बचपन के मैग्नीफ़ाईंग ग्लास में
सबसे पहली झलक में देख पाता हूँ
अपनी ज़मीन के पास
किसी चट्टान पर बैठा हुआ ख़ुद को
मुझे याद आता है
हमारी ज़मीन और घर को रौंदता हुआ बुलडोज़र
और रोते हुए एक-दूसरे को सांत्वना देते माँ-बाबा
बुलडोज़र पर बैठे हुए निर्दयी लोग
जिनके पास अपना कुछ भी नहीं था
जो हमारे शुभचिंतक या शत्रु भी नहीं थे
जो उस दिन आए थे सिर्फ़ अपनी ड्यूटी बजाने
हाँ, उसी दिन, जिस दिन खोया था हमने
अपनी धरती, अपनी पहचान और अपना देश
तब मैं उसी चट्टान पर खड़ा था
और वहीं से उन पर पत्थर फेंक रहा था
यह जानते हुए भी कि इससे उनका कुछ नहीं बिगड़ने वाला
मुझे याद है
मैं तब अपने बचपन के टूटे हुए टुकड़ों को चुन रहा था
हाँ, उसी दिन, जिस दिन खोया था हमने
अपनी धरती, अपनी पहचान और अपना देश
मेरे माँ-बाबा पैदाइशी किसान थे
मेरा आजा भी पैदाइशी किसान थे
और मैं ख़ुद, एक ग़रीब किसान का बेटा हूँ
और मुझे याद आता है
उस दिन पीला पड़ गया माँ-बाबा का असहाय चेहरा
जिनके खेतों को छीनकर बना दिया गया था अपाहिज
जीवन भर के लिए
उन निर्दयी लोगों ने खींच डाली थी
मेरे और मेरे देश व घर के बीच एक सीमा-रेखा
यह वो सीमा-रेखा थी
जो मुझ जैसे कमज़ोर लोगों
और हमारे अराजनैतिक अभिभावकों के बीच
राजनीतिक तौर पर खींच दी गई थी
जिसकी व्याख्याएँ हमारी नहीं थीं
मुझे याद है,
लोग तब भी नियति को हमारा अंतिम सच बता रहे थे
हाँ, उसी दिन, जिस दिन खोया था हमने
अपनी धरती, अपनी पहचान और अपना देश
और यहाँ तक कि हम ख़ुद को भी खो चुके थे।
निर्मला पुतुल की कविता 'आदिवासी लड़कियों के बारे में'