माथे की आँच से
डोरा सुलगता है
मोम नहीं गलता
देह बन्द नदिया
उफनाती है
नीली फिर काली फिर श्वेत हो जाती है
दार्शनिक उँगलियों से
चितकबरे फूल नहीं
झरती है राख
असहाय होता हूँ
जब-जब रिक्त होता हूँ
प्यार करता हूँ
वहीं एक सीढ़ी है नीचे उतरकर
दुनिया कहलाने की।
सागर के नीचे दरार है
किरन कतराती है
पत्थर सरकाकर
राह निकल जाती है
हवा की चोट से
बाँस झुलस जाता है
हरा-भरा अंधकार होता हूँ
प्यार करता हूँ
वही एक शर्त है
ज़िन्दा रह जाने की।
कैलाश वाजपेयी की कविता 'मुझे नींद नहीं आती'