प्रतीक्षा

उसकी पसीजी हथेली स्थिर है
उसकी उँगलियाँ किसी
बेआवाज़ धुन पर थिरक रही हैं

उसका निचला होंठ
दाँतों के बीच नींद का स्वाँग भर
जागने को विकल लेटा हुआ है

उसके कान ढूँढ रहे हैं असंख्य
ध्वनियों के तुमुल में कोई
पहचानी-सी आहट

उसकी आँखें खोज रही हैं
बेशुमार फैले संकेतों में
कोई मनचाहा-सा इशारा

उसके तलवे तलाश रहे हैं
सैंकड़ों बेमतलब वजहों में चलने का
कोई स्नेहिल-सा कारण

वह बहुत शान्ति से साधे हुए है
अपने भीतर का कोलाहल
समेटे हुए अपना तिनका-तिनका
प्रतीक्षा कर रही है किसी के आगमन पर
बिखरने की।

उम्मीद

उसने पढ़ा ‘दोज़ख़’ और
और सोचा पृथ्वी के बारे में

उसने पढ़ा ‘सम्भावना’
और बनायी स्त्री की तस्वीर

कुछ इस तरह उसके भीतर बची रही
एक रोज़ धरती के स्वर्ग बनने की उम्मीद!

घर

एक चिड़िया लौटकर आती है
और पाती है एक ख़ाली कोना
वह देखती है उस कोने को
हर कोने से
इतने जतन के उपरान्त भी उसे नहीं मिल पाता
एक भी रेशा उसके घोंसले का।

मैं भी कई बार जब लौटकर आया हूँ अपने घर
मैंने हर बार ही पाया है उसे साबुत
पर देहरी के भीतर रखते ही पाँव
महसूस करता हूँ उस चिड़िया की पीड़ा,
उसकी बेचैनी

मेरे घर के सही-सलामत होने के बावजूद
अचकचाता हुआ ढूँढता रहता हूँ
वह रेशा
जिसे मैं पहचानता हूँ।

तुम्हारी स्मृति

कल शाम इच्छाओं की पोटली टटोली
तो हाथ लगी मुझसे भली-भाँति परिचित
एक लगभग भूला दी गयी इच्छा।

रात एक नये सपने का बीज रोपने जब खोदता हूँ ज़मीन,
तो खुदाई में पाता हूँ सपनों का ढेर सारा मलबा
जिसमें खुँसी पड़ी है तुम्हारी सेफ़्टी-पिन।

मेज़ की दराज़ के कोने में तुम्हारे कोट का
धूल में लिथड़ा बटन मिला
जिस पर उँगलियाँ फिराते ही वह किसी परिचित
तारे की तरह चमका।

मैं प्रार्थना करता हूँ ईश्वर से
कि मेरी स्मृतियों के पौधे पर उगे फूलों पर
बसन्त हमेशा मेहरबाँ रहे
और काँटों पर चल जाए पतझड़ का हँसिया

पर यह प्रार्थना भी बाक़ी प्रार्थनाओं की तरह रह जाती है उपेक्षित।

स्मरण शक्ति का दुरुस्त होना भी एक दुर्भाग्य है
और दुर्भाग्यों का कोलाज ज़िन्दगी की दीवार का
शृंगार है।

धूप

जितनी भर आ सकती थी
आ गयी
बाक़ी ठहरी रही किवाड़ पर
अपने भर जगह के लिए
प्रतीक्षित

उतनी भर ही चाहिए थी मुझे, बाक़ी के लिए रुकावट थी

जिसका मुझे खेद भी नहीं था

दरवाज़े की पीठ पर देती रही दस्तक
उसे पता था कि दरवाज़ा पूरा खुल सकता है

जितनी भर अन्दर थी, उतनी भर ही जगह थी सोफ़े पर…

उतनी ही जगह घेरती थीं तुम

उतनी भर जगह का ख़ालीपन सालता है मुझे
जिसे भरने का प्रयत्न हर सुबह करता हूँ।

जीवन

सुख विलुप्ती की कगार पर खड़ी
उस संकटग्रस्त चिड़िया का नाम है
जिसके मिलने की ख़बर कभी-कभार कानों में पड़ जाती है।

दुःख वह जंगली घास है जिसे हर सुबह बस इसलिए काटता हूँ
कि जब कभी सुख नामक चिड़िया दिखे तो उसे झट से
पकड़ लूँ।

उम्मीद कटी घास के गट्ठर में कहीं घोंसले का दिख जाना है।

और जीवन है,
उसी गट्ठर पर
एक ही तरीक़े से बार-बार चढ़ने के प्रयास में
हर बार नये तरीक़े से गिरना।

चाबी

प्रकाश से बनी चाबी से हम
खोलते हैं अन्धकार से घिरा दरवाज़ा
और पाते हैं स्वयं को और गहन अन्धकार में
एक नये अन्धकार से घिरे हम
फिर खोजने लगते हैं एक नया दरवाज़ा
जिसके मिलते ही हम वापस दौड़ पड़ते हैं
प्रकाश की ओर
हासिल करने एक और चाबी

वर्षों की भागा-दौड़ी के बाद भी
अन्ततः बस यही जान पाते हैं
कि सारी चाबियाँ प्रकाश से बनती हैं
परन्तु वे जिन दरवाज़ों को खोलती हैं
वे सब के सब अन्धकार की ओर
खुलते हैं!

सामान्यीकरण

संकेतों को समझना कभी आसान नहीं रहा
तभी तो हम कभी ठीक से समझ नहीं पाए आँसुओं को
न ही जान पाए कि हँसना
हर बार ख़ुशी का इज़हार नहीं होता
हमने व्यक्ति को जीवित माना नब्ज़ और धड़कन के शरीर में होने से
और यह उम्मीद रखी कि हमारा माना हुआ जीवित आदमी
करेगा जीवित व्यक्तियों-सा बर्ताव

हम चौंके इस बात पर कि एक जीवित व्यक्ति भी हो सकता है
मुर्दे से ज़्यादा मृत
हम ग़ुस्साए, खिसियाए
फिर, फिर हो गए सामान्य…

न जाने कितनी लम्बी फ़ेहरिस्त है उन चीज़ों की
जो अब इतनी सामान्य हो चली हैं कि उनका ज़िक्र करना तक
उबाऊ लगता है।

जानना-भर

जीवन चुप्पियों से की गई संधि
और कायरताओं से किया गया जुगाड़ रहा
अपराधबोध सदैव एक निश्चित दूरी पर रहा और
कभी पास भी आया तो
मौसमी बुख़ार की मियाद से ज़्यादा टिक नहीं पाया
सच कह देने की हूक पर डाले रहे चुप का कम्बल
ताकि ख़ौफ़ की सर्दी बैठ न पाए पसलियों में
सारा तामझाम इसलिए कि कुछ वर्ष और
हवा ठीक से शरीर के अन्दर-बाहर होती रहे
जबकि हम जानते थे कि जीवन जीने के कई और कारण
हो सकते थे, होने चाहिए थे
जानते तो हम और भी बहुत कुछ थे
पर अफ़सोस… जानना-भर काफ़ी नहीं होता।

राहत

पतलून की चोर जेब में
जैसे छिपा लेते हैं कुछ पैसे
जैसे गुल्लक में जमा कर लेते हैं
ख़राब वक़्त के लिए थोड़ा-सा धन
वैसे ही जीवन में भी होनी चाहिए कुछ जगहें
जहाँ सहेज कर रखी जा सके इतनी ख़ुशी कि
बन सके उससे एक छतरी या एक छोटी-सी ओट
जो दुःखों की बरसात में दे सके
थोड़ी-सी राहत।

हाशिये का गीत

हाशिये का गीत इतना भिन्न था
कि मुख्यधारा के समझ ही न लगा
उन्होंने पहले गीत की धुन को ख़राब बताया
फिर बोले कि सुर ठीक से नहीं लगे हैं
और फिर कहा, इन शब्दों का कोई मतलब नहीं
तब से हाशिये पर भी सुनायी दे रहा है
मुख्यधारा का गीत।

नदी

नदी हमेशा रहती है
सूखने के बाद भी।

सूखने के पश्चात वह उन लोगों के भीतर
आत्मा की आवाज़ बनकर बहती है
जो उसे याद करके रोते हैं।

जो उसे भूल चुके हैं उनके भीतर वह बहती है
उस आवाज़ की अनुपस्थिति बनकर।

एकमात्र विकल्प

प्रार्थना में उठे हाथ कराहते-कराहते
सुन्न पड़ गए हैं
प्रतिक्षा में सूख चुकी है उनकी
आँखों की नमी
पीठ की अकड़न
गर्दन से होते हुए पहुँच चुकी है
ज़ुबान तक।
अब वे जिस भाषा में रिरिया रहे हैं
उसे सुन
उन्हें पागल कह देना ही एकमात्र
विकल्प है!

'अनेक पुरुष हैं मेरे लिखे में तुम किसे ढूँढ रहे हो दोस्त??'

किताब सुझाव:

राहुल तोमर
निवासी: ग्वालियर, मध्यप्रदेश कथादेश, जानकीपुल आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।