“राहुल, तुमने वो आँटी वाली इवेंट में इंटरेस्टेड क्यों किया हुआ था?”

“ऐंवेही यार! अब तुम शुरू मत हो जाना, पैट्रिआर्कि, फेमिनिज्म, कुण्डी मत खड़काओ एन ऑल।”

“क्यों ना शुरू हो जाऊँ? रीज़न दे दो, नहीं होऊँगी!”

“अच्छा एक बात बताओ.. क्या तुम्हें मेरे लिए कुण्डी मत खड़काओ गाने में प्रॉब्लम होगी?”

“नहीं!”

“तो कोई किसी के लिए ‘बोल ना आँटी आऊँ क्या’ गा रहा है तो क्या परेशानी है? यार अब ये हिपोक्रेसी है!”

नहीं, हिपोक्रेसी नहीं है। तुम इतना ब्लैक एन वाइट में क्यों सोचते हो? मैं तुम्हारे लिए कोई गाना गा दूं तो उसका मतलब यह नहीं है कि मुझे उससे कोई प्रॉब्लम नहीं है। और मुझे कोई चीज़ पर्सनली पसंद है तो उसका यह भी मतलब नहीं, कि मैं उसे पब्लिक डोमेन में लाने के लिए आज़ाद हूँ। जब आप किसी के सामने कुछ कहते हैं तो यह आप तय नहीं करते कि वो इंसान आपकी बातों से किस तरह प्रभावित होगा। तुम ही बताओ जिस तरह से तुम मेरे दिए कॉर्ड्स शो ऑफ करते हो, मेरा ये गाना या उसके आस-पास की बातें भी करोगे?”

“नहीं। लोगो की सोच ही बदल जाएगी एकदम।”

“वही तो। क्योंकि तब हम ये ‘कोई’ और ‘किसी’ नहीं रहेंगें। तब हम राहुल और निधि हो जाएंगें। और ये कोई और किसी की आड़ टूट जाएगी। पब्लिक डोमेन का कैजुअल स्टेटमेंट, पर्सनल जजमेंट बन जाएगा। हमें उसका फर्क नहीं पड़ना चाहिए.. लेकिन पड़ता है। क्योंकि हम लोगों की सोच जानते हैं। और जब तक यह सोच रहेगी, जब तक ये फर्क पड़ता रहेगा, तब तक पर्सनल और पब्लिक अलग ही रहेंगे। और वो भी मैं हूँ जो तुम्हारे प्यार में शायद चीज़ें कर दूँ वरना आजकल लोग इतने जागरूक हैं कि समाज के लिए अपना आराम, सहूलियत, प्रैफरेंसेज, ओब्लिगेशंस सब छोड़ देते हैं। मुझे भी बस वही गाना बचा है क्या तुम्हें सुनाने के लिए?”

“चलो तुम्हारी न सही, लेकिन लोगों की तो हिपोक्रेसी है ना ये? वो तो नहीं सोचते होंगें इतना!”

“तुम्हें कैसे पता? तुमने स्टैट्स बनाए हुए हैं कि ये बंदा कल हनी सिंह के गाने पर नाचा था और आज ओमप्रकाश को बैन करना चाहता है? जो नापसंद करते हैं दोनों को करते हैं, जो सपोर्ट कर रहे हैं, दोनों को कर रहे होंगें.. यार, समाज का एक हिस्सा एक बात करता है तो दूसरा हिस्सा हमेशा कोई दूसरी विपरीत बात ही करता है। तुम्हें हिपोक्रेसी की तरफ इशारा करना है तो अलग-अलग विचार रखने वाले लोगों का इंटरसेक्शन हिपोक्रेसी है, को-एक्सिस्टेंस नहीं। अच्छा तुम बताओ, तुम किस तरफ हो? या बस वही अलाप है कि यह हो सकता है तो वह क्यों नहीं हो सकता?”

“अच्छा ठीक है ना!! इंटरेस्टेड ही तो किया है, कौन-सा जा रहा हूँ?!”

“अच्छा?…”

पुनीत कुसुम
कविताओं में स्वयं को ढूँढती एक इकाई..!