‘Prem Vikriti Nahi’, a poem by Ruchi

जब मैंने कहा मुझे प्रेम करना पसन्द है
तो किसी ने बदचलन समझा,
किसी को आसानी से उपलब्ध समझ में आया,
किसी ने मेरे वैवाहिक सम्बन्धों को तोला
तो किसी ने मन की विकृति बतलाया।
अफ़सोस ज़ाहिर किया मेरे अपनों ने,
हमदर्दी दिखायी, और बड़े ही प्रेम से,
मेरी पसन्द को बदल देना चाहा।

मुझे कुछ लोगों ने बतलाया,
ये बातें दबे ढके करनी चाहिए,
कुछ ने ये पति से विश्वासघात,
तो कुछ ने बच्चों के प्रति,
ग़ैरज़िम्मेदाराना बतलाया।
किसी ने उम्र का लिहाज़ करना,
आँखों की शर्म, तो किसी ने
औरत की मर्यादा सिखायी।

मैंने बहुत सोचा, समझने की कोशिश की,
तो जाना मेरी तो नींव ही ग़लत पड़ी।
बचपन में माँ ने सिखलाया,
भाई बहन से प्यार करो,
पिता पर अनजाने ही नेह आया,
दादी, बाबा, चाचा, बुआ, नाते रिश्ते,
दोस्त, पड़ोसी और तो और बूढ़े भिखारी
की ओर भी प्यार से ही हाथ बढ़वाया।
प्रकृति से, जीव जन्तुओं से,
देश से, नैतिकताओं से,
प्यार का सबक़ टीचर ने सिखाया।
किताबों, बुज़ुर्गों, रोगियों और दीन दुखियों,
पर प्यार प्रेमचंद की बूढ़ी काकी,
क्रय्यू और शेक्सपियर से आया।

फिर सीखा मैंने मुस्कुराहट से प्यार करना,
धीरे-धीरे हँसते चेहरे लुभाने लगे,
तिक्तता भूल, जीने की लालसा जगाने लगे।
बहुत प्यार था मेरे पास देने के लिए,
ख़ूब लुटाया, ससुराल, मायके, रिश्तों में,
सबको मिला, किसी ने सराहा,
तो किसी को रास ना आया।
फिर इक दिन अचानक मुझे,
ख़ुद पर प्यार आया,
मैंने अपनी ओर स्नेहिल हाथ बढ़ाया।

तमाम प्रेम के प्रतिमान धराशायी हुए,
किसी ने इसे स्वार्थ तो किसी ने विकार बताया।
मुझे समझाया जाने लगा,
प्रेम की सीमाएँ, प्राथमिकताएँ,
अनिवार्यताएँ, वर्जनाएँ।
अस्वीकार्य था सबको,
मेरा स्वयं से प्रेम करना।

किसी को मेरी सेवाओं में कमी लगने लगी,
तो किसी को मेरा आलिंगन शिथिल लगने लगा,
किसी को मेरी गोद में सुकून कम लगा,
तो किसी को मेरे संग भय लगने लगा।
मुझे बताया जाने लगा,
प्रेम बस अपनों से किया जाना चाहिए,
स्वयं से नहीं,
प्रेम करने की ठोस वजह होनी चाहिए,
बेवजह नहीं,
प्रेम में प्रेम कम भले हो
पर अभिनय श्रेष्ठ होना चाहिए।

मैं अपनी आने वालो पीढ़ियों को सिखाऊँगी,
सबसे पहले स्वयं से प्रेम करना,
प्रेम में विशुद्धता रखना,
प्रेम की मुहर आत्मा पर लगाना।
मैं बतलाऊँगी,
प्रेम विकृति नहीं…
जब साकार ना हो सका,
कोई स्वप्न,
तो विकार हमने बनाया।

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