धूल में पड़े क़ीमती पत्थर को देखकर जौहरी की आँखों में एक नयी झलक झिलमिला गई—अपरूप-रूप!

चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया की मुँह से निकल पड़ा—अपरुप-रुप!

…खेतों, मैदानों, बाग़-बग़ीचों और गाय-बैलों के बीच चरवाहा मोहना की सुंदरता!

मिरदंगिया की क्षीण-ज्योति आँखें सजल हो गईं।

मोहना ने मुस्कराकर पूछा, “तुम्हारी उँगली तो रसपिरिया बजाते टेढ़ी हो गई है, है न?”

“ऐ!” — बूढ़े मिरदंगिया ने चौंकते हुए कहा, “रसपिरिया? …हाँ …नहीं। तुमने कैसे …तुमने कहाँ सुना बे…?”

“बेटा…” कहते-कहते रुक गया। …परमानपुर में उस बार एक ब्राह्मण के लड़के को उसने प्यार से ‘बेटा’ कह दिया था। सारे गाँव के लड़कों ने उसे घेरकर मारपीट की तैयारी की थी— “बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा? मारो साले बुड्ढे को घेरकर! …मृदंग फोड़ दो।”

मिरदंगिया ने हँसकर कहा था, “अच्छा, इस बार माफ़ कर दो सरकार! अब से आप लोगों को बाप ही कहूँगा!”

बच्चे ख़ुश हो गए थे। एक दो-ढाई साल के नंगे बालक की ठुड्‌डी पकड़कर वह बोला था, “क्यों, ठीक है न बाप जी?”

बच्चे ठठाकर हँस पड़े थे।

लेकिन, इस घटना के बाद फिर कभी उसने किसी बच्चे को बेटा कहने की हिम्मत नहीं की थी। मोहना को देखकर बार-बार बेटा कहने की इच्छा होती है।

“रसपिरिया की बात किसने बतायी तुमसे? …बोलो बेटा!”

दस-बारह साल का मोहना भी जानता है, पँचकौड़ी अधपगला है। …कौन इससे पार पाए! उसने दूर मैदान में चरते हुए अपने बैलों की ओर देखा।

मिरदंगिया कमलपुर के बाबू लोगों के यहाँ जा रहा था। कमलपुर के नंदूबाबू के घराने में भी मिरदंगिया को चार मीठी बातें सुनने को मिल जाती हैं। एक-दो जून भोजन तो बँधा हुआ ही है, कभी-कभी रसचरचा भी यहीं आकर सुनता है वह। दो साल के बाद वह इस इलाक़े में आया है। दुनिया बहुत जल्दी-जल्दी बदल रही है। …आज सुबह शोभा मिसर के छोटे लड़के ने तो साफ़-साफ़ कह दिया— “तुम जी रहे हो या थेथरई कर रहे हो मिरदंगिया?”

हाँ, यह जीना भी कोई जीना है! निर्लज्जता है, और थेथरई की भी सीमा होती है। …पंद्रह साल से वह गले में मृदंग लटकाकर गाँव-गाँव घूमता है, भीख माँगता है। …दाहिने हाथ की टेढ़ी उँगली मृदंग पर बैठती ही नहीं है, मृदंग क्या बजाएगा! अब तो, ‘धा तिंग धा तिंग’ भी बड़ी मुश्किल से बजाता है। …अतिरिक्त गाँजा-भाँग सेवन से गले की आवाज़ विकृत हो गई है। किंतु मृदंग बजाते समय विद्यापति की पदावली गाने की वह चेष्टा अवश्य करेगा। …फूटी भाथी से जैसी आवाज़ निकलती है, वैसी ही आवाज़—सों-य, सों-य!

पंद्रह-बीस साल पहले तक विद्यापति नाम की थोड़ी पूछ हो जाती थी। शादी-ब्याह, यज्ञ-उपनैन, मुंडन-छेदन आदि शुभ कार्यों में विदपतिया मंडली की बुलाहट होती थी। पँचकौड़ी मिरदंगिया की मंडली ने सहरसा और पूर्णिया ज़िले में काफ़ी यश कमाया है। पँचकौड़ी मिरदंगिया को कौन नहीं जानता! सभी जानते हैं, वह अधपगला है! …गाँव के बड़े-बूढ़े कहते हैं— “अरे, पँचकौड़ी मिरदंगिया का भी एक जमाना था!”

इस ज़माने में मोहना-जैसा लड़का भी है— सुंदर, सलोना और सुरीला! …रसप्रिया गाने का आग्रह करता है, “एक रसपिरिया गाओ न मिरदंगिया!”

“रसपिरिया सुनोगे? …अच्छा सुनाऊँगा। पहले बताओ, किसने…”

“हे-ए-ए-हे-ए… मोहना, बैल भागे…!” एक चरवाहा चिल्लाया, “रे मोहना, पीठ की चमड़ी उधेड़ेगा करमू!”

“अरे बाप!” मोहना भागा।

कल ही करमू ने उसे बुरी तरह पीटा है। दोनों बैलों को हरे-हरे पाट के पौधों की महक खींच ले जाती है बार-बार। …खटमिट्ठाल पाट!

पँचकौड़ी ने पुकारकर कहा, “मैं यहीं पेड़ की छाया में बैठता हूँ। तुम बैल हाँककर लौटो। रसपिरिया नहीं सुनोगे?”

मोहना जा रहा था। उसने उलटकर देखा भी नहीं।

रसप्रिया!

विदापत नाचवाले रसप्रिया गाते थे। सहरसा के जोगेंदर झा ने एक बार विद्यापति के बारह पदों की एक पुस्तिका छपायी थी। मेले में ख़ूब बिक्री हुई थी रसप्रिया पोथी की। विदापत नाचवालों ने गा-गाकर जनप्रिया बना दिया था रसप्रिया को।

खेत के ‘आल’ पर झरजामुन की छाया में पँचकौड़ी मिरदंगिया बैठा हुआ है, मोहना की राह देख रहा है। …जेठ की चढ़ती दोपहरी में काम करनेवाले भी अब गीत नहीं गाते हैं। …कुछ दिनों के बाद कोयल भी कूकना भूल जाएगी क्या? ऐसी दोपहरी में चुपचाप कैसे काम किया जाता है! पाँच साल पहले तक लोगों के दिल में हुलास बाक़ी था। …पहली वर्षा में भीगी हुई धरती के हरे-हरे पौधों से एक ख़ास क़िस्म की गंध निकलती है। तपती दोपहरी में मोम की तरह गल उठती थी—रस की डाली। वे गाने लगते थे बिरहा, चाँचर, लगनी। खेतों में काम करते हुए गानेवाले गीत भी समय-असमय का ख़याल करके गाए जाते हैं। रिमझिम वर्षा में बारहमासा, चिलचिलाती धूप में बिरहा, चाँचर और लगनी—

“हाँ… रे, हल जोते हलवाहा भैया रे…”
खुरपी रे चलावे… म-ज-दू-र!
एहि पंथे, धनी मोरा हे रुसलि…।

खेतों में काम करते हलवाहों और मज़दूरों से कोई बिरही पूछ रहा है, कातर स्वर में—उसकी रुठी हुई धनी को इस राह से जाते देखा है किसी ने?…

अब तो दोपहरी नीरस कटती है, मानो किसी के पास एक शब्द भी नहीं रह गया है।

आसमान में चक्कर काटते हुए चील ने टिंहकारी भरी—टिं…ई…टिं-हि-क!

मिरदंगिया ने गाली दी – “शैतान!”

उसको छोड़कर मोहना दूर भाग गया है। वह आतुर होकर प्रतीक्षा कर रहा है। जी करता है, दौड़कर उसके पास चला जाए। दूर चरते हुए मवेशियों के झुंडों की ओर बार-बार वह बेकार देखने की चेष्टा करता है। सब धुँधला!

उसने अपनी झोली टटोलकर देखा—आम हैं, मूढ़ी है। …उसे भूख लगी। मोहन के सूखे मुँह की याद आयी और भूख मिट गई।

मोहना-जैसे सुंदर, सुशील लड़कों की खोज में ही उसकी ज़िन्दगी के अधिकांश दिन बीते हैं। …विदापत नाच में नाचनेवाले ‘नटुआ’ का अनुसंधान खेल नहीं। …सवर्णों के घर में नहीं, छोटी जाति के लोगों के यहाँ मोहना-जैसे लड़की-मुँहा लड़के हमेशा पैदा नहीं होते। ये अवतार लेते हैं समय-समय पर जदा जदा हि…

मैथिल ब्राह्मणों, कायस्थों और राजपूतों के यहाँ विदापतवालों की बड़ी इज़्ज़त होती थी। …अपनी बोली—मिथिलाम—में नटुआ के मुँह से ‘जनम अवधि हम रुप निहारल’ सुनकर वे निहाल हो जाते थे। इसलिए हर मंडली का ‘मूलगैन’ नटुआ की खोज में गाँव-गाँव भटकता फिरता था—ऐसा लड़का, जिसे सजा-धजाकर नाच में उतारते ही दर्शकों में एक फुसफुसाहट फैल जाए।

“ठीक ब्राह्मणी की तरह लगता है। है न?”

“मधुकांत ठाकुर की बेटी की तरह…।”

“नः! छोटी चम्पा-जैसी सुरत है!”

पँचकौड़ी गुनी आदमी है। दूसरी-दूसरी मंडली में मूलगैन और मिरदंगिया की अपनी-अपनी जगह होती है। पँचकौड़ी मूलगैन भी था और मिरदंगिया भी। गले में मृदंग लटकाकर बजाते हुए वह गाता था, नाचता था। एक सप्ताह में ही नया लड़का भाँवरी देकर परवेश में उतरने योग्य नाच सीख लेता था।

नाच और गाना सिखाने में कभी कठिनाई नहीं हुई, मृदंग के स्पष्ट ‘बोल’ पर लड़कों के पाँव स्वयं ही थिरकने लगते थे। लड़कों के ज़िद्दी माँ-बाप से निबटना मुश्किल व्यापार होता था। विशुद्ध मैथिली में और भी शहद लपेटकर वह फुसलाता…

“किसन कन्हैया भी नाचते थे। नाच तो एक गुण है। …अरे, जाचक कहो या दसदुआरी। चोरी डकैती और आवारागर्दी से अच्छा है। अपना-अपना ‘गुन’ दिखा कर लोगों को रिझाकर गुजारा करना।”

एक बार उसे लड़के की चोरी भी करनी पड़ी थी। …बहुत पुरानी बात है। इतनी मार लगी थी कि …बहुत पुरानी बात है।

पुरानी ही सही, बात तो ठीक है।

“रसपिरिया बजाते समय तुम्हारी उँगली टेढ़ी हुई थी। ठीक है न?”

मोहना न जाने कब लौट आया।

मिरदंगिया के चेहरे पर चमक लौट आयी। वह मोहना की ओर एक टकटकी लगाकर देखने लगा …यह गुणवान मर रहा है। धीरे-धीरे, तिल-तिल कर वह खो रहा है। लाल-लाल होठों पर बीड़ी की कालिख लग गई है। पेट में तिल्ली है ज़रूर!…

मिरदंगिया वैद्य भी है। एक झुंड बच्चों का बाप धीरे-धीरे एक पारिवारिक डॉक्टर की योग्यता हासिल कर लेता है। …उत्सवों के बासीटटका भोज्यान्नों की प्रतिक्रिया कभी-कभी बहुत बुरी होती। मिरदंगिया अपने साथ नमक-सुलेमानी, चानमार-पाचन और कुनैन की गोली हमेशा रखता था। …लड़कों को सदा गरम पानी के साथ हल्दी की बुकनी खिलाता। पीपल, काली मिर्च, अदरक वग़ैरह को घी में भूनकर शहद के साथ सुबह-शाम चटाता। …गरम पानी!

पोटली से मूढ़ी और आम निकालते हुए मिरदंगिया बोला, “हाँ, गरम पानी! तेरी तिल्ली बढ़ गई है, गरम पानी पियो।”

“यह तुमने कैसे जान लिया? फारबिसगंज के डागडरबाबू भी कह रहे थे, तिल्ली बढ़ गई है। दवा…।”

आगे कहने की ज़रूरत नहीं। मिरदंगिया जानता है, मोहना-जैसे लड़कों के पेट की तिल्ली चिता पर ही गलती है! क्या होगा पूछकर कि दवा क्यों नहीं करवाते!

“माँ भी कहती है, हल्दी की बुकनी के साथ रोज़ गरम पानी। तिल्ली गल जाएगी।”

मिरदंगिया ने मुस्कराकर कहा, “बड़ी सयानी है तुम्हारी माँ!”

केले के सूखे पतले पर मूढ़ी और आम रखकर उसने बड़े प्यार से कहा, “आओ, एक मुट्ठी खा लो।”

“नहीं, मुझे भूख नहीं।”

किंतु मोहना की आँखों से रह-रहकर कोई झाँकता था, मूढ़ी और आम को एक साथ निगल जाना चाहता था। …भूखा, बीमार, भगवान!

“आओ, खा लो बेटा! …रसपिरिया नहीं सुनोगे?”

माँ के सिवा, आज तक किसी अन्य व्यक्ति ने मोहना को इस तरह प्यार से कभी परोसे भोजन पर नहीं बुलाया। …लेकिन, दूसरे चरवाहे देख लें तो माँ से कह देगें। …भीख का अन्न!

“नहीं, मुझे भूख नहीं।”

मिरदंगिया अप्रतिभ हो जाता है। उसकी आँखें फिर सजल हो जाती हैं। मिरदंगिया ने मोहना-जैसे दर्ज़नों सुकुमार बालकों की सेवा की है। अपने बच्चों को भी शायद वह इतना प्यार नहीं दे सकता। …और अपना बच्चा! हूँ! …अपना-पराया? अब तो सब अपने, सब पराए।…

“मोहना!”

“कोई देख लेगा तो?”

“तो क्या होगा?”

“माँ से कह देगा। तुम भीख माँगते हो न?”

“कौन भीख माँगता है?” मिरदंगिया के आत्म-सम्मान को इस भोले लड़के ने बेवजह ठेस लगा दी। उसके मन की झाँपी में कुडंलीकार सोया हुआ साँप फन फैलाकर फुफकार उठा, “ए-स्साला! मारेंगे वह तमाचा कि…”

“ऐ! गाली क्यों देते हो!” मोहना ने डरते-डरते प्रतिवाद किया।

वह उठ खड़ा हुआ, पागलों का क्या विश्वास।

आसमान में उड़ती हुई चील ने फिर टिंहकारी भरी …टिंही …ई …टिं-टिं-ग!

“मोहना!” मिरदंगिया की अवाज़ गम्भीर हो गई।

मोहना ज़रा दूर जाकर खड़ा हो गया।

“किसने कहा तुमसे कि मैं भीख माँगता हूँ? मिरदंग बजाकर, पदावली गाकर, लोगों को रिझाकर पेट पालता हूँ। …तुम ठीक कहते हो, भीख का ही अन्न है यह। भीख का ही फल है यह। …मैं नहीं दूँगा। …तुम बैठो, मैं रसपिरिया सुना दूँ।”

मिरदंगिया का चेहरा धीरे-धीरे विकृत हो रहा है। …आसमान में उड़नेवाली चील अब पेड़ की डाली पर आ बैठी है। …टिं-टिं-हिं टिंटिक!

मोहना डर गया। एक डग, दो डग …दे दौड़। वह भागा।

एक बीघा दूर जाकर उसने चिल्लाकर कहा, “डायन ने बान मारकर तुम्हारी उँगली टेढ़ी कर दी है। झूठ क्यों कहते हो कि रसपिरिया बजाते समय…”

“ऐं! कौन है यह लड़का? कौन है यह मोहना? …रमपतिया भी कहती थी, डायन ने बान मार दिया है।”

“मोहना!”

मोहना ने जाते-जाते चिल्लाकर कहा, “करैला!”

अच्छा, तो मोहना यह भी जानता है कि मिरदंगिया ‘करैला’ कहने से चिढ़ता है! …कौन है यह मोहना?

मिरदंगिया आतंकित हो गया। उसके मन में एक अज्ञात भय समा गया। वह थर-थर काँपने लगा। उसमें कमलपुर के बाबुओं के यहाँ जाने का उत्साह भी नहीं रहा। …सुबह शोभा मिसर के लड़के ने ठीक ही कहा था।

उसकी आँखों में आँसू झरने लगे।

जाते-जाते मोहना डंक मार गया। उसके अधिकांश शिष्यों ने ऐसा ही व्यवहार किया है उसके साथ। नाच सीखकर फुर्र से उड़ जाने का बहाना खोजनेवाले एक-एक लड़के की बातें उसे याद हैं।

सोनमा ने तो गाली ही दी थी— “गुरुगिरी कहता है, चोट्टा!”

रमपतिया आकाश की ओर हाथ उठाकर बोली थी— “हे दिनकर! साच्छी रहना। मिरदंगिया ने फुसलाकर मेरा सर्वनाश किया है। मेरे मन में कभी चोर नहीं था। हे सुरुज भगवान! इस दसदुआरी कुत्ते का अंग-अंग फूटकर…।”

मिरदंगिया ने अपनी टेढ़ी उँगली को हिलाते हुए एक लम्बी साँस ली। …रमपतिया? जोधन गुरुजी की बेटी रमपतिया! जिस दिन वह पहले-पहल जोधन की मंडली में शामिल हुआ था—रमपतिया बारहवें में पाँव रख रही थी। …बाल-विधवा रमपतिया पदों का अर्थ समझने लगी थी। काम करते-करते वह गुनगुनाती— ‘नव अनुरागिनी राधा, किछु नाँहि मानय बाधा।’ …मिरदंगिया मूलगैनी सीखने गया था और गुरु जी ने उसे मृदंग थमा दिया था… आठ वर्ष तक तालीम पाने के बाद जब गुरु जी ने स्वजात पँचकौड़ी से रमपतिया के चुमौना की बात चलायी तो मिरदंगिया सभी ताल-मात्रा भूल गया। जोधन गुरु जी से उसने अपनी जात छिपा रखी थी। रमपतिया से उसने झूठा परेम किया था। गुरु जी की मंडली छोड़कर वह रातों-रात भाग गया। उसने गाँव आकर अपनी मंडली बनायी, लड़कों को सिखाया-पढ़ाया और कमाने-खाने लगा। …लेकिन, वह मूलगैन नहीं हो सका कभी। मिरदंगिया ही रहा सब दिन। …जोधन गुरु जी की मृत्यु के बाद, एक बार गुलाब-बाग़ मेले में रमपतिया से उसकी भेंट हुई थी। रमपतिया उसी से मिलने आयी थी। पँचकौड़ी ने साफ़ जवाब दे दिया था— “क्या झूठ-फरेब जोड़ने आयी है? कमलपुर के नंदूबाबू के पास क्यों नहीं जाती, मुझे उल्लू बनाने आयी है। नंदूबाबू का घोड़ा बारह बजे रात को…।”

चीख़ उठी थी रमपतिया— “पाँचू! …चुप रहो!”

उसी रात रसपिरिया बजाते समय उसकी उँगली टेढ़ी हो गई थी। मृदंग पर जमनिका देकर वह परबेस का ताल बजाने लगा। नटुआ ने डेढ़ मात्रा बेताल होकर प्रवेश किया तो उसका माथा ठनका। परबेस के बाद उसने नटुआ को झिड़की दी— “एस्साला! थप्पड़ों से गाल लाल कर दूँगा।” …और रसपिरिया की पहली कड़ी ही टूट गई।

मिरदंगिया ने ताल को सम्भालने की बहुत चेष्टा की। मृदंग की सूखी चमड़ी जी उठी, दाहिने पूरे पर लावा-फरही फूटने लगे और तल कटते-कटते उसकी उँगली टेढ़ी हो गई। झूठी टेढ़ी उँगली! …हमेशा के लिए पँचकौड़ी की मंडली टूट गई। धीरे-धीरे इलाक़े से विद्यापति-नाच ही उठ गया। अब तो कोई भी विद्यापति की चर्चा भी नहीं करते हैं। …धूप-पानी से परे, पँचकौड़ी का शरीर ठंडी महफिलों में ही पनपा था… बेकार ज़िन्दगी में मृदंग ने बड़ा काम दिया। बेकारी का एकमात्र सहारा—मृदंग!

एक युग से वह गले में मृदंग लटकाकर भीख माँग रहा है—धा-तिंग, धा-तिंग!

वह एक आम उठाकर चूसने लगा—लेकिन, लेकिन, …लेकिन …मोहना को डायन की बात कैसे मालूम हुई?

उँगली टेढ़ी होने की ख़बर सुनकर रमपतिया दौड़ी आयी थी, घंटों उँगली को पकड़कर रोती रही थी— “हे दिनकर, किसने इतनी बड़ी दुश्मनी की? उसका बुरा हो। …मेरी बात लौटा दो भगवान! गुस्से में कही हुई बातें। नहीं, नहीं। पाँचू, मैंने कुछ भी नहीं किया है। जरूर किसी डायन ने बान मार दिया है।”

मिरदंगिया ने आँखें पोंछते हुए सूरज की ओर देखा। …इस मृदंग को कलेजे से सटाकर रमतपिया ने कितनी रातें काटी हैं! …मिरदंग को उसने अपने छाती से लगा लिया।

पेड़ की डाली पर बैठी हुई चील ने उड़ते हुए जोड़े से कहा—टिं-टिं-हिंक्‌!

“एस्साला!” उसने चील को गाली दी। तम्बाकू चुनियाकर मुँह में डाल ली और मृदंग के पूरे पर उँगलियाँ नचाने लगा—धिरिनागि, धिरिनागि, धिरिनागि-धिनता!

पूरी जमनिका वह नहीं बजा सका। बीच में ही ताल टूट गया।

अ‌‌‌-कि-हे-ए-ए-हा-आआ-ह-हा!

सामने झरबेरी के जंगल के उस पार किसी ने सुरीली आवाज़ में बड़े समारोह के साथ रसप्रिया की पदावली उठायी—

“न-व-वृंदा-वन, न-व-न-व-तरु-ग-न, न-व-नव विकसित फूल…”

मिरदंगिया के सारे शरीर में एक लहर दौड़ गई, उसकी उँगलियाँ स्वयं ही मृदंग के पूरे पर थिरकने लगीं। गाय-बैलों के झुंड दोपहर की उतरती छाया में आकर जमा होने लगे।

खेतों में काम करनेवालों ने कहा, “पागल है। जहाँ जी चाहा, बैठकर बजाने लगता है।”

“बहुत दिन के बाद लौटा है।”

“हम तो समझते थे कि कहीं मर-खप गया।”

रसप्रिया की सुरीली रागिनी ताल पर आकर कट गई। मिरदंगिया का पागलपन अचानक बढ़ गया। वह उठकर दौड़ा। झरबेरी की झाड़ी के उस पार कौन है? कौन है यह शुद्ध रसप्रिया गानेवाला? इस ज़माने में रसप्रिया का रसिक…? झाड़ी में छिपकर मिरदंगिया ने देखा, मोहना तन्मय होकर दूसरे पद की तैयारी कर रहा है। गुनगुनाहट बंद करके उसने गले को साफ़ किया। मोहना के गले में राधा आकर बैठ गई है! …क्या बंदिश है!

“न-वी-वह नयनक नी…र!
आहो…पललि बहए ताहि ती…र!”

मोहना बेसुध होकर गा रहा था। मृदंग के बोल पर वह झूम-झूमकर गा रहा था। मिरदंगिया की आँखें उसे एकटक निहार रही थीं और उसकी उँगलियाँ फिरकी की तरह नाचने को व्याकुल हो रही थीं। …चालीस वर्ष का अधपागल युगों के बाद भावावेश में नाचने लगा। …रह-रहकर वह अपनी विकृत आवाज़ में पदों की कड़ी धड़ता—फोंय-फोंय, सोंय-सोंय!

धिरिनागि-धिनता!

“दुहु रस…म…य तनु-गुने नहीं ओर।
लागल दुहुक न भाँगय जो-र।”

मोहना के आधे काले और आधे लाल होंठों पर नयी मुस्कराहट दौड़ गई। पद समाप्त। करते हुए वह बोला, “इस्स! टेढ़ी उँगली पर भी इतनी तेज़ी?”

मोहना हाँफने लगा। उसकी छाती की हड्डियाँ!

…उफ़! मिरदंगिया धम्म से ज़मीन पर बैठ गया— “कमाल! कमाल! …किससे सीखे? कहाँ सीखी तुमने पदावली? कौन है तुम्हारा गुरु?”

मोहना ने हँसकर जवाब दिया, “सीखूँगा कहाँ? माँ तो रोज़ गाती है। …प्रातकी मुझे बहुत याद है, लेकिन अभी तो उसका समय नहीं।”

“हाँ बेटा! बेताले के साथ कभी मत गाना-बजाना। जो कुछ भी है, सब चला जाएगा। …समय-कुसमय का भी खयाल रखना। लो, अब आम खालो।”

मोहना बेझिझक आम लेकर चूसने लगा।

“एक और लो।”

मोहना ने तीन आम खाए और मिरदंगिया के विशेष आग्रह पर दो मुट्ठी मूढ़ी भी फाँक गया।

“अच्छा, अब एक बात बताओगे मोहना! तुम्हारे माँ-बाप क्या करते हैं?”

“बाप नहीं है, अकेली माँ है। बाबू लोगों के घर कुटाई-पिसाई करती है।”

“और तुम नौकरी करते हो! किसके यहाँ?”

“कमलपुर के नंदूबाबू के यहाँ।”

“नंदूबाबू के यहाँ?”

मोहना ने बताया उसका घर सहरसा में है। तीसरे साल सारा गाँव कोसी मैया के पेट में चला गया। उसकी माँ उसे लेकर अपने ममहर आयी है… कमलपुर।

“कमलपुर में तुम्हारी माँ के मामू रहते हैं?”

मिरदंगिया कुछ देर तक चुपचाप सूर्य की ओर देखता रहा। …नंदूबाबू—मोहना—मोहना की माँ!

“डायनवाली बात तुम्हारी माँ कह रही थी?”

“हाँ।”

“और एक बार सामदेव झा के यहाँ जनेऊ में तुमने गिरधर-पटटी मडंलीवालों का मिरदंग छीन लिया था। …बेताला बजा रहा था। ठीक है न?”

मिरदंगिया की खिचड़ी दाढ़ी मानो अचानक सफ़ेद हो गई। उसने अपने को सम्भालकर पूछा, “तुम्हारे बाप का नाम क्या है?”

“अजोधादास!”

“अजोधादास?”

बूढ़ा अजोधादास, जिसके मुँह में न बोल, न आँख में लोर। …मंडली में गठरी ढोता था। बिना पैसा का नौकर बेचारा अजोधादास!

“बड़ी सयानी है तुम्हारी माँ।” एक लम्बी साँस लेकर मिरदंगिया ने अपनी झोली से एक छोटा बटुआ निकला। लाल-पीले कपड़ों के टुकड़ों को खोलकर काग़ज़ की एक पुड़िया निकाली उसने।

मोहना ने पहचान लिया— “लोट? क्या है, लोट?”

“हाँ, नोट है।”

“कितने रुपएवाला है? पचटकिया। ऐं… दसटकिया? जरा छूने दोगे? कहाँ से लाए?” मोहना एक ही साँस में सब कुछ पूछ गया, “सब दसटकिया हैं?”

“हाँ, सब मिलाकर चालीस रुपए हैं।” मिरदंगिया ने एक बार इधर-उधर निगाहें दौड़ायीं, फिर फुसफुसाकर बोला, “मोहना बेटा! फारबिसगंज के डागडरबाबू को देकर बढ़िया दवा लिखा लेना। …खट्ट-मिट्ठा परहेज करना। …गरम पानी जरूर पीना।”

“रुपए मुझे क्यों देते हो?”

“जल्दी रख ले, कोई देख लेगा।”

मोहना ने भी एक बार चारों ओर नज़र दौड़ायी। उसके होंठों की कालिख और गहरी हो गई।

मिरदंगिया बोला, “बीड़ी-तम्बाकू भी पीते हो? खबरदार!”

वह उठ खड़ा हुआ।

मोहना ने रुपए ले लिए।

“अच्छी तरह गाँठ बाँध ले। माँ से कुछ मत कहना।”

“और हाँ, यह भीख का पैसा नहीं। बेटा, यह मेरी कमाई के पैसे हैं। अपनी कमाई के…।”

मिरदंगिया ने जाने के लिए पाँव बढ़ाया।

“मेरी माँ खेत में घास काट रही है। चलो न!” मोहना ने आग्रह किया।

मिरदंगिया रुक गया। कुछ सोचकर बोला, “नहीं मोहना! तुम्हारे-जैसा गुणवान बेटा पाकर तुम्हारी माँ ‘महारानी’ हैं, मैं महाभिखारी दसदुआरी हूँ। जाचक, फकीर…! दवा से जो पैसे बचें, उसका दूध पीना।”

मोहना की बड़ी-बड़ी आँखें कमलपुर के नंदूबाबू की आँखों-जैसी हैं…।

“रे-मो-ह-ना-रे-हे! बैल कहाँ हैं रे?”

“तुम्हारी माँ पुकार रही है शायद।”

“हाँ। तुमने कैसे जान लिया?”

“रे-मोहना-रे-हे!”

एक गाय ने सुर-में-सुर मिलाकर अपने बछड़े को बुलाया।

गाय-बैलों के घर लौटने का समय हो गया। मोहना जानता है, माँ बैल हाँककर ला रही होगी। झूठमूठ उसे बुला रही है। वह चुप रहा।

“जाओ।” मिरदंगिया ने कहा, “माँ बुला रही है। जाओ। …अब से मैं पदावली नहीं, रसपिरिया नहीं, निरगुन गाऊँगा। देखो, मेरी उँगली शायद सीधी हो रही है। शुद्ध रसपिरिया कौन गा सकता है आजकल?…”

“अरे, चलू मन, चलू मन—ससुरार जइवे हो रामा,
कि आहो रामा,
नैहिरा में अगिया लगायब रे-की…।”

खेतों की पगडंडी, झरबेरी के जंगल के बीच होकर जाती है। निरगुन गाता हुआ मिरदंगिया झरबेरी की झाड़ियों में छिप गया।

“ले। यहाँ अकेला खड़ा होकर क्या करता है? कौन बजा रहा था मृदंग रे?” घास का बोझा सिर पर लेकर मोहना की माँ खड़ी है।

“पँचकौड़ी मिरदंगिया।”

“ऐं, वह आया है? आया है वह?” उसकी माँ ने बोझ ज़मीन पर पटकते हुए पूछा।

“मैंने उसके ताल पर रसपिरिया गाया है। कहता था, इतना शुद्ध रसपिरिया कौन गा सकता है आजकल! …उसकी उँगली अब ठीक हो जाएगी।”

माँ ने बीमार मोहना को आह्लाद से अपनी छाती से सटा लिया।

“लेकिन तू तो हमेशा उसकी टोकरी-भर शिकायत करती थी—बेईमान है, गुरु-दरोही है, झूठा है!”

“है तो! वैसे लोगों की संगत ठीक नहीं। खबरदार, जो उसके साथ फिर कभी गया! दसदुआरी जाचकों से हेलमेल करके अपना ही नुकसान होता है। …चल, उठा बोझ!”

मोहना ने बोझ उठाते समय कहा, “जो भी हो, गुनी आदमी के साथ रसपिरिया…।”

“चौप! रसपिरिया का नाम मत ले।”

अजीब है माँ! जब गुस्साएगी तो वाघिन की तरह और जब खुश होती है तो गाय की तरह हुँकारती आएगी और छाती से लगा लेगी। तुरत खुश, तुरत नाराज…

दूर से मृदंग की आवाज़ आयी—धा-तिंग, धा-तिंग!

मोहना की माँ खेत की ऊबड़-खाबड़ मेड़ पर चल रही थी। ठोकर खाकर गिरते-गिरते बची। घास का बोझ गिरकर खुल गया। मोहना पीछे-पीछे मुँह लटकाकर जा रहा था। बोला, “क्या हुआ, माँ?”

“कुछ नहीं।”

धा-तिंग, धा-तिंग!

मोहना की माँ खेत की मेड़ पर बैठ गई। जेठ की शाम से पहले जो पुरवैया चलती है, धीरे-धीरे तेज़ हो गई …मिटटी की सुंगध हवा में धीरे-धीरे घुलने लगी।

धा-तिंग, धा-तिंग!

“मिरदंगिया और कुछ बोलता था, बेटा?” मोहना की माँ आगे कुछ बोल न सकी।

“कहता था, तुम्हारे-जैसा गुणवान बेटा…”

“झूठा, बेईमान!” मोहना की माँ आँसू पोंछकर बोली, “ऐसे लोगों की संगत कभी मत करना।”

मोहना चुपचाप खड़ा रहा।

फणीश्वरनाथ रेणू की कहानी 'पंचलैट'

Book by Phanishwarnath Renu:

फणीश्वरनाथ रेणू
फणीश्वर नाथ 'रेणु' (४ मार्च १९२१ औराही हिंगना, फारबिसगंज - ११ अप्रैल १९७७) एक हिन्दी भाषा के साहित्यकार थे। इनके पहले उपन्यास मैला आंचल को बहुत ख्याति मिली थी जिसके लिए उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।