सईदा के घर तन्दूर पर सिकी रोटियाँ
मैं रोज़ खाती प्याज़ और भुने आलू के साथ
मैं और सईदा मेरी प्यारी सहेली—
हम जाते गलियों से होते हुए
बाज़ार की सर्द सब्ज़ी मण्डी की ओर
अम्मा बेचती फूलों से लदी टोकरी
और बड़ी अम्मी के पास होते चने कुरमुरे
सईदा और मैं रोज़ सुनते
बाबू की पानवाली गली से
कितने ही बदबख़्त चेहरों की हँसी
दुपट्टे को मुँह में रख ख़ुद की हँसी रोकना
कितना मुश्किल होता उस वक़्त
सिगरेट का धुआँ, पान की पीक,
कीचड़ से सनी सड़कें
मैं और सईदा सबसे बेख़बर
रचाते मेंहदी और गाते टप्पे
धिन-धिन की ताल पर कितना मज़ा आता था

फिर इक रोज़ बाज़ार का शोर गली तक पहुँचा
और भीड़ भरी आँधी सईदा के अब्बा को
चाक़ू से चाक कर गयी
सईदा की अम्मी रोती रही, चीख़ती रही
सईदा गुमसुम देखती रही वह सब
और हम सब— मैं, मेरी अम्मा, बाबा गुल्लू के साथ चुप
अपने दड़बों में बन्द
सुनते रहे शोर भीड़ का
सुनते रहे चिल्लाना सईदा की अम्मी का

कल के बाद आज रौशनी के साथ
दूर गाँव से आया सईदा का मामा
और जाते देखा अम्मी को सईदा के साथ
जाते समय रोयी सईदा, रोयी मैं भी
रोयीं बड़ी अम्मी, रोयीं अम्मा

आज के बाद न तन्दूर पर सिकी रोटियाँ
न मेंहदी रचे हाथ
न धिन-धिन की ताल पर टप्पे

अम्मा कहती हैं सर पर दुप्पटा ओढ़कर चलो
आदमी ज़ात का कोई भरोसा नहीं।