तुम जब चाहो घर लौट आना
आने में ज़रा भी न झिझकना
यहाँ की पेचीदा गलियाँ
अभी भी पुरसुकून हैं
घुमावदार हैं मगर
बेहद आसान हैं
इनमें से होकर तुम
मज़े से गुज़र जाओगे
कोई तुमसे यहाँ
लापता होने का सबब न पूछेगा
जो भी मिलेगा भूला बिसरा यार
वह जल्दबाज़ी में कहीं से आता
और किसी ओर जाता मिलेगा

तुम जब चाहो घर लौट आना
वहाँ अब रोकने टोकने वाला कोई नहीं
बेधड़क चले आना
घर की छत पर उग आए पीपल को देख
उसे वीरान समझ
बाहर मत ठिठक जाना
वह अब भी ज़िन्दगी से भरपूर है
वहाँ कुछ कबूतरों के जोड़े
उनके बच्चे
चंद गिलहरियाँ और नेवले रहते हैं
उन्होंने तुम्हारे लायक़ जगह
अभी भी बचा रखी है

तुम जब चाहो घर लौट आना
वहाँ तुम्हारी माँ की राख
लाल कपड़े में बँधी अभी भी रखी है
जब तुम्हारे आने का इंतज़ार करती वह मरी
कह गई पड़ोसियों से
सुनो, मेरी मुट्ठी भर याद
यहीं हिफ़ाज़त से रख देना
छुटका आएगा तो उसे सीने से लगा
उसका जल प्रवाह करने से पहले
थोड़ी देर मुझ्से बतिया तो पाएगा

तुम जब चाहो घर लौट आना
जब तुम्हें सुविधा हो तब आना
यहाँ के लोगों ने किसी के आने की
बाट जोहना बन्द कर दिया है
सब अपने-अपने हिस्से की ग़ुरबत
इत्मीनान से जीते हैं
जीते-जीते थक जाते हैं जब
अपनी बदहाली की पोटली
बच्चों को थमाकर
उनके शतायु होने की कामना के साथ
चुपचाप मर जाते हैं

तुम जब चाहो घर लौट आना
लेकिन आना पैदल ही
यहाँ कोई सवारी अभी भी नहीं पहुँचती
दूसरों के कँधे पर
सवार होने का सुख
परलोकगमन करने पर मिलता है
जीने की चाहत रखने वालों को तो
हर हाल में पैरों के बल चलना ही होता है
यहाँ न जीना कोई ख़ास बात है
न मरना रोमांचकारी
हर कालखण्ड ऐसे ही सरकता है

तुम जब चाहो घर लौट आना
यह वक़्त का अजायबघर है
जहाँ वर्तमान और इतिहास
एक साथ ज़िन्दा हैं
भविष्य का हाल
नीम तले बैठने वाले ज्योतिषी के हरियल के सिवा
शायद ही कोई जानता है

तुम जब चाहो घर लौट आना
पर आना तभी
जब तुम्हारे मुँह पर बन्द हो जाएँ
दुनियावी चक्रव्यूह से बच निकलने के सारे रास्ते!

निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म ,रहना सहना उत्तर प्रदेश में . व्यंग्य लेखन भी .अब तक कविता की दो किताबें -मैं ज़रा जल्दी में हूँ और वक्त का अजायबघर छप चुकी हैं . तीन व्यंग्य लेखों के संकलन इस बहुरुपिया समय में,हैंगर में टंगा एंगर और बतकही का लोकतंत्र प्रकाशित. कुछ कहानियों और कविताओं का अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद . सम्पर्क : [email protected]