जिस समय हिन्दी उर्दू का झगड़ा चल रहा था और एक ओर वह संस्कृत-गर्भित हो रही थी, और दूसरी ओर फ़ारसी, अरबी शब्दों से लबरेज, उस समय एक तीसरी भाषा की उत्पत्ति हुई, उसका नाम हिन्दुस्तानी है। हिन्दुस्तानी भाषा का जन्मदाता मैं उन लोगों को कह सकता हूँ, जो उक्त दोनों विचारों के विरोधी थे और जो लिखित भाषा को बोलचाल की हिन्दी के अनुकूल अथवा निकटवर्ती रखना चाहते थे। राजा शिवप्रसाद इसी विचार के थे यह मैं ऊपर लिख चुका हैं। उनके अतिरिक्त काशीपत्रिका के संचालकगण और कुछ दूसरे लोगों का भी यही सिद्धान्त था! कुछ इन लोगों की भाषाओं के नमूने देखिये-

“हम पहले भाग के आरम्भ में लिखे आये हैं कि क्या ऐसे भी मनुष्य हैं, जो अपने बापदादा और पुरुखाओं का हाल न सुनना चाहें और उनके समय में लोगों का चालचलन, व्यवहार क्या था, बनज व्यापार कैसा था, राजदरबार में किस ढब से बरता जाता था, और देश की क्या दशा थी, इन सब बातों के जानने की इच्छा न करें।
– राजा शिवप्रसाद ( इतिहास तिमिरनाशक ३ भाग पृष्ठ १)

“फ्रांस में एक पादरी साहेब गाडीनाट नामी रहते थे, जिनका नाम वहाँ वालों ने मक्खीचूस रक्खा था। उनके पास कैसा ही मुफ़लिस मुसीबत का मारा आदमी क्यों न जाय, वह एक कौड़ी भी न देते थे। अपने अंगूर के बागों का उम्दा इन्तिजाम करके उन्होंने बहुत सी दौलत जमा की। रीमस् शहर के बाशिन्दे जहाँ पादरी साहब रहते थे उनसे नफरत करते और हमेशा उनके साथ हिकारत से पेश आते थे।
– हिन्दी भाषा में प्रकाशित काशीपत्रिका के एक लेख से (पृष्ठ ४४)

ये दोनों अवतरण हिन्दुस्तानी भाषा के हैं, किन्तु फिर भी इनमें भिन्नता है। राजा शिवप्रसाद के लेख में संस्कृत तत्सम शब्द आये हैं, किन्तु काशीपत्रिका के लेख में कहीं नहीं आये। राजा साहब के लेख में फारसी, अरबी शब्द आये हैं, परन्तु कम, आवश्यकता के अनुसार। काशीपत्रिका के लेख में वे अधिकता से आये हैं। फिर भी अन्य उर्दू लेखकों की भाषा से इसमें सरलता और सादगी है। कुछ अवतरण प्रचलित हिन्दी और उर्दू के भी देखिये, उनसे आप अनुमान कर सकते हैं कि हिन्दुस्तानी भाषा में और उनमें क्या अन्तर है।

“कवि की दृष्टि उल्लास से भरकर पृथ्वी से स्वर्ग और स्वर्ग से पृथ्वी तक घूमती है, और जैसे-जैसे कल्पना अलक्ष्य को लक्ष्य करती है, वैसे-वैसे कवि उन्हें रूप देता है, और जिनका अस्तित्व तक नहीं उन्हें वह नाम रूप देकर संसार में ला देता है । –कालिदास और भवभूति, (पृष्ठ १२१)

“शाहा ने देहली के कारोबार के लिए अलफाज़ खास मुस्तेमल थे, मसलन पानी को आबहयात खाने को खासः सोने को सुख़फ़रमाना, शाहजादों के पानी को आवे खास्सः और इसी तरह हजारों इस्तिलाही अलफाज थे।”

“इन बातों पर और खसूसन उनके शेरों पर तहज़ीब आँख दिखाती है, मगर क्या कीजिये एशिया की शायरी कहती है कि यह मेरी सफाई जुबान और तर्रारी का नमक है, पस मुवर्रिख़ अगर खुसूसियत ज़बान को न जाहिर करे तो अपने फर्ज में क़ासिर है या बेखबर ।” – आबहयात  (पृष्ठ १३६-१४०)

आपने अन्तर देख लिया, दिन दिन अन्तर बढ़ता जाता है। आजकल दोनों भाषाएँ और दुरूह हो गयी हैं। ज्यों ज्यों वे दुरूह हो रही हैं, बोलचाल की भाषा से दूर पड़ती जा रही हैं। जो नमूने हिन्दी उर्दू के ऊपर दिखलाये गये हैं, उनको देख कर आप समझ सके होंगे कि इन दोनों से हिन्दुस्तानी भाषा बोलचाल के कितना समीप है। इस लिए आजकल हिन्दुस्तानी भाषा में लिखने-पढ़ने की फिर पुकार मच रही है। दो उद्देश से,-एक तो यह कि हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाना है. लोगों का विचार है कि जब तक बोलचाल की भाषा में हिन्दी न लिखी जावेगी उस समय तक वह राष्ट्रीय भाषा न हो सकेगी। दूसरे यह कि हिन्दी उर्दू का विभेद जो दिन दिन बढ़ता जाता है, उसे दूर करना है, जिसमें वह वैमनस्य नष्ट हो सके जो दोनों भाषाओं का लिखित रूप विभिन्न होने के कारण प्रतिदिन बढ़ रहा है। एक और बात है। वह यह कि जो भाषा बोलचाल की भाषा से बिलकुल दूर हो जाती है, वह काल पाकर लोप हो जाती है और उसका स्थान वह भाषा ग्रहण कर लेती है, जो बोलचाल की अधिक समीपवर्तिनी होती है। क्यों ऐसा होता है? इसका उत्तर बाबू दिनेश चन्द्र सेन बी० ए० ने अपने बंगभाषा और साहित्य संज्ञक ग्रन्थ (पृ० १४-१५) में दिया है। आप लोगों के अवलोकन के लिए उसका अनुवाद नीचे दिया जाता है-

“लिखित भाषा और कथित भाषा में कुछ व्यवधान होता है, किन्तु इस व्यवधान की सीमा है। उसका अतिक्रम होने से लिखित भाषा मर जाती है, और उसके स्थान पर कथित भाषा कुछ विशुद्ध होकर लिखित भाषा में परिणत हो जाती है। लिखित भाषा उत्तरोत्तर उन्नत होकर शिक्षित सम्प्रदाय के क्षुद्र गण्डीर में सीमाबद्ध होती है, और क्रमशः वाक्य पल्लवित करने की इच्छा और शब्दों की श्रीवृद्धि की चेष्टा से लिखित भाषा जन साधारण की अनधिगम्य हो पड़ती है। उस समय भापा-विप्लव आवश्यक हो जाता है। जब संस्कृत के साथ कथित भाषा का इसी प्रकार प्रभेद हुआ, तब कथित पालिभाषा कुछ विशुद्ध हो कर लिखित भाषा बने गयी। जब फिर प्राकृत के साथ कथित भाषा का प्रभेद अधिक हो गया तो वर्त्तमान गौड़ी भाषा कुछ परिष्कृत हो कर लिखित भाषा में परिणत हुई। व्याकरण शिशु और अज्ञ लोगों की वाणी का शासन करता है, किन्तु इसी लिए वह चिरप्रवाहशील भाषा की गति को स्थिर नहीं कर सकता। व्याकरण युग युग में भाषा का पदक स्वरूप बनकर पड़ा रह जाता है। भाषा जिस पथ से चल पड़ती है, व्याकरण उसका साक्षीमात्र है। विलुप्त माहेश व्याकरण के उपरान्त पाणिनि, उनके पश्चात् वररुचि, पुरन्दर, यास्क, और इन लोगों के बाद रूपसिद्धि, लंकेश्वर, शाकल्य, भरत, कोहल, भासह, वसन्तराज, मार्कण्डेय, मौद्गलायन, शिलावंश इत्यादि ने व्याकरण की रचना की है। पूर्ववर्ती काल में जो भाषा का दोष कहकर कीर्तित हुआ, परवर्ती काल में व्याकरण ने उसी को भाषा का नियम कहकर स्वीकृत किया। इसी लिए पाणिनि का नियम अग्राह्य करके भी महावंश और ललित-विस्तर शुद्ध परिगणित हुए, और वररुचि का नियम अस्वीकार करके भी चन्दवरदाई की रचना निन्दनीय नहीं हुई। समय के विषय में जिस प्रकार प्रातः, संध्या, रात्रि-भाषा के सम्बन्ध में उसी प्रकार संस्कृत, प्राकृत, बंगला वा हिन्दी-पूर्ववर्ती अवस्था के रूपान्तर मात्र हैं।”

हिन्दी भाषा के लिए अभी यह समय उपस्थित नहीं है, परन्तु दिन दिन वह बोलचाल से दूर पड़कर उस समय के निकट पहुँच रही है, यह कुछ लोगों का विचार है। अतएव इस दृष्टि से भी कुछ लोग उसको सरल बनाकर उसका उद्धार करना चाहते हैं। और ऐसे ही विचारवालों की सृष्टि हिन्दुस्तानी भाषा है।

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (15 अप्रैल, 1865-16 मार्च, 1947) हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। वे दो बार हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रह चुके हैं और सम्मेलन द्वारा विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किये जा चुके हैं। 'प्रिय प्रवास' हरिऔध जी का सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह हिंदी खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है और इसे मंगला प्रसाद पारितोषित पुरस्कार प्राप्त हो चुका है।