मुझे लग रहा था कि जिसका मुझे डर था, वही होने जा रहा है। और अफसोस यह कि मैं कोशिश भी करूँ तो उसे रोक नहीं सकता। मैंने कई प्रयत्न किए कि पत्नी मेरी तरफ देख लें ताकि इशारे-ही-इशारे में उन्हें खामोश रहने का इशारा कर दूँ, लेकिन वे लगातार वी.आई.पी. से बातें किए जा रही थीं! मेरे सामने कुछ दूसरे अतिथि खड़े थे, जिन्हें छोड़कर मैं एकदम से पत्नी और वी.आई.पी. की तरफ नहीं जा सकता था। प्रयास करता हुआ जब तक मैं वहाँ पहुँचा तो पत्नी वी.आई.पी. से ‘उसी’ के बारे में बात कर रही थीं। धाराप्रवाह बोल रही थीं। मैं शर्मिंदा हुआ जा रहा था। जब मुझसे खामोश न रहा गया तो बोला, “अरे छोड़ो, ठीक हो जाएगा।”

पत्नी गुस्से में बोली, “आपको क्या है, सुबह घर से निकल जाते हैं तो रात ही में वापस आते हैं। जो दिन-भर घर में रहता हो उससे पूछिए कि क्या गुज़रती है।”

यह कहकर पत्नी फिर ‘उसके’ बारे में शुरू हो गईं। मैं दिल-ही-दिल में सोचने लगा कि पत्नी पागल नहीं तो, हद दर्जे की बेवकूफ ज़रूर है जो इतने बड़े, महत्वपूर्ण और प्रभावशाली वी.आई.पी. से शिकायत भी कर रही है तो ये कि देखिए हमारे घर के सामने नाला बहता है, उसमें से बदबू आती है, उसमें सुअर लौटते हैं, उसमें आसपास वाले भी निगाह बचाकर गंदगी फेंक जाते हैं, नाले को कोई साफ नहीं करता। सैंकड़ों बार शिकायतें दर्ज कराई जा चुकी हैं। एक बार तो किसी ने मरा हुआ इतना बड़ा चूहा फेंक दिया था। वह पानी में फूलकर आदमी के बच्चे जैसा लगने लगा था।

यह सच है कि हमने घर के सामने वाले नाले की शिकायतें सैकड़ों बार दर्ज कराई हैं। लेकिन नाला साफ कभी नहीं हुआ। उसमें से बदबू आना कम नहीं हुई। जब हम लोग शिकायतें करते-करते थक गए तो ऐसे परिचितों से मिले जो इस बारे में मदद कर सकते थे, यानी कुछ सरकारी कर्मचारी या नगरपालिका के सदस्य या और दूसरे किस्म के प्रभावशाली लोग। लेकिन नाला साफ नहीं हुआ। हमारे यहाँ जो मित्र लगातार आते हैं, वे नाला-सफाई कराने संबंधी पूरी कार्यवाही से परिचित हो गए हैं। सब जानते हैं कि इस बारे में उपराज्यपाल को दो रजिस्टर्ड पत्र जा चुके हैं। इसके बारे में एक स्थानीय अखबार में फोटो सहित विवरण छप चुका है। इसके बारे में महानगरपालिका के दफ़्तर में जो पत्र भेजे गए हैं उनकी फाइल इतनी मोटी हो गई है कि आदमी के उठाए नहीं उठती, आदि-आदि।

वी.आई.पी. को घर बुलाने से पहले भी मुझे डर था कि पत्नी कहीं उनसे नाले का रोना न लेकर बैठ जाएँ। क्योंकि मैं उनकी मानसिक हालत समझता था, इसलिए मैंने उन्हें समझाया था कि देखो नाला-वाला छोटी चीज़ें हैं, वह वी.आई.पी. के बाएं हाथ का भी नहीं, आंख के इशारे का काम है। ये काम तो उनके यहां आने की खबर फैलते ही, अपने-आप हो जाएगा। लेकिन इस वक्त पत्नी सब कुछ भूल चुकी थीं। मजबूरन मुझे भी वी.आई.पी. के सामने ‘हाँ’ ‘हूँ’ करनी पड़ रही थी। आखिरकार वी.आई.पी. ने कहा कि यह चिंता करने की कोई बात नहीं है।

वी.आई.पी. के आश्वासन के बाद ही पत्नी कई साल के बाद ठीक से सो पाईं। उन्हें दोस्तों और मोहल्ले वालों ने बधाई दी कि आखिर काम हो ही गया।

वी.आई.पी. के आश्वासन से हम लोग इतने आश्वस्त थे कि एक-दो महीने तो हमने नाले के बारे में सोचा ही नहीं, उधर देखा ही नहीं। नाला हम सबको कैंसर के उस रोगी जैसा लगता था जो आज न मरा तो कल मर जाएगा…। कल न सही तो परसों… पर मरना निश्चित है। धीरे-धीरे नाला हमारी बातचीत से बाहर हो गया।

जब कुछ महीने गुज़र गए तो पत्नी ने महानगर पालिका को फोन किया। वहां से उत्तर मिला कि नाला साफ किया जाएगा। फिर कुछ महीने गुज़रे, नाला वैसे का वैसा ही रहा। पत्नी ने वी.आई.पी. के ऑफिस फोन किए। वे इतने व्यस्त थे, दौरों पर थे, विदेशों में थे कि संपर्क हो ही नहीं सका।

महीनों बाद जब वी.आई.पी. से संपर्क हुआ तो उन्होंने बहुत आत्मविश्वास से कहा कि काम हो जाएगा। चिंता मत कीजिए। लेकिन यह उत्तर मिले छ: महीने बीत गए तो पत्नी के धैर्य का बांध टूटने लगा। वे मंत्रालय से लेकर दीगर दफ़्तरों के चक्कर काटने लगीं। इस मेज से उस मेज तक। उस कमरे से इस कमरे तक सिर्फ ‘हाँ’ ‘हाँ’ ‘हाँ’ जैसे आश्वासन मिलते रहे, लेकिन हुआ कुछ नहीं।

एक दिन जब मैं ऑफिस से लौटकर आया तो पत्नी ने बताया कि उन्होंने नाले में बहुत-से फल बहते देखे हैं। मैंने कहा, “किसी ने फेंके होंगे।”

इस घटना के दो-चार दिन बाद पत्नी ने बताया कि उन्होंने नाले में किताबें बहती देखी हैं। यह सुनकर मैं डर गया। लगा शायद पत्नी का दिमाग हिल गया है, लेकिन पत्नी नार्मल थीं।

फिर तो पत्नी ही नहीं, मोहल्ले के और लोग भी नाले में तरह-तरह की चीजें बहती देखने लगे। किसी दिन जड़ से उखड़े पेड़, किस दिन चिड़ियों के घोंसले, किसी दिन टूटी हुई शहनाई।

एक दिन देर से रात गए घर आया तो पत्नी बहुत घबराई हुई लग रही थीं। बोली, “आज मैंने वी.आई.पी. को नालें में तैरते देखा था। वे बहुत खुश लग रहे थे। नाले में डुबकियाँ लगा रहे थे। हँस रहे थे। किलकारियाँ मार रहे थे। उछल-कूद रहे थे, जैसा लोग स्विमिंग पूल में करते हैं!”

असग़र वजाहत
असग़र वजाहत (जन्म - 5 जुलाई, 1946) हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में मुख्यतः साठोत्तरी पीढ़ी के बाद के महत्त्वपूर्ण कहानीकार एवं सिद्धहस्त नाटककार के रूप में मान्य हैं। इन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। ये दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं।