“हम यहाँ से निकलकर कहाँ जाएँगे?” — शिल्पा ने अनिमेष के कंधे पर सिर रक्खे कहा।
“जहाँ क़िस्मत ले जाए!” — अनिमेष की आवाज़ में एक कश्मकश-सी थी।
“सचमुच?”
“हाँ! सचमुच!”
“सचमुच जाओगे न?”
अनिमेष चुप रहा। कुछ देर तक दोनों यूँ ही ख़ामोश खिड़की पर बैठे ख़ला में तकते रहे। टुकड़े-भर का चाँद दूर किसी लम्बी इमारत के बिजली एन्टीना में अटका मालूम हो रहा था। बहुत हल्की-सी चाँदनी इमारतों के निओन लाइट्स में घुल-मिलकर खोती जाती थी। रंग-बिरंगी नीम-रौशनी के परदे पर शिल्पा नज़रें टिकाए अपना मुस्तक़बिल ढूँढने में थक रही थी। अनिमेष ने कन्धा उचकाते हुए पॉकेट से सिगरेट की डिब्बी और लाइटर निकाली, जिस पर जिमी हेंड्रिक्स की तस्वीर चस्पाँ थी। कंधे के हलके झटके से शिल्पा का सिर सीधा हो गया और मुस्तक़बिल का सारा मंज़र वापस निओन लाइट्स में खो गया। अनिमेष के हाथ से शिल्पा ने एक कश भरी, सामने रखे फ़ोन पर एक उदास नग़मे के साथ ‘घोष बाबू’ का नाम चमका।
चेहरे पर एक थकी-सी मुस्कान लिए घोष बाबू को शिल्पा ने अपनी शादी के एक हफ़्ते पहले देखा था। उनके सौम्य चेहरे पर ठहरा मोटा ऐनक और होंठों पर सिमटी बेबस मुस्कान को देखकर कोई भी इस बात का मुंकिर नहीं हो पाता था कि वे अन्दर से टूटे और हारे हुए शख़्स हैं।
दुनिया के तमाम लोगों की तरह शिल्पा भी चाहती थी कि उसे किसी से मुहब्बत हो, वो भी किसी के साथ बैठे-बैठे सपने देखती रहे। वो भी अपनी तमाम परेशानियाँ और ग़लतियाँ किसी को पूरी बेशर्मी के साथ बता सके और सामने वाला उसकी बात सुनकर उसपर किसी तरह की राए भी इख़्तियार न करे।
मुहब्बत वालों की अपनी दुनिया होती है, जिसके क़ायदे-क़वानीन किसी किताब के सफ़्हों पर तो रक़म नहीं है मगर मुहब्बत करने वाला शख़्स पूरी आज़ादी के साथ उन क़वानीन के ज़ेर ए साया मुहब्बत करते हुए हर पल के पल को जश्न ए जम्हूरियत की तरह मनाता है। मुहब्बत, जिसमें कि इंक़िलाब भी है, इंसानियत भी और इबादत भी, जम्हूरियत का सबसे बेहतरीन रूप है।
उम्र के साथ शिल्पा की ज़िन्दगी में ऐसा मौक़ा नहीं आया कि वो किसी से मुहब्बत कर सके या कोई उससे। वो ग़ालिबन पच्चीस की रही होगी जब उसकी बेवा माँ ने उसके लिए रिश्ते देखने शुरू किए। ऑफ़िस की मसरूफ़ शिल्पा भले अपनी माँ को ये कहती कि उसकी ज़िन्दगी ऐसे ही बेहतर है, अकेली और आज़ाद लेकिन माँ भी कभी इस दौर से गुज़री थी, वो भी कभी बिन ब्याही लड़की थी। उसे सब पता था। रिश्ते आते मगर मुआमला जमता न था। इसी बीच बिनोय बाबू ने परशुराम घोष के बारे में बताया। माँ का इन्तेक़ाल कोई महीने भर पहले हुआ है और यहाँ का घर बेचकर तीस-चालीस लाख रूपए उसके अकाउंट में जमा हो चुके हैं। माँ के इन्तेक़ाल के बाद अब घोष बाबू यहाँ नहीं रहना चाहते हैं। ये ठीक है कि हिन्दू रीति-रवाज में मौत के बाद लगभग एक साल तक कोई शादी ब्याह नहीं होता, लेकिन अगर शिल्पा और उसकी माँ राज़ी हों, तो घोष बाबू भी तैयार हैं शादी के लिए। माँ की मौत के एक महीने के अन्दर ही शादी—देखने-सुनने में किसी को शायद ये बात अजीब भी लगे, लेकिन हर कोई ये कहाँ जानता है कि घोष बाबू की माँ की आख़िरी ख़्वाहिश यही थी कि वह अपनी बहू का चेहरा देख सके।
घर बिकने के साथ ‘घोष बाड़ी’ नाम की एक कुल्लियात सुपुर्दे-वक़्त हुई, जिसका एक सफ़्हा अब जाने कहाँ-कहाँ उड़ता फिरेगा। बिनोय दा इस परिवार के बेहद क़रीबी लोगों में थे, जिसकी सबसे बड़ी वजह थी कि घोष बाबू के वालिद एक कट्टर कम्युनिष्ट थे। एक वक़्त में उनका बरामदा ऐसे लोगों से भरा होता, जो इश्तरकिया फ़लसफ़ों पर बातें ही नहीं बल्कि अमल भी करते थे। हालाँकि दो बरस पहले घोष बाबू के वालिद की मौत के बाद वो बरामदा तो ख़ाली रहने लगा पर बिनोय दा हमेशा आते-जाते रहे। माँ, घोष बाबू के वालिद की मौत के बाद से ही थोड़ी बीमार रहने लगी। धीरे-धीरे उन्होंने बरामदे में ही एक खटिया पकड़ ली। उन्होंने अपने जीते-जी कई बार घोष बाबू की शादी करवाने की कोशिश की। जब भी कभी लड़की वाले घोष बाबू का घर वग़ैरह देखने आते, तो माँ अपने बिस्तर ए मर्ग से ही बंगला में कहती—
“मेरा बेटा पढ़ाई में बहुत अच्छा था। एमएससी में गोल्ड मैडल मिला है इसे… नौकरी भी अच्छी है लेकिन अपने जन्नत-क़याम बाप की तरह सरकारी नहीं है… और अब वैसे भी प्राइवेट का ज़माना है…”
माँ की बातों के दौरान लड़की इस फ़िक्र में पड़ जाती कि शादी के बाद इस खाट-लगी बुढ़िया की सेवा करनी होगी, जिससे उसका कोई ज़ाती या जज़्बाती त’अल्लुक़ नहीं है। और तीसरे-चौथे दिन रिश्ते के लिए ‘ना’ का पैग़ाम आ जाता। इस तरह बूढ़ी माँ मरते हुए अपनी बहू का चेहरा नहीं देख पायी। बिनोय दा शायद इसीलिए भी चाहते थे कि घोष बाबू शहर छोड़ने से पहले अपना घर बसा लें। यहीं से एक नई ज़िन्दगी की शुरुआत करते चलें।
शिल्पा की माँ समझ रही थी कि शायद शिल्पा इस रिश्ते के लिए ना कर दे। लेकिन शिल्पा को उस टूटे शख़्स पर तरस आया या मुहब्बत पता नहीं, वो शादी के लिए मान गई। उसकी हाँ को एक हफ़्ते नहीं गुज़रे कि कम लोगों और हल्के इंतज़ाम के साथ दोनों की शादी हो गई और दोनों लेकटाउन के एक महँगे फ़्लैट में आकर रहने लगे। शिल्पा सोचती कि आज नहीं तो कल घोष बाबू से उसे मुहब्बत हो जाएगी, इधर घोष बाबू शिल्पा की ख़ुशियों में कोई कसर नहीं छोड़ते। हर दूसरे दिन कहीं डिनर… कहीं घूमना…। ऑफ़िस जाना शुरू हुआ तो हर शाम कुछ न कुछ नया खाने को ज़रूर लाते, जिसमें उसकी पसंद की फ़िश फ़्राई और उसके पसंद का फूल ज़रूर होता था। शिल्पा भी उनके साथ बेहद अपने-पन से पेश आती। वो उनके लाए फूलों को चूमती, उन्हें हँस-मुस्कराकर देखती और जैसे ही वो आँखों से ओझल होते, एक उदासी घिर आती। वो सोचती कि क्या मुहब्बत उसकी क़िस्मत में इसी रूप में लिखी हुई है? क्या उसे इन्हीं फूलों और चीज़ों में मुक़य्यद होना है? क्या उसकी ज़िन्दगी यहीं तक रह जाएगी? उधर आँखों से ओझल हुए घोष बाबू के चेहरे पर भी एक अजीब-सा ग़म तारी हो जाता। होंठों की रही-सही मुस्कान भी ग़ायब हो जाती और पलकें भीगने लगतीं। दोनों किन्ही रिश्तों में एक-दूसरे के हमसफ़र तो थे, पर हमराज़ ज़रा भी नहीं। घोष बाबू ने कभी अपने बारे में खुलकर शिल्पा से बातें नहीं कीं और न शिल्पा को ही ऐसा लगा कि वो अपनी बातें घोष बाबू से कर सकती है। जैसे दो अलग सय्यारे एक कमरे में क़ैद, जिनका कोई भी अनासिर एक-सा नहीं। वो तो भला हो इन बाज़ारों का कि इस ख़ालीपन को चीज़ों से भरने की कोशिश की जाती है, (और क्या पता इस ख़ालीपन को इन्हीं बाज़ारों ने जन्म दिया हो)। लेकिन जब बाज़ार भी नहीं होते, तो शिल्पा और गहरी उदासी में क़ैद हो जाती। उसे अपनी ज़िन्दगी एक ट्रैप लगने लगी, जिससे बचने का सबसे आसान तरीक़ा ख़ुदकुशी होता है।
लगभग छः महीने गुज़र गए। सामने वाले फ़्लैट में कोई नया आदमी आया है। लेकिन अब तक शिल्पा या घोष बाबू से कोई जान-पहचान नहीं हो सकी है। बस फ़्लैट के अन्दर से वेस्टर्न म्यूज़िक की आवाज़ें आती हैं, अक्सर एसआरवी, हेंड्रिक्स और अल्बर्ट किंग… कभी-कभी माइल्स डेविस और जॉन कोल्ट्रेन भी…
एक शाम शिल्पा यूँ ही पार्क में टहल रही थी। सामने बच्चे छोटे-छोटे झूले पर सवार थे। उन्हें देखते हुए वो एक बेंच पर आ बैठी। कुछ देर बाद एक नये आदमी की आमद ने उसका ध्यान तोड़ा। पहनावे और दाहिने हाथ पर छपे एक टैटू से किसी रॉक बैंड का गिटारिस्ट मालूम हो रहा था।
“मेरा नाम अनिमेष है। चौथे तल्ले पर…”
बात आधी रखते हुए उसने सिगरेट जलायी और डिब्बे को शिल्पा की ख़िदमत में आगे बढ़ाया। शिल्पा ने मना करते हुए कहा, “जी आपके फ़्लैट से हमारे फ़्लैट में अक्सर आवाज़ आती है अंग्रेज़ी गानों की।”
“वो पुराना शग़ल है। मन था कि इंडिपेंडेंट म्यूजिशियन बनूँ। पर ज़िन्दगी…” अनिमेष कहते-कहते चुप हो गया।
“हाँ ज़िन्दगी… ऐसा लगता है जैसे मरकज़ हर जगह, हर लम्हा हो और दाएरा कहीं नहीं।”
“दुनिया भी ऐसी ही है”, अनिमेष ने बात पूरी की, “मरकज़ हर जगह और दाएरा कहीं नहीं… वैसे आपका पसंदीदा बैंड कौन सा रहा है?”
अनिमेष ने ये सवाल किया और धीरे-धीरे दोनों के पसंद मिलती गई। मुलाक़ातें बढ़ीं, फिर चाहे-अनचाहे दोनों अपनी ज़िन्दगी के अच्छे-बुरे काम और सच्ची-झूठी बातें एक-दूसरे से साझा करते रहे। कोई किसी के लिए राए क़ायम नहीं किया करता। और धीरे-धीरे दोनों समझ गए कि वो एक-दूसरे से मुहब्बत करने लगे हैं। दिन में जब घोष बाबू दफ़्तर में होते तो ज़ियादा तर वक़्त दोनों साथ गुज़ारा करते। और रात को अनिमेष बोस काम पर होता और घोष बाबू और शिल्पा साथ।
शिल्पा जल्द से जल्द इस दोहरी और मुतवाज़ी ज़िन्दगी से नजात चाहने लगी थी। उसकी अनिमेष के साथ अपने रिश्ते के मुस्तक़बिल को लेकर बातें होने लगी थीं। शिल्पा पहली बार किसी के लिए अपनी मुहब्बत में शिद्दत महसूस कर रही थी, जिस शिद्दत के ज़ेर ए साया घोष बाबू समझते कि यही अस्ल मुहब्बत है। साया ही रूप है। शिल्पा ने घोष बाबू के साथ अपने रिश्ते में किसी तरह कंजूसी नहीं की, पर उसे इस दोहरेपन से निकलना था। वरना ये तीन ज़िन्दगियाँ नरक का वो मरकज़ बन जाएँगी जिसका दायरा कहीं न होगा।
ऐसी ही एक शाम, जब शिल्पा और अनिमेष बालकनी में बैठे सितारे देख रहे थे, उस वक़्त देखे जा रहे सितारों से अनजान घोष बाबू का नाम उसके फ़ोन स्क्रीन पर एक उदास नग़मे के साथ झिलमिलाया।
“हलो!” शिल्पा ने बेहद शांत आवाज़ में कहा।
“आप मिसेज़ घोष बात कर रही हैं?”
ये किसी और की आवाज़ थी और आवाज़ में व्यापारियों-सा लहजा था।
“मैं सुषमा नर्सिंग होम से बात कर रहा हूँ। आपके पति कुछ वक़्त पहले यहाँ दाख़िल किए गए हैं। आप फ़ौरन यहाँ आ जाएँ।”
एक पल को शिल्पा को ऐसा लगा कि सारे सितारों ने अपनी जगह बदलना शुरू कर दी है। इससे पहले कि अनिमेष कुछ पूछता-समझता, वो अनिमेष और उसकी साझी दुनिया से निकलती भागती बाहर आ गई।
अस्पताल में उन्हें नार्मल वार्ड में रक्खा गया है। यानि बहुत ज़ियादा घबराने की बात नहीं है। हालाँकि चेहरे पर ऑक्सीजन मास्क ज़रूर था। वो टेबल पर बैठे घोष बाबू का हाथ थामे किसी ख़याल में गुम थी कि डॉक्टर दाख़िल हुए।
“फ़िक्र बहुत करते हैं ये। पल्स रेट और ब्लड प्रेशर काफ़ी ऊपर था।”
“पर… इन्हें यहाँ लाया कौन?”
“इनके कलीग्स!” पीछे से आती नर्स ने कहा, “वो तो अच्छा हुआ कि इनके फ़ोन में कोई लॉक नहीं था और हम आपको फ़ोन कर सके।”
“अभी कोई कलीग हैं?”
“नहीं सब चले गए। ”
शिल्पा ने सिर झुकाया।
“आप इनका ख़याल रखिए। कोई आपसी बात हो, तो जल्द से जल्द सुलझा लीजिए। कभी-कभी किसी हस्सास इंसान की जान पर बन आने के लिए ज़रा-सा गिल्ट काफ़ी होता है।”
डॉक्टर चले गए। शिल्पा की जान उसके जिस्म से जैसे एक पल को हवा हो गई। तो क्या घोष बाबू उसके और अनिमेष के बारे में सब जान चुके हैं? क्या यही वजह कि वो आज यहाँ एडमिट हैं? उस रात वह उन्हीं के साथ ठहरी। न चाहते हुए भी ख़ुद को घोष बाबू का गुनाहगार समझते हुए वो उस रात के बोझ तले दबी जा रही थी। एक पल को मन हुआ कि वो अनिमेष को फ़ोन करे लेकिन अगले ही पल लगा जैसे वो फ़ोन के साथ अपना सिर भी दीवार पर दे मारे। उसे अपना और अनिमेष का रिश्ता बहुत घिनौना लगने लगा। वो अपने और अनिमेष की क़ुर्बतों को याद करती और क़ुर्ब के उन लम्हों में उसे ख़ुद से नफ़रत होती जाती। उसे अपनी माँ का ध्यान आया जिसने अपनी पूरी ज़िन्दगी एक आदमी के साथ गुज़ारी थी और उस आदमी की मौत के बाद आज वो ख़ुदा के रहम पर ज़िंदा है। आख़िर वो क्या शय थी कि पुराने वक़्तों में जिनके साथ जिनका रिश्ता जोड़ दिया जाता, ज़िन्दगी-भर वे उसे ही ढोते फिरते थे। हाँ, शायद पैट्रिआर्क का बहुत बड़ा असर रहा होगा, पर आज तो रिश्ते बनाने की काफ़ी आज़ादी है, पर इस आज़ादी के बाद कितने लोग मानिखेज़ रिश्ते बना पा रहे हैं, कितने लोग ख़ुश हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि तरक़्क़ी के साथ-साथ दुःख और ख़ुदपरस्ती ही हमारा स्वभाव बनते जा रहा है।
अगली दोपहर उनका ऑक्सीजन मास्क हटा। अब तक शिल्पा और उनकी बात नहीं हुई थीं। शिल्पा के मन में एहसास ए गुनाह ने इस क़दर घर कर लिया था कि उसके हलक से रोटी का लुक़मा भी बड़ी मुश्किल से नीचे उतर रहा था। उसे उनके सामने जाते हुए भी डर-सा लग रहा था। जब हम किसी के लिए अनजाने में बेरहम हो जाते हैं और हमारी बेरहमी के बावजूद वो ज़िन्दगी करने से बाज़ नहीं आता, तो उससे दुबारा नज़रें मिलाना बेहद मुश्किल और हिम्मत का काम मालूम होता है।
घोष बाबू अपने कमरे में सिर झुकाए बैठे थे। ऐनक दवा की टेबल पर पड़ी हुई थी और ख़ुद एक ऐसी संजीदगी में गिरफ़्त मालूम हो रहे थे कि जिसका दूसरा छोर ज़िन्दगी के उस पार मालूम होता था। शिल्पा एक आहट के साथ कमरे में दाख़िल हुई। घोष बाबू ने उसे देखा और उसी पुरानी मुस्कान के साथ अपनी पीठ दीवार से लगायी। शिल्पा पास आकर बैठी पर उसकी नज़रें मुसलसल ज़मीन पर टिकी हुई थीं। घोष बाबू ने बंगाली में पूछा, “क्या हुआ?”
“कुछ नहीं।” शिल्पा ने सिर हिलाया, उसकी आँखों में आँसू आ गए।
“ज़रा सी तबियत ख़राब हुई, इसमें रोने जैसा क्या है…”
इसी बीच डॉक्टर साहब दाख़िल हुए।
“और कब तक डॉक्टर साहब?” घोष बाबू ने पूछा।
“ज़ियादा दिन नहीं… बस आज और कल देख लेते हैं, फिर छुट्टी।” डॉक्टर मुस्काते हुए अचानक संजीदा हो गया और बात आगे बढ़ायी, “एक बात ज़रूर है। अगले पंद्रह-बीस दिनों तक बग़ैर किसी चिंता-फ़िक्र के बस हाथ-पाँव पसारे आराम करना होगा।”
“किन्तु ऑफ़िस?”
“छुट्टी ले लीजिए न!”
शिल्पा की इस बात पर डॉक्टर मुआहदे के साथ अपने शाने उचकाते हुए एक भीनी-सी मुस्कान के साथ वहाँ से चले गए। अगले दो दिनों तक कोई नया मरज़ नहीं आया। लेकिन शिल्पा किसी भी तौर अपने एहसास ए गुनाह से बाहर नहीं आ पायी। वो दिमाग़ पर ज़ोर डालकर सोचती रही कि क्या उसने कोई ऐसी बात घोष बाबू को कभी कही है, जिससे उनके मन को ठेस पहुँचा हो। ऐसा कुछ भी याद नहीं आया सिवाय इस बात के कि उसका अनिमेष के साथ एक ता’ल्लुक़ है।
आज की रात अस्पताल में आख़िरी रात थी। शिल्पा कॉरिडोर में टहल रही थी। एक पल को उसने तय किया कि जैसे वो अभी जाकर सब कुछ घोष बाबू को बता देगी। उसी वक़्त लिफ्ट से एक स्ट्रेचर बाहर निकला। उसपर कोई आदमी था जिसकी कलाई कटी हुई थी। सब इमरजेंसी वार्ड की तरफ़ भाग रहे थे। शिल्पा के अन्दर एक अनजान सनसनाहट तारी हुई। वो भागती हुई घोष बाबू के केबिन के पास आयी तो देखा कि घोष बाबू दरवाज़े पर खड़े हैं।
“कोई सीरियस मामला है?” उन्होंने इमरजेंसी वार्ड की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा।
“नहीं आप… आप अंदर चलिए, यहाँ क्या कर रहे हैं?”
“तुम्हें ही ढूँढ रहा था। कुछ बातें करनी हैं।”
दोनों कमरे में आ गए। शिल्पा ने बड़ी बत्ती बुझा दी, मानों सच्चाई का चेहरा नहीं देखना चाहती हो। अब कमरे में एक मद्धम-सी रौशनी तैर रही थी, जो खिड़की से छनकर कमरे में आ रही थी।
“अरे…” घोष बाबू की आवाज़ में एक छोटी-सी हँसी, “अच्छा किया, उजाले में अपना गुनाह क़ुबूल करना दुनिया के सबसे मुश्किल कामों में है। अँधेरे में हम खुलकर बात कर सकते हैं।”
“मैं कुछ पूछना चाहता हूँ तुमसे…” घोष बाबू की आवाज़ बदली।
“हम्म!” शिल्पा ख़ामोश रही।
“क्या तुम एक ऐसे इंसान के साथ ताउम्र रह सकोगी, जो चौबीसों घंटे अपने एहसास ए जुर्म में मुब्तिला रहता हो। हर वक़्त एक गिल्ट जिसका पीछा कर रहा हो।”
“हम सभी में कोई न कोई गिल्ट ज़रूर है।”
“मैं शुरू से बताता हूँ।” घोष बाबू ने बताना शुरू किया।
“तुमने मुझे शादी से एक हफ़्ते पहले देखा था, तब मेरी माँ को मरे एक महीने हुआ था। तुम्हें शायद मुझ पर दया आयी होगी कि मैं शायद एक बहुत बड़े दुःख के दरिया में लहरों से दो-दो हाथ कर रहा हूँ। पर सच मानो मैं ज़रा भी दुखी नहीं था। इसे मेरी बेशर्मी कह लो या एक ओछी सच्चाई। मुझे अपनी माँ की मौत का ज़रा-सा भी दुःख नहीं था। मैं तो उसके मरने के बाद बेहद चैन और सुकून से जीने लगा था। लेकिन यक़ीन करो पल-भर का चैन उम्र-भर के अज़ाब में भी तब्दील हो सकता है। दो दिन का सुकून उम्र-भर की गिल्ट बन सकता है।”
“मैं समझ नहीं पा रही।”
“समझ जाओगी। पर वादा करो कि समझ जाने के बाद भी मुझ से इसी तरह प्यार करोगी, मुझे जज नहीं करोगी, कोई राय क़ायम नहीं करोगी।”
“आप कहिए!” शिल्पा को ख़ुद पर यकीन था कि वो जज नहीं करेगी।
“सुनो… जादवपुर में ग्रेजुएशन के दौरान ही मेरे बाबा की मौत हो गई थी। और मास्टर्स तक आते-आते माँ की तबियत ऐसी ख़राब रहने लगी कि हर वक़्त किसी न किसी का साथ रहना ज़रूरी था। मैंने होस्टल छोड़कर घर से ही मास्टर्स किया। नौकरी शुरू हुई। दिन-भर ऑफ़िस में रहना और रात को माँ की सेवा। रोज़ ही कोई न कोई दवा ख़त्म, कोई न कोई नयी ज़रूरत… ऑफ़िस के बाद मेरे दोस्त पब में जाते मगर मुझे इसकी छूट नहीं थी, कभी मुश्किल से घर पर एक छोटी-सी व्हिस्की ला पाता था और उसे भी इतना ही पी पाता कि जितने में आधी रात को उठने जैसी हिम्मत बरक़रार रहे। कभी-कभी माँ अँधेरे में अचानक रोने लगती। थोड़ी ऊँची आवाज़ में। मैं पास जाकर बत्ती जलाता और पूछता तो अगले ही पल चुप हो जाती। कुछ था जिसे वो हमेशा मुझसे छिपाती रहती थी। ख़ैर! वो जो भी था उनका ज़ाती था, मैं उसमें हिस्सादर नहीं बनना चाहता था। लेकिन बग़ैर हिस्सादार बने भी मैं उतनी ही अज़ीयत झेल रहा था, जितनी माँ। मेरे दिन और रात जैसे किसी रिमोट से तय होते, जिसका कण्ट्रोल माँ के हाथ में था। मेरी महबूबा ने मेरा साथ इसीलिए छोड़ दिया कि उसे मेरी माँ के साथ रहना होता। जब कभी कोई रिश्ता आया तो उन्होंने माँ की वजह से इंकार कर दिया कि उनके बेटी को एक ऐसी खाट-लगी बुढ़िया की सेवा करनी होगी, जिससे उसका कोई नाता नहीं है। मेरे पास ज़ाती ज़िन्दगी जैसा कुछ नहीं था। माँ के पास तो फिर भी कम अज़ कम उनका दुःख था, जो उन्हें उनके होने का एहसास कराता रहता था। फिर धीरे-धीरे मैंने डॉक्टर बुलाना कम कर दिया। माँ को कह दिया करता कि डॉक्टर मसरूफ़ हैं, यहाँ गए हैं, वहाँ गए हैं। उधर डॉक्टर को बताता कि माँ अभी तंदुरुस्त है। उनकी दवा ने बेहद अच्छा काम किया। बस थोड़ी कमज़ोरी है और कुछ नहीं। पर हक़ीक़त तो ये थी कि कमज़ोर मैं पड़ रहा था। मैंने कुछ दिनों तक ज़रूरत से ज़ियादा माँ का ख़याल रखा।”
घोष बाबू ख़ामोश हो गए। कुछ देर तक कमरे में कोई आवाज़ न थी।
“आप की माँ जब ठीक ही थीं, तो डॉक्टर को न बुलाना समझ आता है।”
“नहीं अभी बात ख़त्म नहीं हुई। कुछ दिनों तक माँ का ख़याल रखने के बाद मैंने उनके खाने-पीने के सामानों में स्लो पॉयज़न देना शुरू किया। मुझे यक़ीन था कि उनके ज़ईफ़ बदन में स्लो पॉयज़न तेज़ी से काम करेगा। उनके दूध, फल, लगभग हर चीज़ में स्लो पॉयज़न इंजेक्ट किया करता।”
घोष बाबू फिर चुप हो गए। जैसे किसी पछतावे में चुप हुए हों। उन्होंने हाथ बढ़ाकर टेबल से पानी की बोतल उठायी। कुछ पल तक पानी पिया। उनके हलक से उतरती हुई पानी की आवाज़ अब शिल्पा के अन्दर एक अजीब-सा डर तारी कर रही थी। पानी पीकर उन्होंने शिल्पा की तरफ़ बोतल बढ़ायी। शिल्पा ने बोतल ली ज़रूर लेकिन पानी पी न सकी। कुछ देर तक दोनों यूँ ही बैठे रहे और फिर घोष बाबू ने कहना शुरू किया।
“एक महीना गुज़र गया। माँ अब तक नहीं मरी लेकिन उसकी आँखों की रौशनी जाने लगी, दिमाग़ी परेशानियाँ भी शुरू हुईं। कभी मुझे अचनाक बड़ी-बड़ी आँखों से देखतीं, मानों उन्हें स्लो पॉयज़न के बारे में पता है। कभी मुझे अपने बाबा यानी मेरे नाना के नाम से पुकारने लगतीं। कभी मेरे बाबा का नाम लेकर गालियाँ देतीं और कभी वही पुराना रोना। एक महीने तक लगातार स्लो पॉयज़न शरीर में जाने के बाद भी वो मर नहीं रही थीं, शायद उनका गिल्ट उनकी जान के आड़े आ रहा था।
एक शाम बहुत तेज़ बारिश हो रही थी। मैं घर पहुँचते हुए भीग गया। शनिवार था तो सारे कपड़े धुलने के लिए रखे हुए थे। मैंने बाबा का एक कुरता पहन लिया। वो क़ीमती कुरता था। मैंने बाक़ी कपड़ों के साथ उसे बाबा की अर्थी में नहीं रखा था। अपने कमरे में बैठा मैं ‘सैयद मुस्तफ़ा सिराज’ की कोई किताब पढ़ रहा था कि अचानक माँ के चीख़ने की आवाज़ आयी। दौड़कर उनके कमरे में गया तो देखा की फ़र्श पर साँप रेंग रहा है। मैंने उसे कमरे से बाहर किया और माँ ने रोना शुरू किया, ‘अरे! तुम आ गए!’
…मुमकिन है कि उनके पागल दिमाग़ को बाबा का कुर्ता देखकर बाबा का हिस्टीरिया हुआ हो। माँ कुछ मुआफ़ी माँगने के लहजे में रोती रही। मैं कुछ देर तक यूँ ही ख़ामोश खड़ा रहा कि शायद माँ कोई राज़ बताए, कुछ बोले लेकिन रोती हुई वो एक दफ़ा धम्म से अपने पलंग पर गिर पड़ी।
उस रात दूध गरम करते-करते मैं माँ के इस रोने का मतलब निकालने की पूरी कोशिश करता रहा। ये रोना जो उसके पागल होने के बाद भी उसी अंदाज़ का था जो पागल होने से पहले था। माँ-बाप की ज़िन्दगी में वाक़ई वो पहलू भी होते हैं, जो वो अपने बच्चों से साझा नहीं करते, मुझे उसी दिन पता चला। मैं सोचने लगा कि माँ को स्लो पॉयज़न देने के गिल्ट में क्या मुझे भी ऐसी दर्दनाक मौत नसीब होगी! ये सोचते हुए मैंने उस रात डोज़ दुगुनी कर दी। पहली ग़लती ही हमारे हाथ होती है, जिसे न करके हम बच सकते हैं। एक ग़लती हुई तो उसके पीछे ग़लतियों की लड़ी लग जाती है। वो दुगुनी डोज़ आख़िरी डोज़ साबित हुई। माँ सुबह तक चल बसीं। मैंने चैन की साँस ली और उनका अंतिम संस्कार किया। उसी शाम बिनोय दा से घर बेचने की बात की। घर की साफ़-सफाई के दौरान माँ के दराज़ से वही स्लो पॉयज़न की डिबिया मिली, जिसे मैं अपनी दराज़ में माँ को देने के लिए रखता था। मैंने उन बोतलों को घर से दूर एक नाले में फेंक दिया। तेरह दिन बाद ऑफ़िस में ट्रांसफ़र की बात की। उस रात घर न जाकर दोस्तों के साथ पब में जाकर शराब पी। लेकिन उस दौरान दोस्तों के बीच उदास बने रहना पड़ा। और फिर तुमसे शादी हो गई।”
घोष बाबू ने एक लम्बी साँस छोड़ी। कुछ देर तक दोनों अँधेरे में बैठे रहे। उन्होंने फिर कहना शुरू किया।
“तुमसे शादी करके मैं बेहद ख़ुश हूँ। बस माँ का चेहरा भूल नहीं पाता। पिछले दिनों मुझे हर जगह माँ नज़र आती थीं। चाय की दुकान पर होता तो सिग्नल से मुझे देखतीं और ऑफ़िस में रहूँ तो खिड़की से। एक बार तो मटन शॉप में लटके बकरे के सिर के पास माँ का सिर लटका नज़र आया। हर वक़्त एक एहसास ए जुर्म मेरे साथ चलता है। शायद इसीलिए मेरी तबियत भी ख़राब हो गई। लेकिन मुझे यक़ीन है मुहब्बत बड़े से बड़ा एहसास ए जुर्म ख़त्म कर सकती है और इसीलिए मैं तुमसे बेहद मुहब्बत करता हूँ। या यूँ कह लो कि मुझ पर लाज़िम है कि मैं तुमसे बेहद गहरी मुहब्बत करूँ ताकि मेरी गिल्ट कम हो सके। तुम्हें ये सब कहकर मैं बेहद अच्छा महसूस कर रहा हूँ और तुम्हें कभी भी ख़ुद से अलग नहीं होने दूँगा।”
घोष बाबू ने शिल्पा की तरफ़ हाथ बढ़ाया, शिल्पा सहम गई। लेकिन इससे बेख़बर उन्होंने शिल्पा के हाथ से पानी की बोतल ली। उन्होंने पानी पिया और शिल्पा के क़रीब आकर बैठे। अपना सिर शिल्पा के काँधे पर रखा। शिल्पा का पूरा बदन घिन से काँप गया। उसके कान में घोष बाबू के आख़िरी अल्फ़ाज़ गूँजे, “तुम्हें कभी भी ख़ुद से अलग नहीं होने दूँगा।”
दिन गुज़रे। घर आए लगभग एक हफ़्ता गुज़र चुका था। इस बीच अनिमेष और शिल्पा की बातचीत कम हो गई थी। कुछ मजबूरन और कुछ अनिमेष की नज़रअंदाज़ी की वजह से। दिन-भर घोष बाबू की नज़रों के आगे रहना शिल्पा को अखरने लगा था। मगर किसी तरह वो अपने और घोष बाबू के वहम को बनाए रखती। हर शाम टहलकर घोष बाबू जब घर आते तो साथ में उसकी पसंद का कुछ न कुछ ज़रूर लाते और प्यार से उसके हाथ में थमा देते। शिल्प कश्मकश में पड़ जाती। सोचने लगती कि कहीं इसमें भी कोई स्लो पॉयज़न तो नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि घोष बाबू सब कुछ जानते हैं और न जानने का ढोंग कर रहे हैं। शिल्पा इस घर से नजात पाने की बात सोचने लगी। साथ में उसे हर वक़्त एक धड़का यह लगा रहता कि ऐन मौक़े पर अनिमेष भी कहीं उसे धोखा न दे दे।
एक शाम शिल्पा अकेली घर में परदे बदल रही थी कि घोष बाबू का फ़ोन आया। उन्होंने आज खाना बनाने को मना किया और कहा कि शहर के सबसे मशहूर बँगाली रेस्टुरेंट से डिनर लाने वाले हैं, बस आने में थोड़ी-सी देर होगी। घोष बाबू के लौटने में आज देर होगी। ये सोचकर वो अनिमेष के फ़्लैट में चली आयी। दोनों अपना-अपना कॉफ़ी मग थामे कुछ देर ख़ामोश रहे।
“तो! तुम नहीं जाना चाहते यहाँ से?” शिल्पा ने लगभग अपने आँसुओं को रोकते हुए पूछा।
“बात समझो! अब जाकर तो मुझे मेरी कम्पनी में वो पोजीशन मिली है जिसके लिए मैं पिछले एक साल से कुत्ते की तरह मेहनत करता रहा। पहली बार शायद मेरी ज़िन्दगी में कुछ बेहतर होने वाला है। मेरी तनख़्वाह बढ़ने वाली है। मेरा रुतबा बढ़ेगा। मैं एक झटके में ये सब छोड़कर तुम्हारे साथ नहीं आ सकता।”
“तो वो जो बातें तुम मुझसे किया करते थे? और वैसे भी, क्या कहीं और से इसी ऑफ़िस में काम नहीं किया जा सकता?”
“अ… शायद प्रमोशन के बाद मुझे विदेश जाना पड़े और मैं ऐसी हालत में इस वक़्त तो बिलकुल नहीं हूँ कि दो लोगों के ख़र्च सम्भाल सकूँ। एक बार मेरी तरक़्क़ी हो जाने दो…”
“तरक़्क़ी।.. एक तरक़्क़ी… फिर और एक… फिर और एक… इसका अंत कहीं नहीं होता अनिमेष। इसका मरकज़ तरक़्क़ी करने वाला तो होता है पर दायरा कहीं नहीं…”
अनिमेष का धोखा खाकर घायल हुई क़रीब-उल-मर्ग औरत शिल्पा कुछ देर को अपने हवास खो बैठी।
“कल शाम तुम मेरे साथ ये फ़्लैट छोड़कर चलोगे या नहीं?”
“नहीं… ये मुमकिन नहीं…” इससे पहले अनिमेष अपनी बात ख़त्म करता, शिल्पा ग़ुस्से में तमतमाते अपने आँसू ख़ुश्क करते उसके फ़्लैट से बाहर आ गई। वह मन ही मन अनिमेष से मुख़ातिब हुई सोचने लगी कि औरत अगर इस दुनिया में सबसे ख़ूबसूरत शै है तो ग़ालिबन सबसे ख़तरनाक ख़ुदाई करिश्मा भी वही है, जिसका इंतेक़ाम ज़िन्दगी का नहीं, बल्कि जन्मों का होता है। और तभी उसने उसके फ़्लैट से अपने फ़्लैट में आते वक़्त कुछ अपनी और अनिमेष की ज़ाती लम्हों की तस्वीरें सोसाइटी ग्रुप में डाल दीं। कुछ वक़्त बाद ग्रुप में ऐसे मैसेजेस आने लगे जो जजमेंटल तो थे, साथ में बेहद शरीफ़ाना भी। वो शराफ़त जो अकसर औरों को नीचा दिखाने के लिए अमल में लायी जाती है।
शिल्पा अपने कमरे में बैठी थी। उसकी आँखों से आँसुओं की धार लगातार बह रही थी। उधर घोष बाबू घर लौट रहे थे। दोनों हाथों में खाने के पैकेट और एक बेहद सुन्दर फूलों का गुच्छा था। सब था बस उनके चेहरे पर वो थकी-सी मुस्कान न थी। कम्पाउंड से लेकर लिफ़्ट तक लगभग हर कोई उन्हें एक तंज़िया मुस्कान के साथ देख रहा था। वो सबसे नज़रें बचाते हुए अपने फ़्लैट में आ गए। दरवाज़ा बंद हो गया। अगले मंज़र का लुत्फ़ लेने वो शख़्स भी हाथ में फाँसी का फन्दा लेकर हाज़िर हुआ जो ख़ुदकुशी करने वाला था। सुकरात भी कुछ देर को ज़हर का प्याला किनारे करके उनके दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ। दरवाज़े के बाहर एक भीड़ जमा हुई, जिसने कुछ देर के लिए बस एक चीख़ सुनी। शिल्पा की चीख़। अन्दर का मंज़र बनाने के लिए भीड़ को एक चीख़ मयस्सर हुई और लोग उस चीख़ की मंज़रकशी अपने तसव्वुर के हदूद के हिसाब से करने लगे। किसी को लगा कि ग़ुस्से में घोष बाबू ने शिल्पा को थप्पड़ मारा होगा, तो किसी ने सोचा कि चाकू गर्म कर उसकी पीठ पर रख दिया होगा। और सब अपने-अपने तसव्वुर से ख़ुश हो गए।
इसी तरह चार-पाँच दिन गुज़र गए। अब शिल्पा नज़र नहीं आती थी। ऐसा मालूम होता जैसे घोष बाबू ने उसे क़ैद कर दिया हो। अनिमेष अपनी तरक़्क़ी के बाद विदेश जाने से पहले आख़िरी बार उससे मिलना चाहता था। आख़िरी बार उससे मिलकर उसे ये एहसास दिलाना चाहता था कि उसके फ़ोटोज़ एक्सपोज़ होने पर भी उसे ज़रा फ़र्क़ न पड़ा, सोसाइटी में उसकी इज़्ज़त जस की तस बनी हुई है। उसकी तरक़्क़ी ने ये सब कुछ धो दिया है। शाम की फ़्लाइट थी। वो घूमता हुआ शिल्पा के फ़्लैट के पास आया। अचानक घोष बाबू आ खड़े हुए, मानों उसी का इंतज़ार कर रहे हों। शक्लो-सूरत पहले से बहुत ज़ियादा बिगड़ी हुई थी।
“अरे अनिमेष बाबू… आइए आइए… यहाँ क्या कर रहे हैं, अन्दर चलिए!”
अनिमेष के अन्दर हैरत और ख़ौफ़ एक साथ तारी हुआ।
“मुझे कोई शिकायत नहीं है शिल्पा से। मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ। उसके बिना रह नहीं पाता। लेकिन आज कल बस चुप रहती है। आप ही देखिए, शायद आपको देखकर कुछ बात करे।”
दोनों अन्दर दाख़िल हुए।
“न खाती है, न सोती है। बस ऐसे ही पड़ी रहती है।”
एक पल के लिए अनिमेष को घोष बाबू के हाल पर दया आयी। वो आकर हॉल के सोफ़े पर बैठा। घोष बाबू अपने कमरे में गुम हो गए। अन्दर से दो गिलास में जूस लेकर बाहर आए। एक अनिमेष के हाथ में देते हुए कहा, “आप ही समझाइए, अब।” और उसके सामने बैठ गए।
अनिमेष जूस पीते हुए कमरे में दाख़िल हुआ। बिस्तर बिखरा पड़ा था और शिल्पा उस बिस्तर में न थी। कमरे से लगा वाशरूम हल्का खुला हुआ था। वहीं दरवाज़े पर वो दुपट्टा नज़र आया जिसे ओढ़े वो आख़िरी दिन बात करने आयी थी। वो दरवाज़े के क़रीब गया। आवाज़ दी। पर न… जवाब नहीं आया। उसके दरवाज़ा खटखटाया कि दरवाज़ा हल्के से सरका और उसकी नज़र शिल्पा के पैर पर गई जो बाथटब के बाहर लटक रहा था। न चाहते हुए भी उसने दरवाज़ा खिसकाया। अन्दर झाँकते ही उसके बदन के पाँचों अनासिर जम से गए। उसने देखा—बाथटब में शिल्पा का गलता बदन उन्हीं कपड़ों में पड़ा हुआ है, जिसे पहनकर वो आख़िरी बार मिलने गई थी। उसकी मरी हुई आँखें एक टक दरवाज़े पर लगी हुई हैं। माथे पर आड़ी-तिरछी पट्टी बंधी है और बर्फ़ का एक बैग माथे के पीछे रखा हुआ है। ख़ून का एक थक्का बाथटब के एक कोने में सूख गया है। बाथटब गले हुए बर्फ़ के पानी से भरा है और कुछ बर्फ़ के टुकड़े तैर रहे हैं। चारों तरफ़ फूल, चॉकलेट रखे हुए हैं। एक ताज़ा गुलदस्ता है, एक तरफ़ एक थाले में बासी बिरयानी है। एक तरफ़ उस जूस का डिब्बा रखा हुआ है, जो पीता हुआ वो अन्दर आया था। अनिमेष से रहा नहीं गया और अपनी क़ै सम्भालते हुए वो एक बेसिन के पास आया। अगले पल में वो दौड़ता उनके फ़्लैट से बाहर निकल गया।
अगले एक घंटे में पुलिस आ पहुँची। घोष बाबू बाथटब के पास बैठे शिल्पा की लाश से हँसते-मुस्कराते बातें कर रहे थे। उसके गलते हुए चेहरे से बाल हटा रहे थे। दारोग़ा ने पीछे से आवाज़ दी, “अब चलिए, बहुत मुहब्बत जता ली आपने।”
घोष बाबू ने पलटकर देखा। उनके चेहरे पर वही थकी-हारी-सी मुस्कान वापस छायी हुई थी।
विजय शर्मा की कहानी 'मेरे मरने के बाद'