एक
बड़ी बारादरी में
सिंहासनों पर सजे तुम
बैठे हो—
कई चेहरों में
वरमाला के इंतज़ार में
बारादरी के हर द्वार पर
तुमने
बोर्ड लगा रखे हैं
‘बिना इजाज़त महिलाओं को बाहर जाना मना है’
परम्पराओं की तलवार लिए
संस्कार पहरे पर खड़े हैं
संस्कृति की
वर्दियाँ पहने
मैं
वरमाला लिए
उस द्वार-हीन बंद बारादरी में
लायी गयी हूँ
सजाकर वरमाला पहनाने के लिए
किसी भी एक पुरुष को
मुझे
बिना वरमाला पहनाए
लौटने की इजाज़त नहीं
मेरा ‘इंकार’
तुम्हें सह्य नहीं
मेरा ‘चयन’
तुम्हारे बनाए क़ानूनों में क़ैद है
वरमाला पहनानी ही होगी
चूँकि बारादरी से निकलने के दरवाज़े
मेरे लिए बंद हैं
और बाहर भी
पृथ्वीराज मुझे ले भागने को
कटिबद्ध है
मेरा
‘न’ कहने का अधिकार तो
रहने दो मुझे
मेरा
‘चयन’ का आधार तो
गढ़ने दो
बनाने दो मुझे
पर
तुम—जो बहुत-से चेहरे रखते हो
मुखौटे गढ़ते हो
स्वांग रचते हो
रिश्ते मढ़ते हो
संस्कृति की चित्रपटी पर
केवल
एक ही चित्र रचते हो
मेरे इंकार का नहीं
और
आज मैंने इंकार करने की हठ ठान ली है…
वरमाला लौटाने का प्रण ले लिया
‘न’ कहने का संकल्प कर लिया है
इसलिए
हटा लो
संस्कारों के पहरेदारों के
दरवाज़ों पर से
नहीं तो—
मैं
तुम्हारे मुखौटे नोच दूँगी
होठों से सिली मुस्कानें उधेड़ दूँगी
ललाट पर सटा कथित भाग्य उखाड़ दूँगी
हाथों से दम्भ के दंड छीन लूँगी
हावों से अधिकार की गंध खींच लूँगी
आँखों में चमकते आन के आईने फोड़ दूँगी
और तेरी आकाँक्षाओं में छिपे
शान और मान के पैमाने तोड़ दूँगी
तेरी नज़र के भेड़ियों को रगेदकर
दरवाज़ों पर खड़े पहरेदारों को खदेड़कर
वरमाला रौंद दूँगी
पर
नहीं पहनाऊँगी
तुम्हारी सजी हुई कतार में से किसी को
क्योंकि
इस व्यवस्था में
‘चयन’ का मेरा अधिकार नहीं है!
रमणिका गुप्ता की कविता 'मैं आज़ाद हुई हूँ'