‘कुरुक्षेत्र’ कविता और ‘अँधा युग’ व् ‘ताम्बे के कीड़े’ जैसे नाटक जिस बात को अलग-अलग शैलियों और शब्दों में दोहराते हैं, वहीं एक दोस्त की यह कविता भी उन लोगों का मुँह ताकती है जो आज भी उसी धुन में चिल्ला रहे हैं जिस धुन में कुछ-कुछ सालों बाद इतिहास में विस्फोट होते आए हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी से पॉलिटिकल साइंस ऑनर्स कर रहीं पूजा शाह ने यह कविता लिखी है, जिसे पढ़कर आगे बढ़ाना ज़रूरी लगा। – पोषम पा
मैं समर अवशेष हूँ
इन शहरों में
कुछेक बचे-खुचे
पुराने हुए किलों की टूटी-फूटी दीवारें
बड़ी शिद्दत से चीखती हैं
ये किसी तारीख़ की किताब में क़ैद काले अक्षरों से
कुछ ज़्यादा बयां करती है
वो पानी से सूख चुके ताल तालाब
सफेद संगेमरमर
वो लाल दीवारें, काली पड़ती नक्काशी
वो मलीन सा गुम्बद और सूखी बेजान घास प्यासी
आज चीखते हैं
चिल्लाते हैं
याद दिलातें है
एक सकुचाई सी अखण्डता
ठुकरायी गयी सभ्यता
भुलायी जा चुकी संस्कृति
और बिसरायी जा चुकी
कुछ कहानी, कुछ किस्से
किसी शहंशाह की शहंशाही के
किसी मुगल की मुगलई के
किसी पेशवा की पेशवाई के
वो कुछ किस्से
जो सदियों से समर में समेटे
सुबह, शाम, स्याह रातों
का संदर्भ समझाते तो हैं
ये सब कुछ संकलित कर कई समकालीन सफ़हे सजाते तो हैं
पर ये सही मायनों में
देखे जा सकते हैं
पढ़े जा सकते हैं
महसूस किये जा सकते हैं
वहाँ
जिन शहरों में
कुछेक बचे-खुचे
पुराने हुए किलों की टूटी-फूटी दीवारें
बड़ी शिद्दत से चीखती हैं
ये कहती हैं कि मैं गवाह हूँ
मान की, सम्मान की
मैं गवाह हूँ
सदी-दर-सदी सिमटती ज़मीन की और क्षितिज से सरकते आसमान की
मैं गवाह हूँ
किसी राजे-रजवाड़े की वीरता की निशानियों की
मैं गवाह हूँ
उसके महल के गलियारों में पनपी जौहर की कहानियों की
मैं गवाह हूँ
ताकत की, औहदे की, सरहद बाँटती लीख की
मैं गवाह हूँ
हर किसी के किले के कमरों के कोनों से उठती तवायफों की चीख की
मैं गवाह हूँ
सुर की, सितार की, साज़ की
मैं गवाह हूँ
हर महफिल में नाचती किसी रक्कासा के घुंघरुओं की आवाज़ की
मैं गवाह हूँ
पद की ,प्रतिष्ठा की, मान की
मैं गवाह हूँ
कवच के, कुंडलों के दान की
मैं गवाह हूँ
गिरते ज़मीर की, लड़खड़ाते कदम की, और फिसलती ज़बान की
मैं गवाह हूँ
धर्म की, अभिमान की, कृष्ण चक्र संधान की
मैं गवाह हूँ
गुरूकुल के ज्ञान की, कुलवधू के अपमान की
मैं गवाह हूँ
वर के वरदान की, वामांगी के स्वाभिमान की
मैं गवाह हूँ
धर्माधिराज युधिष्ठिर के वचन महान की
ये मेरा शहर है
और मैं समर अवशेष हूँ
धोने आया द्रौपदी के केश हूँ
और उससे ये कहने कि
सदियों से इस स्थान पर जो समर
लड़े गए हैं
लड़े ही नहीं गए तुम्हारे लिए
जो अगर लड़े गए होते
तो भरी सभा में द्वंद्व होता
वहीं समर आरम्भ होता
वहीं समर का अंत होता
वो
जो लड़ा गया था
वो धन और धाम जो गँवाए
चौसर की उस दाव के लिये लड़ा गया
वो जो लड़ा गया था
वो ज़मीनें थी छीनी
उसपर टिकाने पाँव के लिए लड़ा गया
वो जो लड़ा गया था, वो अंतत: पाँच गाँव के लिए लड़ा गया
मैं वही समर अवशेष हूँ
और आज भी तुम्हारी सड़कों पर जलती मोमबत्ती की लौ में जिन्दा हूँ
मैं वही समर अवशेष हूँ
और महाभारत पर शर्मिंदा हूँ
मैं लाशों पर चढ़े फूलों को नहीं
विजय के काँटों के बिछोने लाया हूँ
सदियों तक समेटा है जिन्हें
आज धोने दो मुझे
पांचाली मैं तुम्हारे केशों को धोने आया हूँ
तुम्हें ग्लानि मुक्त करने आया हूँ
तुम्हें लाल रंग से रिक्त करने आया हूँ
वो लाल रंग जो तुम्हारे बालों के नीचे से झाँक रहा है
कह रहा है
कि दोष मेरा है
मैं वो लाल रंग हूँ
जो दुःशासन के खून का भी है
और धर्मराज के सिंदूर का भी!!!