सबसे पहले
शुरू होता है माँ का दिन
मुँह अंधेरे
और सबके बाद तक
चलता है
छोटी होती हैं
माँ की रातें नियम से
और दिन
नियम से लम्बे
रात में दूर तक धँसे हुए
इसे कोई भी
दिन की घुसपैठ नहीं मानता
माँ की रात में
पैर सिकोड़कर
रोज़ सोती है
गुड़ी-मुड़ी माँ
बची-खुची रात में
पैर फैलाने लायक़
लम्बी भी नहीं होती
माँ की रात!
ज्योत्स्ना मिलन की कविता 'औरत'