‘Ek Aurat Teen Bata Char’, a story by Sudha Arora
एक बीस बरस पुराना घर था। वहाँ चालीस बरस पुरानी एक औरत थी। उसके चेहरे पर घर जितनी ही पुरानी लकीरें थीं।
तब वह एक ख़ूबसूरत घर हुआ करता था। घर के कोनों में हरे-भरे पौधे और पीतल के नक़्क़ाशीदार कलश थे। एक कोने की तिकोनी मेज़ पर ताज़े अख़बार और पत्रिकाएँ थीं। दूसरी ओर नटराज की कलात्मक मूर्ति थी। कार्निस पर रखी हुई आधुनिक फ़्रेमों में जड़ी विदेशी पृष्ठभूमि में एक स्वस्थ-संतुष्ट दम्पति के बीच एक ख़ूबसूरत लड़की की तस्वीर थी। उसके बग़ल में सफ़ेद रूई से बालों वाले झबरैले कुत्ते के साथ एक गोल-मटोल बच्चे की लैमिनेटेड तस्वीर थी। घर के साहब और बच्चों की अनुपस्थिति में भी उनका जहाँ-तहाँ फैला सामान साहब की बाक़ायदा उपस्थिति की कहानी कहता था।
उस फैलाव को समेटती और उस घर को घर बनाती हुई यहाँ से वहाँ घूमती एक ख़ूबसूरत औरत थी—आख़िरी उँगली पर डस्टर लपेटे, हर ओने-कोने की धूल साफ़ करती हुई, हर चीज़ को क़रीने से रखती हुई, लज़ीज़ खाने को धनिए की हरी-हरी कटी हुई पत्तियों से सजाकर तरह-तरह के आकारों वाले ख़ूबसूरत बर्तनों में परोसती हुई और फिर रात को सबके चेहरे की तृप्त मुस्कान को अपने चेहरे पर लिहाफ़ की तरह ओढ़कर सोती हुई।
इसी दिनचर्या में से समय निकालकर वह औरत बाहर भी जाती—बच्चों की किताबें लेने, साहब की पसंद की सब्ज़ियाँ लेने, घर को घर बनाए रखने का सामान लेने। हर महीने की एक निश्चित तारीख़ को वह अपनी हमउम्र सखी सहेलियों के घर चाय पार्टी में भी हिस्सा लेती, पर हर बार घर से बाहर निकलते समय वह अपना एक हिस्सा घर में ही छोड़ आती। वह हिस्सा घर के सेफ़्टी अलार्म जैसा था, जिसका एक तार उस औरत से जुड़ा था। अचानक बाज़ार में ख़रीददारी करते हुए या सहेली के घर नाश्ते की प्लेट हाथ में पकड़े हुए अचानक उस तीन चौथाई औरत का तार खनखनाने लगता। वह घड़ी की ओर टकटकी लगाकर देखने लगती और अपने छूटे हुए हिस्से से मिलने को बेचैन हो उठती।
घर की दहलीज़ के भीतर पाँव रखते ही दोनों हिस्से जब चुम्बकीय आकर्षण से एक दूसरे से मिल जाते तो वह राहत की लम्बी साँस लेती। स्कूल से लौटते अपने बच्चों को दोनों बाँहों में भर लेती और बच्चों के साथ साहब का इंतज़ार करने लगती। बच्चों की आँखों में अपनी मासूम माँग के पूरे होने की चमक होती कि माँ दिन-भर कहीं भी रहे, पर उनके स्कूल से लौटने से पहले उन्हें घर में उनके पसंदीदा नाश्ते के साथ माँ हाज़िर मिलनी चाहिए। यही हिदायत साहब की भी थी।
इन हिदायतों और फ़रमाइशों की सुनहरी चकाचौंध में उसने इस बदलाव पर भी ग़ौर नहीं किया कि उसके दोनों हिस्सों की फाँक में खाई बढ़ती जा रही है। घर में छूट जाने वाला एक चौथाई हिस्सा धीरे-धीरे फैलता गया और उसने तीन चौथाई हिस्से को अपनी ओर खींच लिया। अब वह बाहर जाती तो एक चौथाई हिस्सा ही उसके साथ जाता जिसे देखकर सखी सहेलियाँ, नाते रिश्तेदार उसे आसानी से नज़रअंदाज़ कर देते। बाहर का सारा काम जल्दी-जल्दी निबटा वह घर लौट आती तो देखती कि दूसरा हिस्सा नदारद है। दरअसल उस हिस्से का चुम्बकीय आकर्षण भोथरा हो गया था। वह पूरे घर में उसे ढूँढती फिरती।
बच्चे, जो अब बच्चे नहीं रहे थे, हँसकर पूछते, “क्या खो गया है मॉम? हम मदद करें?”
“नहीं, मैं ख़ुद देख लूँगी।” …वह अपनी झेंप मिटाती-सी कहती।
“यहाँ, इस कमरे में तो नहीं है न? …प्लीज़।” …बच्चे, बड़ों की मुद्रा में समझा देते कि उन्हें अपना काम करने के लिए अकेला छोड़ दिया जाए!
वह कमरे से बाहर आ जाती और बदहवास-सी बैठक के कोने में पड़े फूलदान से टकरा जाती, जहाँ प्लास्टिक के ख़ूबसूरत फूलों के बीच उसका वह हिस्सा इस क़दर ढीला पड़ा होता कि पहली नज़र में तो वह दिखायी ही नहीं देता। फिर पहचान में भी नहीं आता कि यह वही है जो पहले दहलीज़ पर पाँव धरते ही उससे उमगकर आ जुड़ता था। अब वह सेफ़्टी अलार्म की तरह वक़्त पर खनखनाता भी नहीं। बिना सिग्नल के भी वह वक़्त पर लौट ही आती। आने के बाद उसके वक़्त का एक बड़ा हिस्सा उसे घर के ओने-कोने में तलाशते हुए बीतता। वह बार-बार भूल जाती कि घर से निकलते वक़्त उसे कहाँ छोड़ा था।
कभी वह देखती कि लॉन में पानी डालते हुए वह उसे वहीं छोड़ आयी थी और वह उसे गेंदे की क्यारी के किनारे लगी ईंटों की तिकोनी बाड़ पर लुढ़का हुआ मिलता। कभी वह देखती कि दरवाज़े के साथ लगे साइडबोर्ड के पास ही जूतों के बीच वह धूल मिट्टी से सना पड़ा है। वह उसे हाथ बढ़ाकर सहारा देती, उसकी धूल मिट्टी झाड़ती और धो-पोंछकर सबकी नज़रों से बचाते हुए दुपट्टे में छिपाकर अपने साथ लिए चलती। कभी-कभी बच्चे, जो अब बड़े हो गए थे, आते-जाते पूछ भी लेते— “यह तुमने पल्लू में क्या छिपा रखा है?”
“कहाँ! कुछ भी तो नहीं।” …वह कुछ और सतर्कता से उसे ढक लेती—इस उम्मीद में कि उनके अगले सवाल पर वह ख़ुद उसे उघाड़कर दिखा देगी और उनसे इस हिस्से के बारे में सलाह मशविरा करेगी। पर बच्चे अपनी बड़ी व्यस्तताओं में इतने मुतमइन होते कि उसके कुछ कहने से पहले ही फ़ौरन आगे बढ़ लेते, “अच्छा! समथिंग पर्सनल? ओ.के. कैरी ऑन, मॉम!”
वह घर की हालत देखती और दुःखी होती। लकड़ी के फ़र्नीचर की वॉर्निश बेरौनक हो गई थी। घर के अंदर के पौधे धूप और हवा के बिना मुरझाने लगे थे। बैठक के सोफ़ों और कुर्सियों की गद्दियों की सीवनें उधड़ने लगी थी। दरवाज़ों और खिड़कियों के काँच पारदर्शी नहीं रह गए थे। बैठक से ऊपर बेडरूम को जाती सीढ़ियों की रेलिंग के हत्थों और कोनों में धूल की बेशुमार तहें थीं। फ़्रेम में जड़ी तस्वीरों के रंग फीके पड़ गए थे। पूरे घर पर जैसे धुंधले से आवरण की चादर फैली थी और इन सब के बीच बार-बार गुम होता उसके सम को बिगाड़ता वह तीन चौथाई हिस्सा उसे अस्त-व्यस्त कर रहा था।
अब वह उसे साथ लिए साहब का इंतज़ार करती कि शायद साहब उसके इस बेडौल अनुपात के बारे में पूछताछ करें, पर साहब ठीक खाने के वक़्त पर बिना इत्तला किए दो-चार मेहमानों को साथ लिए लौटते या बाहर किसी होटल से खाना खाकर देर से लौटते और लौटने के बाद भी वहाँ ही होते जहाँ से लौटे थे। पलकों पर नींद के हावी होने तक साहब बाईं ओर झुके-झुके फ़ोन पर बातें करते रहते या गावतकिए पर बाईं टेक लगा किसी फ़ाइल में सिर गड़ाकर पड़े रहते। ऐसी एकाग्रता से उनका ध्यान खींचना किसी ख़तरे की घण्टी जैसा था जिसे बजाने से उस खाई के फट जाने का डर था, जिसे लेकर वह चिंतित थी।
सबके सोने के बाद और अपने सोने से पहले वह अपने पल्लू में छिपे उस माँस के लोथ से पड़े ढीले हिस्से को धीमे से थपककर सुला देती और फिर ख़ुद सो जाती, पर सुबह जब उठती तो देखती कि उसके उठने से पहले ही वह हिस्सा जागकर साहब के पैताने पड़ा सबके उठने का इंतज़ार कर रहा है और रात-भर के उनींदे से उसकी साँसें कुछ श्लथ हैं। उन साँसों का श्लथ होना उसमें सुबह-सुबह ही ऐसी बेचैनी भर देता कि उसका मन होता, उस ढीले, बीमार लोथ को वहीं अपने हाल पर छोड़कर, अपना बचा-खुचा, सही सलामत तिहाई-चौथाई हिस्सा लेकर ही इस मटमैले घर से हमेशा के लिए पलायन कर जाए। वह इस बारे में गम्भीरता से सोच ही रही थी कि एक हादसा हो गया।
एक सुबह साहब सोकर तो उठे पर उठ नहीं पाए। वह अभी सो ही रही थी। जगी तो देखा, साहब के पैताने खड़ा उसका वह हिस्सा अपना पूरा ज़ोर लगाकर साहब को बिस्तर से उठ बैठने में मदद कर रहा है। वह आँखें फाड़े देखती रह गई। वह, जो उस पर पूरी तरह निर्भर था, जो उसके सहारे के बिना लुंज-पुंज जहाँ का तहाँ पड़ा रहता था, बिना उसकी इजाज़त लिए आज इस क़दर जागृत, चौकन्ना और क्रियाशील दिखायी दे रहा था। पर उस हिस्से की सारी मेहनत और तरकीब बेकार गई। साहब फिर कटे हुए पेड़ की तरह ढह गए और कराहने लगे।
उसने फ़ौरन डॉक्टर-हकीम बुलाए। डॉक्टर ने मुआयना किया और बताया कि साहब की गर्दन और पीठ की शिराओं में संकुचन हो गया है और ऐसा बरसों से साहब के एक ही ओर झुके रहने के कारण हुआ है। साहब कार में बैठते तो एक ओर झुककर अख़बार पढ़ते, चेयरमैन की कुर्सी पर बैठे फ़ोन पर बतियाते तो एक ओर झुककर, दाहिने हाथ से खाना खाते तो ऐसे जैसे बाईं ओर बैठे किसी दूसरे के मुँह में निवाला डाल रहे हैं।
साहब का शरीर जो बाईं ओर को टेढ़ा हुआ कि सीधा होने का नाम ही न ले। यहाँ तक कि जब वह चलते तो भी पीसा की मीनार की तरह उनका एक ओर को झुकाव दूर से ही देखा जा सकता था। अब, जब कि वह सीधा होना चाहते थे तो रीढ़ की हड्डी ने जवाब दे दिया था। उसकी लोच ख़त्म हो गई थी और वह धातु की तरह सख़्त और एकजोड़ थी। ज़रा-सा हिलना डुलना उनके लिए असह्य था और उस ओर हल्के से दबाव से भी हड्डी में तरेड़ आने की सम्भावना थी।
पचासों दवाइयाँ, इंजेक्शन, ट्रैक्शन, डायाथर्मी यानी हर सम्भव इलाज किया गया, पर साहब की कराहों में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। दिन, हफ़्ते, महीने गुज़रते गए। डॉक्टर ने ऐलान कर दिया कि यह मर्ज़ लाइलाज है और वह पहले की तरह अब कभी दफ़्तर नहीं जा पाएँगे। उनकी शिराओं को मुलायम करने के लिए व्यायाम करवाए जाने लगे। वह साहब के लिए दूध, सूप या फलों का रस लेकर आती तो देखती, उसका वह तीन चौथाई हिस्सा पहले से उन्हें व्यायाम करवाने और तीमारदारी में जुटा है।
आख़िरकार दोनों की मेहनत रंग लायी। साहब बिस्तर से ख़ुद उठकर बैठने लगे, ख़ुद चलकर ग़ुसलख़ाने जाने लगे। दफ़्तर से फ़ाइलें घर पर आने लगीं और साहब ने घर पर ही दफ़्तर खोल लिया। डॉक्टर ने देखा तो उन्हें धीरे-धीरे चलने की हिदायत दे दी। उनके लिए एक ख़ास क़िस्म की छड़ी बनवायी गई जिसे एडजस्ट कर छोटा-बड़ा किया जा सकता था। वह छड़ी उनके दाएँ हाथ में थमा दी गई। पर साहब का बायाँ हिस्सा इतना कमज़ोर हो चुका था कि उसे भी सहारे की ज़रूरत थी। उस हिस्से के लिए लकड़ी या मेटल की मज़बूत छड़ी कारगर नहीं थी। उस ओर के लिए एक ऐसी छड़ी दरकार थी जो साहब के बाएँ हिस्से के अनुरूप अपने को हर माप के साँचे में ढाल सके। इसके लिए उस तीन बटा चार माँस के लोथ से ज़्यादा लचीला और क्या हो सकता था? साहब को बड़ा-छोटा, ऊँचा-नीचा जैसा सहारा चाहिए होता, वह पलक झपकते अपने को उस आकार में ढाल लेता। उसने देखा, साहब की तबीयत में सुधार होने के साथ-साथ उसका वह तीन चौथाई हिस्सा भी सेहतमंद हो रहा था। अब भी रात-भर साहब के पैताने जागने के बावजूद उसकी साँसों में शिथिलता नहीं रही थी। अब उसे ढूँढना नहीं पड़ता था। बाक़ी की ज़िन्दगी के लिए साहब की बग़ल में उसकी जगह सुनिश्चित हो चुकी थी।
पल्लवी विनोद की कविता 'अवसाद में डूबी औरतें'