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खडखड-खडखड, धमधम-धमधम — गंगा में यह जहाज़ चला जा रहा है।

सामने कुछ बच्चे, किनारे पर खड़े, उत्सुकता से एक-एक यात्री को पहचानने की कोशिश में हैं। उस बँगले में, कुछ बाबू इज़ीचेयर पर बैठे, सिगार का धुआँ उड़ा रहे हैं। घाट पर स्नानार्थियो की भीड़ है और गंगा में यह जहाज़ चला जा रहा है।

कब से यह पीपल का पेड़ किनारे पर खड़ा है? उसकी जड़ों को गंगा माई कब से धोती आयी है? उसके पत्तों को मेघ ने अभी-अभी धो डाला है और अब हवा उन्हें दुलरा रही है। उसके नीचे मिट्टी के देवता हैं जिन पर पड़े फूल, अच्छत और सिन्दूर यहाँ से ही दिखायी पड़ते हैं। हनुमान जी की लम्बी ध्वजा, सघन पत्तों में, न जाने कहाँ छिप गई है। एक बूढ़ा ब्राह्मण थरथर काँपता, होठ बुदबुदाता, पीपल की जड़ पर पानी दे रहा है और यह जहाज़ गंगा में चला जा रहा है।

पानी में हिलकोरे हैं, गिर्दाब है, फेन है, तिनके हैं, और यह जहाज़ मस्ती में चला जा रहा है।

वह दो मछुए नाव पर मछली मार रहे हैं— एक की कमर में लाल लंगोट और सिर में उजला अँगोछ लिपटा, दूसरे की कमर में उजला लंगोट, लेकिन सिर पर लाल अंगोछ। जाल को पानी से बाहर कर झाड़ रहे हैं दोनों। छोटी-बड़ी मछलियाँ जाल के बीच में सिमटती जा रही हैं। किन्तु, यह क्या? एक बड़ी मछली जाल से उछली, हवा में तैरती-सी पानी में छप-सी जा गिरी और यह जहाज़ अपनी ही गति में हडहड करता बढ़ता जा रहा है।

सामने वह ऊँचा गोलघर का मुंडेरा है और दूसरी ओर वनवार चक के लम्बे-लम्बे ताड़ हैं। एक ओर अट्टालिकाओं की चमकती पाँतें, दूसरी ओर ऊँघते-से झोपड़े। एक ओर पुख़्ता ईंटों की बनी शानदार सीढ़ियाँ, दूसरी ओर कटे खेत, उजड़े गाँव, गिरे-अधगिरे घर। ऊपर धुआँ बादल बनाता चल रहा है और नीचे यह जहाज़ जा रहा है।

जहाज़ के पेट में कोलाहल है, पीठ पर कोलाहल है। निचले हिस्से में थर्ड क्लास के यात्री खचाखच भरे हैं, ऊपर डेक पर कुछ सुफ़ेदपोश बाबू चहलक़दमी कर रहे हैं। यह जहाज़ नहीं जानता कि वह हमारे समाज का कितना सही प्रतिनिधित्व करता है, वह तो बढ़ा चला जा रहा है।

यह क्या जल रही है? चिता, चिता, चिता? हाँ, तीन चिताएँ एक पक्ति में! लोग इतना मरते हैं? किन्तु, शायद आप जीवितों की गिनती भूल गए है। तो भी मरण कितना निठुर, जीवन कितना मधुर। और जीवन-मरण दोनों से उदासीन वीतराग-सा यह जहाज़ चला जा रहा है।

उफ़, यह लाश भेंसी जा रही है। स्त्री की है। बड़े-बड़े बाल पानी पर लहरा रहे हैं। पेट के बल पड़ी है, पीठ और कमर के नीचे के कुछ भाग रह-रहकर ऊपर हो रहे हैं। सुफ़ेद-सुफ़ेद चमड़ी। एक कौआ उस पर बैठने के लिए हवा में पर तोल रहा है। वह लपका, वह बैठा, वह चोंच चलाई— वीभत्स। और वह देखिए, पानी भरने को काँख में कलसी लिए, तुरत आयी वह युवती किस भय-त्रस्त दृष्टि से यह देख रही है। अच्छा है, जहाज़ तेजी से आगे बढ़ा जा रहा है।

पुरवा हवा उठी— नज़दीक के पड़ाव से नावों की एक लम्बी पाँत पाल उड़ाती रवाना हुई। माँझी डोर पकड़े, पाल की दिशा स्थिर कर रहे हैं, तरंगों को कुचलती, चीरती ये नावें जैसे फुर्र-फुर्र उड़ी जा रही हैं, और उनकी क्षिप्र गति से हतप्रभ हमारा यह विशाल जहाज़ मन्थर गति से भंसा जा रहा है।

यह जहाज़ कहाँ जा रहा है? हम कहाँ जा रहे हैं? यह गंगा कहाँ जा रही है? ये नावें कहाँ जा रही हैं? वह लाश कहाँ गई? जगत्याम् जगत् है यह, सब में गति है, सब को चलना है, बढ़ना है, जाना है। हमारा जहाज़ भी जा रहा है, जा रहा है।

रामवृक्ष बेनीपुरी
रामवृक्ष बेनीपुरी (२३ दिसंबर, 1900 - ९ सितंबर, १९६८) भारत के एक महान विचारक, चिन्तक, मनन करने वाले क्रान्तिकारी साहित्यकार, पत्रकार, संपादक थे। वे हिन्दी साहित्य के शुक्लोत्तर युग के प्रसिद्ध साहित्यकार थे।