कारखानों के धुएँ का रंग,
काला होता है क्योंकि,
उसमें लगा है खून,
किसी मरी हुई तितली का, फूल का, शजर का
धुआँ जो फैला हुआ है ज़मीन से आसमान तक
उसके हाथों में है एक खंजर,
घोंपा है उसने उसे धरती की पीठ पर,
चीरा है हरियाली के श्वसनतंत्र को,
छलनी कर रहा है धूप की आँख को,
ये हत्यारा है, विनाशक है, लुटेरा है,
पर क्या ये धुआँ ही है जिम्मेदार अकेला?
या कोई और,
क्योंकि धुआँ केवल धुआँ नहीं
एक मरण का संसार है,
शमशान है, नरक है,
जिसमें जलती है हर दिन हजारों बाग की चिताएँ
फूलों की चिताएँ, नदियों की चिताएँ,
हवाओं की चिताएँ, पौधों की चिताएँ,
नहीं जलती उसमें तो लालच की चिताएँ,
और भोग की चिताएँ,
क्योंकि लालच के वीर्य और भोग की कोख से ही है जन्मा धुआँ,
धुएँ का रंग होता है काला क्योंकि,
लगा है उसमें प्रकृति के हर बच्चे का खून,
और मरे हुए खून का रंग होता है काला,
धुआँ काला होता है क्योंकि…

विजय ‘गुंजन’
डॉ विजय श्रीवास्तव लवली प्रोफेशनल यूनिवसिर्टी में अर्थशास्त्र विभाग में सहायक आचार्य है। आप गांधीवादी विचारों में शोध की गहन रूचि रखते हैं और कई मंचों पर गांधीवादी विचारों पर अपने मत रख चुके हैं। आपकी रूचि असमानता और विभेदीकरण पर कार्य करने की है। हिन्दी लेखन में विशेष रूचि रखते हैं और गीत, हाइकु और लघु कथा इत्यादि विधाओं में लिखते रहते हैं। विजय का 'तारों की परछाइयां' काव्य संग्रह शीघ्र प्रकाशित होने वाला है | विजय फगवाड़ा पंजाब में रहते हैं और उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है।