स्त्रियाँ घर लौटती हैं
पश्चिम के आकाश में
आकुल वेग से उड़ती हुई
काली चिड़ियों की पाँत की तरह।

स्त्रियों का घर लौटना
पुरुषों का घर लौटना नहीं है,
पुरुष लौटते हैं बैठक में, फिर ग़ुसलखाने में
फिर नींद के कमरे में
स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है
वो एक साथ, आँगन से
चौके तक लौट आती है।

स्त्री बच्चे की भूख में
रोटी बनकर लौटती है
स्त्री लौटती है दाल भात में,
टूटी खाट में,
जतन से लगायी मसहरी में,
वो आँगन की तुलसी और कनेर में लौट आती है।

स्त्री है… जो प्रायः स्त्री की तरह नहीं लौटती
पत्नी, बहन, माँ या बेटी की तरह लौटती है

स्त्री है… जो बस रात की
नींद में नहीं लौट सकती
उसे सुबह की चिन्ताओं में भी
लौटना होता है।
स्त्री, चिड़िया-सी लौटती है
और थोड़ी मिट्टी
रोज़ पंजों में भर लाती है
और छोड़ देती है आँगन में,
घर भी, एक बच्चा है स्त्री के लिए
जो रोज़ थोड़ा और बड़ा होता है।

लौटती है स्त्री, तो घास आँगन की
हो जाती है थोड़ी और हरी,
कबेलू छप्पर के हो जाते हैं ज़रा और लाल
दरअसल एक स्त्री का घर लौटना
महज़ स्त्री का घर लौटना नहीं है
धरती का अपनी धुरी पर लौटना है।

कविता संग्रह 'स्त्रियाँ घर लौटती हैं' से अन्य कविताएँ

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Striyaan Ghar Lautti Hain - Vivek Chaturvedi

विवेक चतुर्वेदी
जन्मतिथि: 03-11-1969 | शिक्षा: स्नातकोत्तर (ललित कला) | निवास: विजय नगर, जबलपुर सम्पर्क: [email protected]