वो कौन था
आया था अकेले
या पूरे टोले के साथ
नोच लिए थे जिनके हाथों ने
स्वप्नों में उग रहे फूल
रात हो गई तब और गाढ़ी अपने अंधेरे में
बहती नदी हो गई बज्जर जिनके शब्दों से
पल में तितलियाँ रँगीन
हो गईं विलुप्त
जिनकी क्रूर ध्वनि कानों में नहीं
चुभ गई सीधे छाती में
असंख्य गिद्ध लगे मण्डराने सपनों के आकाश में
शिथिल पड़ गई देह
घुट गई आवाज़ भीतर
चेतना लौटने में लगा समय कुछ
तब तक चेतना शून्य हो चुकी थीं वे
जागीं तो विकल्पों के ढेरों सिरे सामने थे
पर सबकी डोर थामे थे तुम
अधिकांश ने भीतिवश थाम लिए वही सिरे
पर कुछ हठी लड़कियों ने
तज कर लाज, तोड़ दी डोर
उनकी आँखों में सदियों की भूख थी
आत्मा में शताब्दियों की प्यास
विद्रोह के ताप से दमक रहा था जिनका चेहरा
निकल पड़ी थीं वे
धरती से लेकर आसमान तक
अपने लिए और जगह छेकने
अपनी पुरखिनों की छोड़ी गई जगह पर करने दावेदारी
हँसती-बिहँसती प्रफुल्लित
वे धरती की देह पर बहती नदियों के जल से करतीं स्नान
फूलों को अपनी देह पर मलतीं
और धूप को तलवों पर ऐसे कि
रगड़ की ऊष्मा से सदियों से बन्द शिराओं में रक्तसंचार हो उठे गतिमान
तुमने इन हठी लड़कियों को
प्रेम की मनुहार संग वापस बुलाया
पर उन्हें अब
केवल प्रेम स्वीकार नहीं था
चाहिए थी चेतना और ख़ुद का वजूद
कि फिर कोई उनके सपनों में सेंध मारने की चेष्टा न कर सके
वो सप्तपदी के फेरों पर प्रेम कविताओं का ज़ोर-ज़ोर से करें पाठ
और प्रेम की धुन बज उठे धरती के छोर-अछोर की सीमा को लाँघ
और स्वप्नों में फिर खिलने लगें स्निग्ध फूल!
आलोक धन्वा की कविता 'भागी हुई लड़कियाँ'