मेरी आँखें भर गयी हैं
बारूदों से उठते ग़ुबार से
मानवता संस्कृति धर्म साहित्य
की चिताएँ धधक रहीं हैं
मैं देख नहीं पा रही
समय के इस पार या
उस पार
ऐसे में तुम्हारा प्रणय निवेदन
उफ़्फ़!
सूनी माँग
बिलखते बच्चों
तड़पती ममता
के बीच
मैं कैसे रंग लूँ स्वयं को
प्रेम के सब्ज़ रंगों में
तुम्हारे प्रेम शब्द
बींधते हैं मेरे हृदय को
तुम्हारी हर छुअन
मेरे ज़िस्म पर
ज़ख्म बनकर उभरती है
कोई स्पर्श
मुझे उत्तेजित नहीं करता
मुझे माफ़ करना
अभी जाओ
तुम फिर कभी आना…