साथ-साथ

हमने साथ-साथ आँखें खोलीं,
देखा बालकनी के उस पार उगते सूरज को,
टहनी पर खिले अकेले गुलाब पर
साथ-साथ ही पानी डाला,
पीली पड़ चुकी पत्तियों को आहिस्ता से किया विलग,
साथ-साथ देखी टीवी पर मिस्टर एण्ड
मिसिज़ फ़िफ़्टी फ़ाइव,
और की देर तक बातें गुरूदत्त की

खिड़की से आयी सितम्बर की हल्की सिहरन को
दो देहों की एक परिधि में किया समाहित, और
आँखों में उतर आयी नमी को देर तक सम्भाले रखा, फिर
किसी पुरानी हँसी को याद कर
अकारण ही खिलखिला उठे साथ-साथ

खिड़की से झाँकते गुलमोहर को
अपनी हँसी में शामिल देखा
और देखा फुनगी के अन्तिम छोर पर मैना का एक जोड़ा
घनी छाँह में, जग से अलग, किन्तु परस्पर सलग*

स्मृतियों की दोहरी देह में समाहित
जग से विलग हम देख रहे थे
आकाश, धरती, क्षितिज, झरे पत्ते, फूल, तितली, भौवरें
हम शरणार्थी नहीं थे अपनी-अपनी देहों में
सहयात्री थे… जिन्हें
अनगिनत दृश्यों से गुज़रना था, साथ-साथ…

*अज्ञेय की एक पंक्ति

जाड़े की एक शाम

ऐसे ही गंगा घाट की सीढ़ियों पर पैर लटकाये
निहारते रहे पुल के उस पार डूबता सूरज
डूब सूरज रहा था और छिप हम रहे थे धीरे-धीरे

हथेलियों में फँसी उँगलियाँ शिथिल पड़ रही थीं
और जाड़े की उस शाम जाने कहाँ से
पसीना आ टपका उँगलियों के दरम्यान

बहुत कुछ अनकहा ही रह गया
बह गया पानी के साथ पैरों के नीचे,
कोई जल्दी नहीं थी, पर जल्दी थी कि
याचना में उठे हाथों से सहला देता कोई माथा
तो लौटने की पीड़ा कुछ कम हो जाती
अंकित रह जाता उसका स्पर्श देर तलक
जिसकी गंध साँसों में भर
लौटा जा सकता अपनी-अपनी दिशाओं में…

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