मैंने जब स्त्री को जाना,
वो काट चुकी थी
गेहूँ की बालियाँ, गले की हँसुली
उठा चुकी थी हाथ में वेद,
प्रश्न कर चुकी थी
समाज की विकृतियों पर
वो हो आई थी आसमान तक
जहाँ बरसों से उसे प्रेमिका बनाकर
रखा गया था नमूने की तरह

मैंने जब स्त्री को जाना
वो बन चुकी थी जननी,
प्रेयसी, शासिका, शिक्षिका…

लेकिन मैं नहीं जान पाया अब तक
कि अभी तक विलुप्त क्यूँ नहीं हुआ
पुरुष की पौरुषता का दम्भ?
क्या स्त्री सम्भाले हुए है उसे अब तक,
अपने सबल हाथ और कोमल हृदय के साथ?