आप जो सोच रहे हैं, वही सही है
मैं जो सोचना चाहता हूँ, वह ग़लत है
सामने से आपका सर्वसम्मत व्यवस्थाएँ देना सही है
पिछली कतारों में जो मेरी छिछोरी ‘क्यों’ है, वह ग़लत है
मेरी वजह से आपको असुविधा है, यह सही है
हर खेल बिगाड़ने की मेरी ग़ैरज़िम्मेदार हरकत ग़लत है
अन्धियारी गोल मेज़ के सामने मुझे पेश किया जाना सही है
रौशनी में चेहरे देखने की मेरी दरख़्वास्त ग़लत है
आपने जो सज़ा तजवीज़ की है, सही है
मेरा यह इक़बाल भी चूँकि चालाकी-भरा है, ग़लत है
आपने जो किया है, वह मानवीय प्रबन्ध सही है
दीवार की ओर पीठ करने का मेरा ही तरीक़ा ग़लत है
उन्हें इशारे के पहले मेरी एक ख़्वाहिश की मंज़ूरी सही है
मैंने जो इस वक़्त भी हँस लेना चाहा है, ग़लत है!
विष्णु खरे की कविता 'अकेला आदमी'