पितृसत्ता को पोषित करती औरतों ने
जाना ही नहीं कि उनके शब्दकोष में
‘बहनापा’ जैसा भी कोई शब्द है
जिसे विस्तार देना चाहिए

छठ, जियुतिया करती माँएँ
हर बेटी पर जन्म पर भीगती रहीं…
उन्हीं की पुरखनों ने उसे बेटे के डेढ़ साल बाद हुई पुत्री पर
बेटे का दूध छीन लेने का अपराध सुनाया

बहनें भाई के लिए मन्नत के धागे बाँधती रहीं…
और बहनों की असमय मृत्यु पर उमड़े आँसुओं को
‘भागमानी थी, मुक्त हो गई’
जैसे दिलासों के रुमाल से पोंछती रहीं

पति की ओछी रूमानियत का क़ुसूरवार
उसने औरत को ठहराया,
स्नेह त्याग देवर के बँटवारे की ज़िद का कारण भी
हमेशा औरत रही,
मुँह फेरता बेटा भी एक औरत के वश में था,
किसी ने नहीं पूछा
पुरुष के पास अपना दिमाग़ नहीं होता?
या वहाँ होता है जिस पर एक औरत का ही वश होता है

धीरे-धीरे उन्हें रटवाया गया
‘औरत ही औरत की दुश्मन होती है’
किसने कहा? क्यों कहा?
नहीं जानना था
सारे नियमों की तरह इसे परम सत्य मान
इस नियम को सिद्ध करती औरतें
भागी बनी भ्रूण हत्या और
जली हुई लाशों की
पर अस्मत पर हाथ डालने वाले को जलाने पर
पितृसत्ता ने उसे डायन घोषित कर दिया।

कामातुर पुरुषों ने स्वर्ग में भी अप्सराओं की कल्पना की
और स्त्री को हर ख़ूबसूरत स्त्री में अप्सरा नज़र आने लगी
सौन्दर्य को नागिन व डायन जैसा उपनाम मिला।

आश्चर्य! ये उपनाम दुश्मनी का सिद्धान्त भूल रहे हैं
पितृसत्ता को ललकारती ये डायनें एक-दूसरे का हाथ मज़बूती से पकड़
घर लौट रही हैं।