प्रजातंत्र का प्रजनन काल है
वयस्क प्रजा का प्रेम
मतों के गर्भ में आकार ले रहा है।
सत्ता के पैर भारी हैं
किसी पक्ष को मितली आ रही है
कोई मन खट्टा कर रहा है।
दाइयों और प्रजा के दासों के
दरम्यान दरार बढ़ रही है
पीढ़ी का संकट पीड़ा बढ़ा रहा है।
भ्रूण-भेद के अहसास के अभाव में
प्रसव से प्रथम की
अभिलाषा है।
प्रजा फिर अपने पालक को पाने तैयार है
पतन की पीड़ा को
नई परवरिश की ख्वाइश है।
जनोत्सव का जश्न
जवान हो चला है
चलो देखें! जनतंत्र ने क्या जना है।
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© मनोज मीक