‘Samajh’, a poem by Anurag Tiwari
मैंने तुम्हें बड़ी बेतरतीबी से पढ़ा
एकदम हड़बड़ी में
किसी दिलचस्प किताब को
जल्दी पढ़ने के लालच में होने की तरह,
मैं बहुत जल्दी में था यह कहने को
कि किताब मैंने पढ़ ली, किताब मेरी हुई
कभी पीछे का कोई पन्ना
कभी बीच का
जहाँ से पढ़ा वहीं से मन लग गया,
ज़ाहिर है तुम दिलचस्पी की हद से ज़्यादा दिलचस्प थीं
और आख़िर मैं कहने लग गया
कि मैंने तुम्हें पूरा पढ़ डाला
जबकि मुझे तुम्हारी प्रस्तावना को खोदना था
वहाँ तुम्हें ठीक से समझने के इशारे
जीवाश्म की तरह मिलते
किताब के बीच और आख़िरी के पन्ने
उसके ख़ुद के हिमशैल की सिर्फ़ नोक हैं
असल किताब दबी होती है
उसकी शुरुआत के समन्दर में
कभी-कभी हम ज़बरदस्ती अर्जुन बन जाते हैं
और देखते रह जाते हैं केवल पक्षी की आँख
नहीं देखते कि पक्षी की आँख क्या देखती है!
और देखते-देखते पक्षी कब अपना पेड़ बदल लेता है
हम नहीं देख पाते
हम अपने प्रेम को ख़ुद छलते हैं
युधिष्ठिर की तरह
जिसे सच कहते हैं, वह आधा होता है
जो आधा झूठ कहते हैं, वह झूठ नहीं निकलता।
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