मुआफ़ करने की रस्म ख़त्म हुई तो
मुआफ़ी माँगने का सिलसिला भी
फिर हमें
अपनी दोस्ती की बुनियाद बचाने के लिये
इलज़ाम की बुनियाद डालनी पड़ी
जिसपर क़ायम हुए
दलाइल,
अदालत,
गवाह ओ मुंसिफ़,
और
वो सारे बे अदब तरीक़े
जिसके ज़रिये हम अब एक दूसरे से मिलते हैं
मसलन
दलाइल
अदालत
गवाह ओ मुंसिफ़
हमने अपनी क़िस्मत किसी तीसरे के हाथों लिखवानी तय की
जिसे न तुम्हारे बे सुरे गीत के बारे में पता है
और न मेरी बे ज़ायक़ा बनती सब्ज़ियों के बारे में
हमने ज़ख्म ख़ुद बनाया और उसे कहा कि
इस पर नमक डाला करो
हर तारीख़ पर
हर तारीख़ पर
हमारा ग़ुस्सा ठंडा होता जाता है
और हमारा वजूद
जमता जाता है इक दूसरे की आग के बग़ैर
और हम नाराज़ होते जाते हैं
इक दूसरे से नहीं
बल्कि ख़ुद से
हमारी तमन्ना होती है कि
हमारी नाराज़गी की हद
हमारी नब्ज़ पर कटे!
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