते हैं-
“अभी 26, 27 दिनों तक बाहर प्रवास में था, 10-12 दिनों तक वामण्डा (उड़ीसा) के विद्या-रसिक महाराज का अतिथि था। वहाँ राजा साहब एवं उनके यहाँ के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध साहित्यसेवीगण, पुरी से आये हुए कई एक संस्कृत के धुरन्धर पण्डित–सबों ने प्रियप्रवास की कविता सुनकर आपकी लेखनी की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। विशेष-विशेष स्थान पर तो वे बहुत ही मुग्ध हुए। कुछ अंश जो संस्कृत कवितामय कहे जा सकते हैं, उन्हें खूब रुचे।”
इन बातों पर दृष्टि डालने से यह नहीं स्वीकार किया जा सकता कि हिन्दी भाषा के राष्ट्रीय बनाने के लिए उसका सरल स्वरूप होना ही चाहिए। तथापि अधिकांश लोग इसी विचार के हैं। हों, किन्तु उनका विचार कार्य रूप में परिणत नहीं हुआ। हिन्दी का व्यापक रूप संस्कृतगर्भित भाषा ही है। मेरा विचार है कि उल्लिखित कारणों और प्रान्तिक भाषाओं के साहचर्य से यह रूप रहेगा, और स्थायी होगा।