मैं शब्द खो दूँगा एक दिन
एक दिन भाषा भी चुक जाएगी मेरी
मैं बस सुना करूँगा तुम्हें
कहूँगा कुछ नहीं
जबकि याद आएगी तुम्हारी
हो जाऊँगा बरी अपने आप से
तुम भी फ़ारिग़ हो ही जाओगी एक दिन
अपने तमाम कामों से
मुझे लगेगा हर बार की तरह
कि सुनोगी तुम मुझे
किन्तु मैं, कहूँगा कुछ नहीं
कि चुकी हुई ज़ुबाँ से अर्थ ही क्या रह जाएगा कहे का
इसलिए सुनूँगा बस…
हाँ तुम कहना मत छोड़ देना,
दोनों तरफ़ का मौन भीतर से खाने लगता है!
तुम्हारा यह कहना
बना हुआ है मेरी स्मृति में—
“मौन जब खाने लगता है भीतर से
तब घाव बनकर हरे शब्द उगने लगते हैं
और सागर-तल से आकाश तक बनता जाता है
घावों की भाषा का नया शब्दकोश।”
आजकल मैं ऐसे ही किसी शब्दकोश में
रख दिया करता हूँ अपना दर्प
और सोचता रहता हूँ
कि कोई सर्प आए
निगल जाए उसे आहार समझकर
साथ में यह भी सोचता हूँ
कि स्वप्नों की लम्बी बेला में
एक और स्वप्न आए
मैं मरने की सोचकर सोऊँ
और तुम सुबह बनकर मेरी आँखें खोल दो
मुझे जगाने को, मेरे नैनों में झोंक डालो ख़ुद को।
राहुल बोयल की कविता 'अंतर्विरोधों का हल'