समन्दर गहरा कि आशा गहरी। धरती भारी कि आशा भारी। पहाड़ अविचल कि आशा अविचल। फूल हलका कि आशा हलकी। हवा सत्वर कि आशा सत्वर। सूर्य प्रखर कि आशा प्रखर। ईश्वर अमर या आशा अमर कि किसी गाँव के पुराने घूरे पर एक किसान की झोंपड़ी थी। साठ-पैंसठ बीघा मगरेटी (पथरीली) ज़मीन! मारवाड़ में बादलों के भरोसे पानी की बजाय दूसरे-तीसरे बरस कर्रा या अकाल तो निश्चित टपकते हैं। इस जोखम से बचने के लिए नासमझ किसान ने एक बनिये को बोहरा थरप काटा-मिती और चक्रवृद्धि ब्याज की दर से कुआँ खोदने का दुस्साहस किया। घुटने के बीच दबा बकरा कसाई के हाथ की छुरी से बचे तो “नौ-कूँटी मारवाड़” का किसान बोहरे के कान में खोंसी कलम से बचे। कुएँ में सहजे का पानी, बोहरे का क़र्ज़, पाँवों के नीचे मगरेटी ज़मीन, ऊपर आकाश में अविश्वासी बादल, घर में प्रतिवर्ष ब्यानेवाली जोरू और आठों प्रहर नोचने को ठाकुर – इन छह दश्मनों के चंगुल में स्वयं भगवान भी फँस जाए तो मुँह में त्रण लेकर उसे सौ बार शिकस्त खानी पड़े। फिर मारवाड़ के जनम-दुखियारे किसान की तो बिसात ही क्या!
पीढ़ियों की अखूट विपदाओं के बीच उस हतभागे किसान के सिर पर एक आफ़त और ढह पड़ी। प्रतिवर्ष प्रसव से उत्पीड़ित घरवाली तो दो रोते-बिसुरते बैरियों को पीछे छोड़कर उस नारकीय ज़िन्दगी से हमेशा के लिए छुटकारा पा गयी। पर रक्त-सम्बन्धों की पुश्तैनी आत्मीयता का दावा करते हुए परिजनों ने किसान की भलाई के निमित्त उसका “नाता” करवा दिया।
…सीतेली-माँ का शुभागमन मौत की अपेक्षा अधिक भयानक होता है।
अबोध बच्चे माँ और “दुमात” की ममता का भेद क्या जानें? पर बड़े अचरज की बात कि वे बाप के बदलते स्वभाव और उसकी नज़र को अजाने ही भाँप गए। दो बरस की बहन दुमात की मार खाते-खाते आख़िर एक बरस के बीर को बहलाना-रमाना सीख गयी।
…यों ढरकते आँसुओं, दुमात की खीझ और मारपीट के बीच सचमुच एक बरस बीत गया। बहन तीन बरस की हो गयी और भाई दो बरस का। बहन-भाई की आँखों को निसिदिन बरसते देखकर बरखा बरसने से डर गयी। किसानों की भूखी-प्यासी आँखें हरदम रीते आकाश की ओर ताकती रहीं पर बादलों के दरसन नहीं हुए सो नहीं हुए। कुएँ में सहजे का पानी तो बादलों के आसरे ही टिकता है।
बनिये का ब्याज तो चालू था, मगर सहजे का पानी खूट गया और किसान की आँखों के स्रोत चारों ओर से खुल गये। यदि कुएँ के साथ-साथ आँखों का पानी भी समाप्त हो जाता तो उस हतभागे किसान के लिए आफ़त-विपदाओं की आँच से बचना दूभर था।
माँ-बाप ने सलाह-सूत विचार कर मालवा जाने का मानस बनाया। सद्व्यव्हार, शिष्टाचार या दिखावा जैसी फालतू बातों से माँ का दूर-दराज़ तक कोई सरोकार नहीं था। कसैली वाणी में पति को अपने ओजर की बात बतायी, “इन जमदूतों को साथ लें तो मालवा में भी चैन नहीं मिलेगा। इन्हें यहीं मार-मूरकर खिसक जाएँ तो ठीक रहेगा।”
घरवाली के लच्छन जानते हुए भी उसके मुँह से ऐसी अनहोनी बात सुनकर एक बार तो वह भौचक रह गया! ना, वह कोई दुःस्वप्न या आल-जंजाल का भुलावा नहीं, प्रत्यक्ष निरावृत सच्चाई थी! फिर अनसुनी या अनदेखी कैसे करता? न चाहते हुए भी वह एड़ी से चोटी तक काँप गया। कौन जाने कब किस पर यह बिजली कड़क उठे। उसने सहज-सामान्य रहने की असफल चेष्टा करते हुए अटकते-अटकते कहा, “ग़ुस्सा आने पर तुझे कुछ भी होश नहीं रहता। क्या कह रही है तू? अपने ही जाये-जनमे बच्चों के साथ यह अकरम कैसे करूँ?”
लेकिन सौतेली-माँ तो पूरे होश-हवास में थी। बहुत सोच-विचार के बाद वह इस नतीजे पर पहुँची थी। अपनी सुख-सुविधा और स्वार्थ के परे उसे कुछ सूझता ही नहीं था। मानवीय संस्कारों का आधिपत्य ऐसा ही निर्मम और निर्वैयक्तिक होता है। तब क्या करती, क्या कहती बेचारी! उसे कहीं कुछ भी अनहोनी नज़र आए तो उसका उद्विग्न होना स्वाभाविक था। नितान्त नैसर्गिक भाव से उसने समाधान सुझाया, “तुम्हें हाथ लगाने की भी ज़रूरत नहीं। मैं बड़ी सफ़ाई से सारा काम सलटा दूँगी।”
आकाश वैसा ही अविचलित रहा। धूप उसी तरह चमकती रही। हवा अपनी चाल से बहती रही। मगर बाप के साँस-उसाँस में मामूली कठिनाई पैदा हो गयी। जैसे गले में कहीं-कुछ फँस गया हो। सहमती वाणी में कहा, “इस अकरम की ख़ातिर मुझसे तो “हाँ” भी नहीं भरी जाती। बहुत कमजोर दिल है मेरा। तेरे जित्ती हिम्मत नहीं है मुझमें।”
“फिर माथे पर सोलह हाथ के सूत का यह बोझ क्यों उठाए फिरते हो?” ताने-तिसने के लहजे में वह कहने लगी, “हाथों में चूड़ियाँ डालकर, लहँगे-ओढ़नी का वेश पहन लो। ग़लती से तुम्हें पूछ बैठी। आज पता चला कि तुम कितने कायर हो!”
ये बैन सुनाकर घरवाली बड़े रुआब से झोंपड़ी की ओर बढ़ी। पति ने साहस जुटाकर उसका हाथ पकड़ा। विगलित स्वर में बोला, “भलीमानुस, इन बच्चों पर नहीं, मुझ पर थोड़ी दया विचार। ख़ामख़ाह ये बाल-हत्याएँ अपने माथे क्यों ओढ़ रही है। मेरा कहा माने तो एक जुगत बताऊँ।”
उसने तो कहीं किसी पोसाल में लिहाज़-मुरौवत की बारहखड़ी सीखी नहीं थी। पलटकर जवाब दिया, “अपनी जुगत अपने पास रखो। इन सँपोलों को मैं हरगिज़ साथ नहीं लूँगी।”
पति ने सफ़ाई देते कहा, “मैं साथ लेने की बात नहीं करता। हत्या का पाप भी न लगे और इन अभागों से पीछा छूट जाए, ऐसा उपाय बताऊँ तो मानेगी।”
उसका रुख़ मामूली नरम हुआ। इधर-उधर झाँकते बोली, “पहले कुछ कहो तो पता चले। मानने जैसी बात होगी तो ज़रूर मानूँगी। बताओ, तुम्हारा कहा मैंने कभी टाला?”
“तेरी होड़ तो फ़क़त तू ही करती है। मेरे घर की लछमी जो है!” घरवाली को फुसलाने के भाव से उसने कहा, “हम सबका भला तू नहीं सोचेगी तो और कौन सोचेगा? बस, आठ-दस सोगरों और हण्डिया-भर राब से सारा काम सलट जाएगा। हम आज ही मालवा के लिए रवाना हो सकते हैं। कोई दिक्कत नहीं। बाहर कूँटा लगाकर बच्चों को भीतर छोड़ देंगे। छींके में राब की हाण्डी और सोगरे धरकर इन्हें अदीठ क़िस्मत के हवाले कर दें। फ़क़त विदा होते समय तू ज़रा लाड़ से पुचकारकर कहना कि दिहाड़ी लेकर साँझ को वापस आ रहे हैं। अबूझ बच्चे कुछ दिन तक हमारी बाट देखते रहेंगे। फिर भूखे-प्यासे अपने-आप ही सूखकर पिंजर हो जाएँगे। बहलाने से वे रोएँगे-रींकेंगे नहीं। बता, मुझे कैसा उपाय सूझा?”
सवेरे की ताजी धूप उसी तरह मुस्कराती रही। हवा इठलाती रही। गुलाबी आकाश वैसा ही निश्चल रहा!
घरवाली ने ख़ुश होकर फ़तवा दिया, “आज पहली बार तुम्हारे मुँह से समझदारी की बात सुन रही हूँ!”
पति ने मुस्कराने की असफल चेष्टा करते कहा, “तेरी संगत के बाद ही मुझ में यह समझ आयी है।”
सियार की प्रशंसा से जब शेर भी ख़ुश हो जाता है, फिर वह तो औरत की ज़ात थी। बुझी-बुझी चाल से झोंपड़ी में जाकर सगी माँ के उनमान सौतेले बच्चों का लाड़-दुलार किया। लूगड़ी के पल्लू से उनकी आँखें पोंछी। अपने मेहंदी लगे हाथ से उनका मुँह धोया। आँखों में काजल सारकर उन्हें पुचकारा। गुड़ के समान मीठी वाणी में उन्हें बहलाया। यह सोचकर कि अब तो इन दुष्टों से पीछा छूट जाएगा।
यदि इतने में ही पति ख़ुश हो तो क्या बुरा है! अपने सगे बेटों से ही जिसने नाता तोड़ लिया, तब उससे झगड़ने में क्या देर लगेगी? लुगाई का ऐसा ताबेदार ढुलमुल पति बड़ी मुश्किल से मिलता है। राब से भरा एक कुल्हड़ और पाँच-सात सोगरे उसने ऊपरी मन से छींके में रख दिए।
पिता का मन धीरज नहीं रख सका तो उसने फिर मिन्नत की, “आठ-दस सोगरे और धर दे। कुल्हड़ की बजाय राब से हाण्डी भर दे।”
“कैसी भोली बातें कर रहे हो!” पति का मखौल उड़ाते मुस्कराकर बोली, “इस खाने से तो पूरे बरस की ग़रज़ सरेगी नहीं। ये सँपोले पाँच दिन में ठिकाने लगें तो वही बात और दस दिन में ठिकाने लगें तो वही बात। आख़िर एक दिन तो ये मर-खूटेंगे ही। फिर इतना सामान क्यों बरबाद करने पर तुले हो। कुछ तो मगज़ लड़ाओ!”
पति ने अपनी भूल मंज़ूर की। सोचा, यह करकसा कहीं बिफर गयी तो जुदाई की बेला बच्चों को पीटे बिना नहीं मानेगी। पति के अन्तस् में दुबका हुआ बाप फिलहाल उन्हें हँसता-मुस्कराता देखना चाहता था। पीछे अदीठ में चिल्लाकर मर भी जाएँ तो कौन देखने आएगा? इनकी मौत किसी भी तरह टलनेवाली नहीं है। यदि इस समय लाड़-दुलार से पुचकारते हुए प्रस्थान करें तो अकुलाते मन को तनिक राहत मिलेगी।
होशियार घरवाली ने पति के मन की बात ताड़ ली। उसका मन रखने की नीयत से दोनों बच्चों का माथा सहलाया। गालों पर चुम्मे दिए। चाशनी की नाईं मीठे स्वर में मुस्कराते बोली, “मेरे सयाने बच्चो, तुम आपस में लड़ना नहीं। रूठना नहीं। एक-दूजे से प्रेम करना। हम मजूरी करके साँझ की बेला वापस आ रहे हैं। तुम्हारे लिए दो झुनझुने लाएँगे। ख़ूब खेलना-रमना। छींके में राब और सोगरे पड़े हैं। भूख लगे तो खा लेना। टिमची पर पानी की मटकी भरी है। प्यास लगे तो पी लेना। मेरे राज-दुलारो, अब हम जाएँ?”
बच्ची ने गरदन हिलाकर हामी भरी। बच्चे ने तनिक मुस्कराकर अपनी रज़ामन्दी दरसायी।
टिमची और छींका दोनों ही इतने ऊँचे थे कि किसी का भी हाथ वहाँ नहीं पहुँचता। और न उन्हें ऐसी बातों की सूझ-बूझ ही थी। जो चीज़ आँखों के सामने है उसे प्राप्त करने में कैसी अड़चन? नादान शिशु तो अलभ्य चाँद को पकड़ने के लिए भी मचलता है। पर अबोध होते हुए भी आज उन्हें माँ का बरताव बहुत सुहाया। झिड़कियों की बजाय यह लाड़-दुलार! ऐसी मीठी बोली! ठोलों की बजाय मीठे चुम्मे! उनकी ख़ुशी का पार नहीं था।
माँ ने बेटी की ओर देखकर कहा, “तू बड़ी है, छोटे भाई का लाड़ रखना। उससे डाह मत करना। बाहर का कूँटा लगाकर अब हम जा रहे हैं। साँझ को लौटेंगे। मिल-जुलकर अच्छी तरह रहना।”
तत्पश्चात् निरीह पिता ने दोनों बच्चों को गोद में लेकर उनका दुलार किया। उन्हें बार-बार चूमा। मुस्कराने की चेष्टा की तो उसकी आँखें बरबस भर आयीं। गला रुंध गया। बाप के चेहरे की ऐसी रंगत देखी तो बेटी माँ की ओर मुड़कर ततलाते बोली, “माँ, थोड़ा इधर देख, बापू रो रहे हैं। हमारा सोच करने की ज़रूरत क्या है? हम तो साँझ तक यूँ ही खेलते-कूदते रहेंगे। मैं अपने भैया को ख़ूब रमाऊँगी।”
पिता की दाढ़ी पकड़कर अबूझ बच्चा उससे खेलने लगा तो पत्नी उतावली दरसाते रूखे स्वर में बोली, “अब इस प्यार को फ़ज़ूल क्यूँ गँवा रहे हो? चलो, ज़्यादा देर करना ठीक नहीं।”
झिड़की सुनते ही पति को चेत हुआ। बच्चों को तत्काल नीचे उतारा। फिर युवा पत्नी की ओर याचना भरी दृष्टि से देखकर कहा, “भलीमानुस, तुझे हाथ जोड़ता हूँ। पाँच-सात सोगरे और रख दे। राब की हाण्डी पूरी भर दे।”
पति की अव्यावहारिक भावुकता से इस बार वह सचमुच नाराज़ हो गयी। आँखें तरेरकर बोली, “इन बेहूदी बातों में कुछ नहीं धरा। अपने पास अधिक सामग्री रहे तो वह काम आएगी। यहाँ फालतू गँवाने से क्या फ़ायदा! यह झूठा दिखावा मुझे अच्छा नहीं लगता।”
इच्छा न होते हुए भी पिता के मुँह से ये बोल छिटक पड़े, “तुझे यह झूठा दिखावा लग रहा है? बता, तू अपने जाये-जनमों को इस तरह छोड़ सकती है?”
पत्नी को इस प्रश्न का जवाब देने में तनिक भी देर नहीं लगी। सामान्य भाव से कहने लगी, “यह झूठा दिखावा नहीं तो और क्या है? तुम अपने जाये-जनमों को छोड़कर जा ही रहे हो! ये तो बखत-बखत की बातें हैं। जैसी हवा चले, वैसी ओट लेनी चाहिए। बूढ़े-बुज़ुर्ग यही सीख दे गए हैं! क्या उस पर अमल करना बुरा है?”
पुरखों की सीख के प्रति स्वामी के मन में कितना मान-सम्मान था, यह तो वही जाने। पर घरवाली की बात टालना उसके वश की बात नहीं थी।
…कूँटा लगने की खड़खड़ाहट सुनी तो बेटी ने उन्हें याद दिलाने के लिए ज़ोर से कहा, “बापू! शाम को जल्दी आना। हमारे लिए झुनझुने लाना।”
कभी-कभार शब्दों को कण्ठ से बाहर धकियाना भी पहाड़ को धकियाने जैसा दुश्वार हो जाता है। पिता ने होंठों-ही-होंठों में कुलबुलाते कहा, “हाँ… हाँ… लाऊँगा।”
पीपल के पान फरफराते रहे। पंछी इधर-उधर उड़ते रहे। धूप चटखती रही। हवा इठलाती रही। क़ुदरत के नैसर्गिक कार्य में कहीं कुछ भी व्यतिक्रम नहीं हुआ। सूरज की किरणों का मन्थन जारी था। और पति-पत्नी अपनी राह चल रहे थे।
घरवाली के सिर पर पाथेय की टोकरी थी। रसोई का और भी अटरम-सटरम सामान भरा था। एकाध राली-गुदड़ी भी बंधी थी। मज़े से मन-सवा मन का बोझ था। कुएँ के जाव से आगे निकलते ही वह पीछे मुड़कर बोली, “बोझ तो सारा मेरे माथे पर है। पर तुम्हारे पाँव इतनी मुश्किल से क्यों उठ रहे हैं?”
पति ने सही जवाब देने की भरसक चेष्टा की, पर उससे कुछ भी बोला नहीं गया। भीतर का मवाद बाहर आने के लिए छटपटा रहा था। लेकिन परिणाम के भय से तमाम शरीर में सिहरन दौड़ गयी। अदेर मन की बात सँवारते बोला, “अपनी अथक मेहनत से खोदा कुआँ छोड़ने पर टीस तो उठती ही है।”
पत्नी ने राहत की साँस ली। विमुक्त भाव से कहा, “अब कहीं मन को चैन मिला। मैंने तो सोचा, बात कुछ दूसरी ही है। पर कुएँ में पानी न हो तो हम भी क्या करें? यदि कुएँ का पानी नहीं खूटता तो ज़िन्दा रहते उसे छोड़ते भला? लाचारी जो न कराए, थोड़ा है। कुएँ में पानी न हो तो उसमें धमाक देने से रहे?”
जाने-अजाने ही पिता की दुखती रग छिड़ गयी। कहने लगा, “हाँ, यह बात तो तेरी एकदम सही है। इस संसार में सारी माया पानी की है। बस, पानी को तो पानी की माँ ने ही जना है। मरना अच्छा, पर भगवान किसी का पानी नहीं खुटाए!”
वह सही मायना समझ नहीं पायी। हाँ-में-हाँ मिलाते कहा, “पानी खूटने पर ही तो हम यह आफ़त झेल रहे हैं। बादल जैसे भरतार ने भी जब मुँह मोड़ लिया, तब इन ना-कुछ कुएँ की क्या बिसात! अगले बरस सब बातें भली होंगी। बादल रूठ भले ही जाएँ, पर वे सरब दुहाग नहीं देते! इसी सूखे-खनक कुएँ में अगले चौमासे ख़ूब पानी होगा और हम इन्हीं हताश हाथों से कुआँ सींचेंगे। हरी-भरी फ़सल उपजाएँगे। फ़सल के दानों की नाईं मेरी कूख भरेगी। बच्चे किलकारियाँ करते तुम्हारी गोद में खेलेंगे। तुम्हें बापू-बापू कहकर पुकारेंगे। मचलेंगे।”
खिली हुई धूप मुस्करा रही थी। उन्मुक्त पवन मचल रहा था। हिरणों की टोली अपनी मौज में मलापती जा रही थी।
पति ने अटकते-अटकते कहा, “हाँ, यह बात तो होगी ही। दुनिया में एक दिन सब-कुछ खूटता है पर मनुष्य के मन से कभी आशा नहीं खूटती। यह अधर-आकाश फ़क़त आशा के सहारे ही जुगजुगान्तर से टिका हुआ है।” फिर पत्नी के पास आकर उसने आग्रह किया, “ला, यह भार मुझे दे दे। तू काफ़ी थक गयी होगी।”
“तुम इस भार की फ़िकर मत करो।” पति को आश्वस्त करते उसने कहा, “बस, तेज़-तेज़ क़दमों से चलते रहो। मैं आसानी से थकनेवाली नहीं हूँ।”
कोई तीन-चारेक बाँस ऊपर उड़ते हुए जंगली कौओं की पाँत ने मानो उसकी बात का भरपूर समर्थन किया हो- क्राँव-क्राँव-क्राँव! पति ने चौंककर ऊपर देखा तो ज़रूर पर वह क्षणभर के लिए भी रुका नहीं।
…और यों चलते-चलते आकाश में चारों ओर साँझ घिर आयी। एक गहर-घुमेर बरगद की छाँह में दोनों विश्राम करने के लिए बैठे। पश्चिम दिशा में हलके सिन्दूरी रंग की लाली फैल रही थी। पिता ने अनमने भाव से पूछा, “बच्चे अपनी बाट जोह रहे होंगे। रात का अँधेरा छाने पर वे ज़रूर रोएँगे। चिल्लाएँगे। कोई दयावन्त उनकी पुकार सुनकर उन्हें अपने घर ले जाए तो कैसा उम्दा काम बने।”
पत्नी को हलका-सा झटका लगा, मानो माथे पर किसी ढीठ ततैया ने डंक मार दिया हो। क्षण भर के लिए वह तिलमिला उठी। फिर एक गहरा उच्छ्वास भरकर तिक्त वाणी में कहने लगी, “इतनी दूर आने पर भी तुम्हारे मन में वही कसमसाहट टीस रही है? ऐसा ही सनेह उमड़ रहा है तो वापस लौट जाओ। अभी तो कुछ नहीं बिगड़ा।”
पति ने गरदन हिलाते सफ़ाई देनी चाही, “वापस लौटने की बात मैंने कब कही? पर मन में बच्चों का बिछोह कहीं-न-कहीं साल रहा है। हिम्मत रखने की बहुत कोशिश करता है, फिर भी याद फड़फड़ाये बिना नहीं रहती।”
“यह तो फ़क़त तुम्हारे मन की कमज़ोरी है।” अँगुलियों के कटके निकालते पत्नी बोली, “ऐसा कमज़ोर दिल तो कबूतर का भी नहीं होता।”
अकस्मात् एक टिटहरी का जोड़ा लम्बी उड़ान भरता हुआ उनके सिर पर से गुज़रा। अपने बच्चों से मिलने की उमंग में उनके हर्षातिरेक का रोर पिता के कानों को बींध-सा गया। धुंधलायी आँखों से उनकी ओर इशारा करते कहा, “देख, ये पंछी भी अपने बच्चों से मिलने की ख़ातिर लौट रहे हैं।”
उसने ऊपर देखने की ज़रूरत भी नहीं समझी। पति के हिये का मरम वह यों ही भाँप गयी। प्रतिवाद करते बोली, “बेचारे ये पंछी-जिनावर आदमी की ज़रूरत और चिन्ता के बारे में क्या समझें? क्या जानें? इनमें इतनी बुद्धि ही कहाँ है जो दूर की सोच सकें। भविष्य की सार-सम्भाल कर सकें। उसे सँवार सकें। और तो और ये पानी तक भरकर नहीं रख सकते! हर बार प्यास लगने पर पानी की टोह में भटकते रहते हैं। और आदमी अपनी सुविधा के लिए परिण्डे में पानी भरकर रखता है। टाँका और कुआँ खुदवाता है। ऊँट, हाथी और घोड़े उनकी ज़रूरतों के लिए नहीं आदमी की ख़ातिर अपनी पीठ पर बोझा ढोते हैं। अपने गले उतरेगा तो अपनी भूख मिटेगी! आदमी का मग़ज़ मिला है तो आदमी की तरह सोचो। समझो।”
पति ने मन-ही-मन फिर अपनी भूल मंज़ूर की। साँझ का धूमिल अँधियारा धीरे-धीरे गहराने लगा था। और उधर बच्चों की झोंपड़ी में गोधूली का उजास सिमटने लगा तो अटपटी वाणी में भाई ने पूछा, “साँझ ढलने में अब कितनी देर है? माँ और बापू कब आएँगे?”
भाई को आश्वस्त करने के लिए बहन पुचकारकर बोली, “साँझ तो उनके आने पर ही होगी! उनके आए बिना भला साँझ कैसे हो सकती है?”
आधी रात ढलने पर उसने फिर पूछा, “क्या साँझ हो गयी?”
बहन उसे थपथपाते कहने लगी, “साँझ पड़ती तो माँ-बापू आ नहीं जाते? अभी साँझ होने में काफ़ी देर है।”
और उस झोंपड़ी में पूरे बरस तक साँझ पड़ी ही नहीं। उन बच्चों का अडिग विश्वास था कि साँझ पड़ती तो उनके माँ-बाप ज़रूर आते।
छींके में सोगरे और राब थी। टिमची पर पानी की मटकी पड़ी थी। पर बारह महीनों तक उन्हें किसी तरह का कोई अभाव महसूस नहीं हुआ। न उन्हें कभी भूख लगी और न प्यास। बहन बार-बार भाई से पूछती रही, “भूख लगे तो मेरे बीर तू रोना मत। छींके में खाना पड़ा है। प्यास लगे तो तरसना मत, मटकी में पानी भरा है।” पर बहन के लाड़ले बीर को न कभी भूख लगी और न कभी प्यास। और न वह कभी रोया।
पर वह बार-बार बहन से पूछ अवश्य लेता, “क्या अब तक साँझ नहीं हुई?”
और बहन हर बार एक ही जवाब देती, “कहाँ हुई? साँझ होती तो माँ-बापू घर आ नहीं जाते?”
बाक़ी सारी दुनिया में तो हमेशा बखतसर दिन उगता और बखतसर ही ढलता। हमेशा बखतसर ही साँझ होती। पर उन अनाथ बच्चों की झोपड़ी में बारह महीनों तक लम्बा-ही-लम्बा दिन खिंचता रहा।
पूरे एक बरस के उपरान्त ऋतुओं का प्रत्यावर्तन सम्पन्न हुआ। सावन-भादों के दौरान काले-कजरारे बादल धरती पर ऐसे बरसे कि कुछ मत पूछो! मानो समन्दर ही उलट पड़ा हो। दोनों पति-पत्नी छलकते मन से अपने गाँव लौट रहे थे।
बादलों के पानी का परस पाते ही धरती तो जैसे मुँह बोलने लगी। पत्नी की गोद में चार महीनों का नन्हा बाल-गोपाल था। आकाश के बादलों में मीठा पालर पानी था। माँ के भरे-भरे स्तनों से अमृत के उनमान दूध रिस रहा था। हुलसित धरती को ठोकरें मारती, पल्लू के फटकारे देती वह मस्तानी गति से चल रही थी।
अपने कुएँ की बाड़ के पास आते ही जब माँ की गोद में ऊँघता बच्चा रोया तो उसका रिरियाना सुनकर बाप की आँखों में आँसू छलक आए। वह रुंघे गले से बोला, “तेरा दिल बहुत मज़बूत है। और मैं बेहद डरपोक हूँ। अब तो वे दोनों सूखकर कंकाल हो गए होंगे। पहले तू झोंपड़ी में जाकर उन्हें बाहर फेंकना। मुझ से नहीं फेंके जाएँगे। बस, इतनी दया और कर दे तो तेरा एहसान कभी नहीं भूलूँगा।”
“इसमें दया और एहसान की क्या बात।” पतिव्रता जोरू विनम्र स्वर में बोली, “पति का कहना तो औरत को मानना ही पड़ता है। मुझे यों भी घर का फूस-कचरा साफ़ करना है। इसमें हिम्मत जैसी कोई बात नहीं। तुम कन्हैया को कुछ देर गोदी में रखना, मैं सारा काम सुथराई से सलटा दूँगी।”
बादलों में छिपे सूरज की धूप आँख-मिचौनी खेल रही थी। कभी-कभार बिजली कड़क उठती। अलसायी हवा ठण्डी-ठण्डी साँस ले रही थी। बबूल के नीचे छतरी ताने मोर नाच रहा था।
पत्नी तेज़-तेज़ क़दमों से और पति सिहरते-धूजते पाँवों से झोंपड़ी के पास पहुँचे तो उन्हें भीतर कुछ फुसफुसाहट सुनायी दी। कानों पर यकायक भरोसा नहीं हुआ। बाहर का कूँटा जस-का-तस लगा हुआ था। आँखों पर अभरोसा भी कैसे करें? कहीं भूत-पलीतों की लीला तो नहीं है?
माँ कच्ची दीवार से कान सटाकर सुनने लगी। सचमुच झोंपड़ी के भीतर किसी बच्चे की आवाज सुनायी दी, “माँ-बापू क्यों नहीं आए? क्या अब तक साँझ नहीं हुई?”
बच्ची ने लाड़ से दुलराते ढाढस बँधाया, “मेरे लाड़ले बीर, अभी साँझ कहाँ हुई? साँझ होती तो माँ-बापू वापस आते नहीं क्या? तू थोड़ी हिम्मत रख… वे हमारे लिए दो झुनझुने लाएँगे।”
बच्चे ने हठ किया, “दोनों झुनझुने मैं लूँगा।”
“हाँ, दोनों ही तू लेना।” बच्ची ने उछाह से कहा, “झुनझुने तुझसे बढ़कर थोड़े ही हैं। भूख लगे तो मुझे बता देना। प्यास लगे तो चुप मत रहना। छींके में रोटियाँ और राब पड़ी है। टिमची पर मटकी धरी है।”
माँ के कानों में जैसे किसी ने उबलता तेल उड़ेल दिया हो। उसके पास ही हतप्रभ-सा बाप खड़ा था गुमसुम! संज्ञा-विहीन! उसके मन में ख़ुशी अधिक हुई, दुःख अधिक हुआ कि अचरज अधिक हुआ, ख़ुद उसे भी कुछ पता नहीं चला।
माँ ने उतावली से कूँटा खोला। खड़खड़ाहट सुनकर दोनों भाई-बहन ख़ुशी में तालियाँ बजाते हुए नाचने लगे, “साँझ हो गयी! साँझ हो गयी! माँ-बापू आए। हमारे लिए झुनझुने लाए।”
पर झुनझुनों के बदले उनके गालों पर दो-दो तमाचे इनायत हुए। रोष के मारे वह दाँत पीसते बोली, “दुष्ट, हरामज़ादो, तुम अभी तक जीवित हो? मरे नहीं? तुम शैतानों से तो मौत भी बिदकती है।”
माँ का इतना कहना हुआ कि दोनों बच्चे चकरघिन्नी खाकर अदेर नीचे लुढ़क पड़े। माँ का विकराल रूप देखकर मौत ने उन्हें तुरन्त गले लगा लिया। बाप ने पागल की नाईं उन्हें ख़ूब झिंझोड़ा, तब भी उनकी आँखें नहीं खुलीं। मानो विश्व-जगत् के समूचे आलोक को वे अपने भीतर लील रही हों!
क़ुदरत किसी के लिए भी आहत या सन्तप्त नहीं होती। वह तो अपनी मौज से अपने हर कार्य-व्यापार में मशग़ूल रहती है। उसकी मौज हो तो बरसे, न हो तो सूखा पड़े। पर उस दिन वह अपनी मौज में झमाझम बरस रही थी। बादल अपनी गर्जन-तर्जन में मगन थे। बिजलियाँ रह-रहकर अपनी मौज में दमक रही थीं। बाहर धरती की सोंधी गन्ध महक रही थी। और झोंपड़ी के भीतर हाण्डी में राब की फफूँद मार धधक रही थी। सोगरों पर दीमक की परतें उभर आयी थीं। …और टिमची पर रखी मटकी का पानी मटकी में ही निःशेष हो गया था। यदि पड़ी-पड़ी मटकियाँ यों पानी सोखती रहें तो प्यासे गलों का क्या हाल होगा?
यह मामूली-सा प्रश्न आज भी युगयुगान्तर से अनुत्तरित है। क्योंकि समन्दरों के होंठ सिले हुए हैं और बादलों के कण्ठ अवरुद्ध हैं!