‘Chand Ki Manind Chand’, Hindi Kavita by Rahul Boyal
समय के शरीर पर लुढ़कती साँझ में
मुलायम ख़्वाहिशों सी चहलक़दमी करते हुए
लिए हाथ में प्याला चाय का
चुस्की-चुस्की पीते हुए ज़िन्दगी
करती है वो इन्तज़ार चाँद का
जो निकल जाता है कहीं दूर
बिन बताये सवेरे-सवेरे सुनहले में
धूप के चिलचिलाने से पहले।
इधर आना होता है चाँद का
उधर देता हूँ मैं भी दस्तक
खुला ही रहता है दरवाज़ा
जैसे बहाने से चाँद के, था मेरा ही इन्तज़ार।
हमेशा ही रहता है चाँद, चाँद जैसा
पर कमीबेशी करता रहता है ख़ुद में
कर लेता है चौदह दिनों में पूरे सोलह सिंगार।
पूनम को हो जाता है उसकी आँखों जैसा
कभी किसी रोज़ उसकी अँगूठी जैसा
बदलता रहता है भेष, उसे बरगलाता रहता है
वो भी देखती रहती है कलाबाज़ियाँ उसकी।
होती है जब अमावस, हो जाता है ग़ैरहाज़िर
जैसे जाता हो अंधेरे में कोई दिलफेंक
किसी की दिलबरी से सिर्फ़ खेलने के लिए।
मेरी बाँहों में सिमटकर वो बतलाती है
सारे किस्से चाँद के, खुसरफुसर
जैसे करती हैं औरतें चुगलियाँ पड़ोसन की।
मैं भी फिराते हुए उसके माथे पर उँगलियाँ
सोचता ही रह जाता हूँ बड़ी देर तक
चाँद जिसको कहता आया हूँ मैं उम्र भर
उसे चाँद की मानिन्द कैसे कहूँ अब?
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