औरत पहचान ही नहीं पाती
अपना अकेला होना
घर का फ़र्श बुहारती है
खिड़की दरवाज़े
झाड़न से चमकाती है
और उन दीवारों पर
लाड़ उँड़ेलती है
जिसे पकड़कर बेटे ने
पहला क़दम रखना सीखा था।
औरत पहचान ही नहीं पाती
अपना अकेला होना
अरसे तक
अपने घर की
दीवारों पर लगी
खूँटियों पर टँगी रहती है।
फ़्रेम में जड़ी तस्वीरें बदलती है
और निहारती है
उन बच्चों की तस्वीरों को
जो बड़े हो गए
और घर छोड़कर चले गए
और जिनके बच्चे अब
इस उम्र पर आ गए
पर औरत के ज़ेहन में क़ैद
बच्चे कभी बड़े हुए ही नहीं
उसने उन्हें बड़ा होने ही नहीं दिया
अपने लिए…
औरत पहचान ही नहीं पातीं
अपना अकेला होना
सोफ़े और कुशन के कवर
बदरंग होने के बाद
उसे और लुभाते हैं
अच्छे दिनों की याद दिलाते हैं
घिस-घिसकर फट जाते हैं
बदल देती है उन्हें
ऐसे रंगों से
जो बदरंग होने से पहले के
पुराने रंगों से मिलान खाते हों
और पहले वाला समय
उस सोफ़े पर पसरा बैठा हो…
औरत पहचान ही नहीं पाती
अपना अकेला होना
अब भी अचार और बड़ियाँ बनाती है
और उन पर फफूँद लगने तक
राह तकती है
परदेस जाने वाले किसी दोस्त रिश्तेदार की
जो उसके बच्चों तक उन्हें पहुँचा सके…
औरत पहचान ही नहीं पाती
अपना अकेला होना
अब भी बाट जोहती है
टमाटर के सस्ते होने की
कि वह भर-भर बोतलें सॉस बना सके
कच्ची केरी के मौसम में
मुरब्बे और चटनी जगह ढूँढते हैं
बरामदे से धूप के
खिसकने के साथ-साथ
मुँह पर कपड़े बँधे
मर्तबान घूमते हैं
बौराई-सी
हर रोज़ मर्तबान का अचार हिलाती है
पर बच्चों तक पहुँचा नहीं पाती…
आख़िर मुस्कान को काँख में दबाए
पड़ोसियों में अचार बाँट आती है
और अपने क़द से डेढ़ इंच
ऊपर उठ जाती है!
अपनी पीठ पर
देख नहीं पाती
कि पड़ोसी उस पर तरस खाते से
सॉस की बोतल और
मुरब्बे-अचार के नमूने
घर के किसी कोने में रख लेते हैं
कितना बड़ा अहसान करते हैं
उस पर कि वह अचार छोड़ जाए
और अपने अकेले न होने के
भरम की पोटली
बग़ल में दबाकर साथ ले जाए
फिर एक दिन जब
हाथ-पाँव नहीं चलते
मुँह से बुदबुदाहटें बाहर आती हैं
ध्यान से सुनो
तो यही कह रही होती है
अरी रुक तो! ज़रा सुन!
धूप उस ओर सरक गई है
ज़रा मर्तबान का मुँह धूप की ओर तो करना
नहीं जानती
कि धूप तो कब की जा चुकी है
अब तो दूज का चाँद भी ढलने को है…
सुधा अरोड़ा की कहानी 'एक औरत तीन बटा चार'